विजय आनंद द्वारा निर्देशित फिल्म- तेरे घर के सामने, के नायक- राकेश (देव आनंद) और नायिका- सुलेखा (नूतन) द्वारा आपस में प्रेम में होने की आपसी समझ विकसित होने के बाद परस्पर प्रेम के शुरुआती दौर में जब नायिका अपनी माता जी (प्रतिमा देवी) के साथ दिल्ली से शिमला चली जाती है तो उसके वियोग में नायक से समय काटे नहीं कटता, काम में मन नहीं लगता, और प्रेमिका को देखने, उससे मिलने और बातें करने की चाह इतनी गहन हो जाती है कि वह अपने दोपहिया स्कूटर पर ही सवार होकर दिल्ली से शिमला पहुँच जाता है। पर यह चाह दुख भरी न होकर प्रेम की गहनता की प्रसन्नता से भरी है।
अब शिमला की सर्द शाम में नायक कैसे नायिका को खोजे? शिमला पहुँच जाने से उसे अंदुरनी तौर पर खुशी भी है और उसका प्रेम और उसकी भावनायें दोनों ही उसे आनंदित भी कर रहे हैं।
प्रेमिका से मिल पाने की आस और प्रेमिका के लिये अपने अंदर उमड़ रहे प्रेम में सराबोर उसकी भावनायें मिलकर उसके अंदर ऐसी उथल-पुथल मचाते हैं कि उसके उदगार इस गीत के रुप में उभर आते हैं। गीत में विरह की पुकार तो है पर यह दुख से भरा विरह-गीत नहीं है। यह मूलतः एक प्रेमगीत के रुप में ही सामने आता है बल्कि इसे खुद से ही छेड़छाड़ करने वाला रोमांटिक गीत कहा जा सकता है। नायक की खुद की ही भावनायें उसके सथ अठखेलियाँ कर रही हैं और वह भी इन भावों का आनंद ले रहा है।
संगीतकार – एस.डी.बर्मन, गीतकार – हसरत जयपुरी, गायक – मोहम्मद रफी, अभिनेताओं – देव आनंद, और नूतन, निर्देशक – विजय आनंद और सिनेमेटोग्राफर – वी रात्रा के संयुक्त्त प्रयास ने इस गीत को एक सम्पूर्ण गीत बना दिया है।
प्रेमिका की तलाश कर रहे प्रेमी, जो कि अपने प्रेम के कारण और अपने द्वारा प्रेमिका की तलाश करने जैसे कठिन कार्य से खुश भी है, के भावों को जैसा हसरत जयपुरी ने व्यक्त्त किया है उसमें क्या जोड़ा या घटाया जा सकता है?
रफी ने जिस शिद्दत से इस गीत को गाया है उससे बेहतर और कौन गा सकता है?
जिस तरह से एस.डी बर्मन ने इस गीत के लिये संगीत रचा है उसमें क्या हेर-फेर करने की ढृष्ठता कौन कर सकता है?
देव आनंद से बेहतर भी क्या कोई इस गीत को परदे पर प्रस्तुत कर सकता था/है या कर पायेगा?
विजय आनंद और उनके सिनेमेटोग्राफर वी रात्रा से ज्यादा अच्छे ढ़ंग से निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर की कोई अन्य जोड़ी इस गीत को दृष्यात्मक बना पायेगी?
इस गीत में लेखन, संगीत संयोजन, गायन, और फिल्मांकन इस गहराई से आपस में जुड़े हुये हैं कि गीत के किसी एक विभाग को अलग कर के नहीं देखा जा सकता। इस गीत का आनंद इसकी सम्पूर्णता के साथ ही लिया जा सकता है।
गीत न केवल देव आंनद के चरित्र – राकेश की परिस्थितियों बल्कि उसके व्यक्त्तित्व पर ज़ेब देता है बल्कि यह देव आनंद के व्यक्तित्व से पूर्णतया मेल खाता गीत है। ऐसा लगता नहीं कि देव इस गीत में फिल्म के लिये अभिनय कर रहे हैं।
जैसे ही देव गाते हैं –
तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में
कैमरा उनसे दूर खिंचता चला जाता है और उन्हे ऊपर से आती सड़क और दायें मोड़ से नीचे की तरफ जाती सड़क के मुहाने पर खड़ा दिखा कर एक तरफ तो हिल स्टेशन पर होने का अहसास करा जाता है और दूसरी तरफ यह भी दिखा देता है कि प्रेमी नायक वाकई प्रेमिका की तलाश में तीराहे या चौराहे पर खड़ा है, जहाँ से उसे अटकल्पच्चू तय करना है कि किस दिशा में जाये प्रेमिका को खोजने के लिये।
तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में
माने न मेरा दिल दीवाना
रफी की दिलकश गायिकी माहौल को वाकई एक नशे से भर देती है और ऊपर से एस.डी बर्मन ने गीत की रिकार्डिंग कुछ इस अंदाज़ में की है मानो रफी की आवाज़ किसी गहरी सुरंग से निकल कर चारों तरफ के स्पेस को अपनी गूँज से भरे दे रही हो। ऐसा असर ठीक भी है गीत में आखिरकार नायक के ह्रदय की गहराइयों से गीत का प्रसारण जगत में हो रहा है।
हे बड़ा नटखट है समां
हर नज़ारा है जवां
छा गया चारों तरफ
मेरी आहों का धुआँ
दिल मेरा, मेरी जां न जला
तू कहाँ, तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में
देव आनंद अपने अभिनय से दर्शाते हैं कि नायक प्रेम में होने का पूरा पूरा आनंद उठा रहा है और इस अवस्था की छोटी से छोटी भावनाओं के प्रति चेतन लगता है। अपनी इस खुशी में भागीदारी करने के लिये भी उसका नायिका को देखना उससे मिलना जरुरी है। कहीं किसी घर में रोशनी दिखायी देती है तो नायक के अंदर उत्सुकता और आशा जन्म लेती हैं कि हो न हो वहीं उसकी प्रेमिका ठहरी हुयी है। किसी और के बाहर झाँकने पर वह शरारत से मुस्कुरा कर वहाँ से हट लेता है। वहाँ से हटता है तो राह में किसी और घर की रोशनी उसे आमंत्रित करने लगती है पर वहाँ से भी उसे ऋणात्मक उत्तर ही दिखायी देता है।
राह में युवा-युगल को देख नायक अपने चंचल मन के वशीभूत हो मुड़ कर उन्हे देखने के लोभ का संवरण नहीं कर पाता और निस्संदेह इस जोड़े को देखकर उसे प्रेमिका से दूरी का अहसास कुछ ज्यादा ही तीव्रता से सताने लगा होगा। जब युगल भी उसकी ओर देखता है तो वह शर्मा जाता है।
रात में नायक गाकर अपनी प्रेमिका को ढूँढ़ रहा है पर न तो गीत के बोलों में, न इसकी धुन और गायिकी में और न ही देव आनंद के अभिनय में कहीं से भी छिछोरापन तो छोड़िये हल्कापन तक नहीं है। बाद में ऐसी परिस्थितियों को लेकर अन्य फिल्मों में भी गीत भी बने हैं पर इस गीत की गुणवत्ता और ऊँचाई को कोई गीत नहीं छू पाया है।
ओ आई जब ठण्डी हवा
मैने पूछा जो पता
वो भी कतरा के गई
और बैचेन किया
प्यार से तू मुझे दे सदा
तू कहाँ, तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में
रोशनी वाले घरों में बाहर से ताक-झाँक करके थक चुके शरीफाना तबियत वाले नायक की बैचेनी झलकती है जब वह हवा के बारे में भी शिकायत करने लगता है। उसे शिकायत है कि हवा तक उससे कतरा कर चली गई है, बिना उसकी प्रेमिका के बारे में कुछ कहकर। यहाँ वहाँ खोजते हुये वह फिर उसी मोड़ पर आ पहुँचा है जहाँ से उसने अपनी प्रेमिका की तलाश का रास्ता पकड़ा था। ब की बार वह नीचे जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ता है।
इस रास्ते पर एक मकान की ऊपरी मंजिल पर किसी महिला की छाया देखकर वह खुशी से भागता हुआ खिड़की के नीचे जा खड़ा होता है। पर वाह री किस्मत, यह तो कोई और ही महिला है जो उसे गीत गाकर माँगने वाला समझकर सिक्का उसकी ओर उछाल देती है। नाराज नायक सिक्के को वापिस खिड़की की ओर उछाल देता है और महिला का पति उपेक्षा से खिड़की बंद कर देता है।
अभी इश्क के इम्तिहां बाकी हैं!
हे चाँद तारों ने सुना
इन बहारों ने सुना
दर्द का राज़ मेरा
रहगुज़ारों ने सुना
तू भी सुन जानेमन
आ भी जा
तू कहाँ, तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में
अब नायक के गाने में अधैर्य प्रवेश कर रहा है, शिकायत बढ़ रही है, आवाज में कुछ और तेजी आ गयी है। पर जल्दी ही वह संभल जाता है। शायद इंतज़ार खत्म होने को है।
और ऐसा ही हो भी जाता है जब उसके गाने की आवाज़ को पहचान कर अपने कमरे में किताब पढ़ रही नायिका उठकर बालकनी में आ खड़ी होती है।
नायिका के लिये नायक का शिमला पहुँच जाना अनपेक्षित है। और उसे आश्चर्य होना ही है उसे यूँ सामने खड़े पाना।
नायक-नायिका के इस मिलन के क्षणों में परस्पर देखे जाने के समय उनकी खुशी को जिस आकर्षक अंदाज़ में देव आनंद और नूतन ने प्रदर्शित किया है वह देखकर आनंद लेने की बात है।
ओ प्यार का देखो असर
आये तुम थामे जिगर
मिल गई आज मुझे
मेरी मनचाही डगर
क्यूँ छुपा, एक झलक फिर दिखा
तू कहाँ, तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में
नायक अपनी कोशिशों पर और कोशिशों के सफल परिणाम पर हर्षित है, गर्वित है और नायिका के समक्ष वह अपने प्रेम की सच्चाई, गहराई और महिमा का बखान करता है। वह दावे करता है कि उसके प्रेम की कशिश ने प्रेमिका को उससे मिलवा दिया है। जब एक झलक दिखाकर नायिका अंदर चली जाती है तो नायक निवेदन करता है कि वह प्रेमिका की एक और झलक का सुपात्र है। उसे तो पता नहीं कि नायिका स्वयं अंदर यह निश्चित करने गयी है कि उसकी माँ को उसके प्रेमी के वहाँ आने का पता अभी न चल जाये। वह दरवाजा बंद करके पुनः बालकनी में आकर प्रेमी को अपने दर्शन कराती है और उसे देखने का आनंद उठाती है।
नायक फिर से शरीफाना हरकत करते हुये खुशी खुशी वापिस जाने लगता है। उसका उद्देश्य प्रेमिका को खोजना था और खोज पूरी हो गयी है। वह सड़क पर खड़े रहकर न अपने प्रेम का और न ही अपनी प्रेमिका का तमाशा बनाना चाहता है। कुछ आगे तक जाकर खुशी से लबरेज़ वापिस नायिका के मकान की ओर दौड़ता है। आज भर के लिये विदा लेने के लिये।
उसे वही राहगीर मिलता है जो उसके द्वारा खोज शुरु करते हुये मिला था। वही उसकी कशिश भरी खोज का गवाह भी है। नायक और नायिका को एक साथ देखकर वह मुस्कराकर नायक की पीठ थपथपा कर उसके प्रेम, धीरज और संकल्प की मूक प्रशंसा करता है।
यह कालजयी गीत नये से नये प्रशंसक जुटाता रहता है। विचारणीय तो यही मुद्दा हो सकता है कि क्या ऐसे भी श्रोता/दर्शक होंगे या हो सकते हैं, जिन्हे इस गीत ने कभी लुभाया हो पर अब न लुभाता/लुभा पाता हो?
…[राकेश]
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