ऊँच-नीच के अंतर के सागर में गहराई तक डूबे भारतीय समाज में फिल्मी दुनिया भी इस बीमारी से अछूती नहीं रही है। वहाँ ऊँच-नीच के भेदभाव कुछ अलग तरीके के हैं। वहाँ नायक की भूमिकायें निभाने वाले अभिनेता, जो व्यवसायिक रुप से भी सफल हैं, सबसे ऊँचा स्थान पाते हैं। फिल्मी दुनिया का कारोबार इन्ही सितारों के इर्द-गिर्द घूमता है। उनकी हर तरह की इच्छा को फिल्म यूनिट सिर-आँखों पर लेती है। शूटिंग के समय जहाँ फिल्म में काम कर रहे सितारे हर तरह की सुविधायें और सम्मान पाते हैं वहीं यह भी संभव है कि इन सितारों से बहुत ज्यादा प्रतिभाशाली अभिनेतागण, जो कि फिल्म के नायक नहीं वरन अन्य सहायक भूमिकायें निभाते हैं, न तो किसी तरह की सुविधाओं के हकदार माने जाते हैं और न ही उन्हे उचित सम्मान ही दिया जाता है। होटल में सितारों को उँचे दर्जे के कमरे और चरित्र अभिनेताओं को नीचे दर्जे के कमरे उपलब्ध कराना बहुत साधारण सी बात है भारतीय फिल्म निर्माताओं के लिये।
सिर्फ कुछ ही चरित्र अभिनेता ऐसे रहे हैं जिन्हे नायक जैसा ही सम्मान और सुविधायें दी जाती रही हैं परंतु ये वे अभिनेता हैं जो अपने जमाने में खुद ही चमकते सितारे रह चुके हैं और जो चरित्र भूमिकायें करने के बावजूद ऐसी सशक्त्त भूमिकायें पाते हैं जो नायक से कम प्रभावशाली नहीं होतीं।
परंतु ऐसे बहुत सारे प्रतिभाशाली अभिनेता रहे हैं, जो व्यवसायिक फिल्मों के सितारों से बहुत ज्यादा योग्यता रखते हैं परंतु चूँकि उनके नाम बॉक्स ऑफिस पर बहुत ज्यादा धन इकट्ठा नहीं कर सकते सो उन्हे दोयम दर्जे का व्यवहार सहना पड़ता है। नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी जैसे परम गुणी अभिनेताओं ने इस बात को कई बार कहा है कि जब उन्होने हॉलीवुड या अन्य विदेशी फिल्म उद्योगों में बनी फिल्मों में काम किया तब उन्हे पता चला कि कैसे वहाँ फिल्म के सब कलाकारों के साथ समानता का व्यवहार किया जाता है। वहाँ उन्हे अपने काम के बदले अच्छा मेहनताना मिला और शूटिंग के दौरान उनसे अच्छा व्यवहार किया गया और उन्हे अच्छी सुविधायें मिलीं जबकि इतने विलक्षण अभिनेताओं के साथ भारतीय और खासकर हिन्दी फिल्म उद्योग में सौतेला व्यवहार किया जाता रहा है।
यह भी देखा गया है कि अगर फिल्म का सितारा नायक चरित्र अभिनेता से कम प्रतिभा रखता है तो शूटिंग के दौरान अच्छा अभिनय करने वाले चरित्र अभिनेता के प्रदर्शन से घबराकर सितारे हर तरह के बदलाव लाने की माँग रखते हैं जिससे परदे पर वे चरित्र अभिनेता से कमजोर न लगें, इस मकसद को हासिल करने के लिये भले ही फिल्म के मूल चरित्र की हत्या हो जाये पर सितारों को अपने अहं की तुष्टि करनी होती है और अपना बाजार में अपनी स्थिति कायम रखनी होती है।
अस्सी के दशक के शुरु में विनोद पांडे ने एक फिल्म बनायी थी, “एक बार फिर” जिसमें नायक की भूमिका में फिल्मों में काम करने वाला अभिनेता (सुरेश ओबेरोय) अपने पुराने परिचित और घरेलू मित्र चरित्र अभिनेता (सईद जाफरी) की अभिनय क्षमता से घबराकर न सिर्फ निर्देशक पर दबाव डालता है कि सईद जाफरी के दृष्य और संवाद काटे जायें बल्कि स्क्रिप्ट में ऐसे बदलाव किये जायें जिससे कि परदे पर उनका चरित्र सईद जाफरी के चरित्र से ज्यादा शक्तिशाली और प्रभावशाली दिखाई दे।
व्यवसायिक फिल्मों द्वारा ऐसा महत्वपूर्ण स्थान पाने के पीछे सिनेमा के दर्शक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वे बेहद दोयम दर्जे की फिल्मों, जो कि सिनेमा के हर विभाग में कमजोर होती हैं, को सफल बनाने में अपने धन और समर्थन का सहयोग प्रदान करते हैं और फिल्मों के बाजार पर नियंत्रण रखने वाली शक्तियों को यह कहने का बहाना दे देते हैं कि लोग यही सब देखना पसंद करते हैं। दर्शकों के ऐसे अपरिपक्व व्यवहार से प्रतिभाशाली अभिनेताओं को कुंठा से भरा जीवन जीना पड़ता है क्योंकि हजार गुना ज्यादा प्रतिभा होने के बावजूद उन्हे अपमानजनक व्यवहार फिल्म उद्योग में सहना पड़ता है।
अभिनय करना उनका व्यवसाय है और वे कुछ और काम नहीं कर सकते हैं अपना जीवन चलाने के लिये, अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिये। उनसे बहुत कम प्रतिभा वाले व्यवसायिक अभिनेता उनसे सैंकड़ों गुना ज्यादा धन पाते हैं, लोगों से ध्यान पाते हैं और योग्य अभिनेता पृष्ठभूमि में रहने को विवश कर दिये जाते हैं।
इस स्थिति को सिर्फ दर्शक ही बदल सकते हैं। बाजार तो चढ़ते सूरज को सलाम करता है। जब योग्य अभिनेता व्यवसायिक सफलता भी पायेंगे तब बाजार अपने आप उन्हे उचित समान और स्थान देने के लिये विवश हो जायेगा।
जब चरित्र अभिनेताओं को दूसरे दर्जे का व्यवहार सहना पड़ता है तो जूनियर एक्स्ट्रा अभिनेताओं को क्या न सहना पड़ता होगा?
शुक्नो लंका फिल्म का नायक चीनू नंदी (मिथुन चक्रबर्ती) एक जूनियर एक्स्ट्रा है जिन्हे छोटी छोटी भूमिकाओं को पाने के लिये भी किस्म किस्म के पापड़ बेलने पड़ते हैं। चीनू, निर्देशकों और फिल्मों में नायक की भूमिकायें निभाने वाले अभिनेताओं की चापलूसी करते रहते हैं ताकि उन्हे फिल्मों में काम मिलता रहे और उनका जीवन किसी तरह चलता रहे। अभिनय वे अच्छा कर लेते हैं और कई बार यही बात उनके खिलाफ जाती है क्योंकि वे सितारे से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन शूटिंगे के दौरान कर देते हैं तो सितारे माँग कर देते हैं कि सीन जमा नहीं और किसी और एक्स्ट्रा को लाओ, इस भूमिका को करने के लिये। चीनू अपनी ओर से भरकस प्रयास करते हैं कि ये सितारे उनसे नाराज न हो जायें। वे एक सितारे की चापलूसी करते हुये कहते भी हैं,” आप के ही कारण तो फिल्में बनती हैं और हम जैसे छोटे कलाकारों को काम मिल जाता है”।
कोल इंडिया से काम से निकाले गये चीनू नंदी को जीवनयापन की दुविधा फिल्मों में एक्स्ट्रा बना देती है। कितनी बार वे फिल्मों से निकाले जाते हैं। चाय का गिलास तक उनके हाथ से वापिस ले लिया जाता है क्योंकि क्यों कोई फिल्म यूनिट उन जैसे छोटे अभिनेता के ऊपर एक चाय के पैसे भी खर्च करे। ऐसी स्थितियों के बावजूद चीनू अभिनय में रमे हुये हैं, उन्हे समझ है अभिनय की।
घर पर चीनू की पत्नी (अंगना बसु) जरुरत से ज्यादा नाटकीय अभिनय से भरे लाउड टीवी सीरियल्स देखती रहती है और अपने पति के टोके जाने पर कि क्यों वह इतने बेकार किस्म के अभिनय को देखने में समय नष्ट करती है, वह चीनू को ताना देती हैं कि टी सीरीयल्स वाले अभिनेता लाखों कमाते हैं जबकि तुम सैंकड़ों भी नहीं कमा पाते।
चीनू अपने व्यवसाय की इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करते हैं। पर अंदर उनके मन में कहीं यह कामना है कि उन्हे भी लोग जानें, उनके काम की भी सरहाना हो। हर अभिनेता में ऐसी कामना होती है। चीनू चाहते हैं कि कभी उन्हे भी कोई अच्छी भूमिका निभाने को मिले।
फिल्म के एक अन्य महत्वपूर्ण चरित्र हैं बंगाली फिल्में बनाने वाले निर्देशक जॉय सुंदर सेन (सब्यसाची), जिनकी फिल्में बंगाल और भारत में तो नहीं चलतीं पर विदेश में उनका खासा नाम है और उनकी फिल्में बाहर के देशों में ही सफलता पाती हैं। सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और अदूर गोपालाकृष्णन आदि प्रख्यात निर्देशकों से भरी हुयी है ऐसे निर्देशकों की सूची जिनकी बेहतरीन फिल्मों को भारत में न तो वाजिब पहचान मिली और न ही खुली सराहना पर सिनेमा की समझ रखने वाले विदेशी पारखी उनकी फिल्मों का इंतजार करते रहे हैं और उन्हे हाथों-हाथ लेते रहे हैं।
इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि सिनेमा के ऐसे बहुमूल्य मोती देश के अंदर उचित सम्मान, ध्यान और स्थान नहीं पा सके। किसी न किसी वक्त्त इन सभी काबिल सिनेमा सृजकों ने इस बात को कहा है कि भारत में उनकी फिल्में देखी नहीं गयीं।
जॉय, बर्लिन में हुये अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में अपनी फिल्म के लिये पुरस्कार पाते हैं और वापिस कलकत्ता आने पर बहुत सारी संस्थायें उन्हे सम्मानित करके ऐसा भ्रम उत्पन्न करना चाहती हैं कि वे इस कलाकार और उसकी कला में बहुत रुचि रखती हैं और दोनों को बढ़ावा देना चाहती हैं। ऐसी संस्थायें बहती गंगा में हाथ धोकर अपनी छवि चमकाने के फेर में पड़ी होती हैं।
जॉय एक संस्था के मंच से ही ऐसी आशा व्यक्त्त करते हैं कि शायद स्थानीय दर्शक उनके आने वाली फिल्मों और पिछले काम को देखें। प्रतिभा को पहचानने और सराहने के मामले में भारत हर वक्त्त ” घर की मुर्गी दाल बराबर ” वाली कहावत को चिरतार्थ करता रहता है।
बर्लिन में ही एक नयी बनी मित्र, एक आस्ट्रेलियन अभिनेत्री इज़ाबेला (Emma Brown) के साथ घुमते हुये जॉय को एक बैंच पर ऋत्विक घटक की कहानियों की पुस्तक मिल जाती है और वे इसे एक संकेत की तरह लेते हैं कि यह किताब उन्ही के लिये यहाँ छूट गयी है। एक कहानी “पारस पत्थर” उन्हे मोहित करती है और वे उस पर फिल्म बनाने की घोषणा कर देते हैं।
जॉय की पत्नी (देबाश्री रॉय) उन्हे सुझाव देती हैं कि अधेड़ उम्र के नायक की भूमिका में उन्हे चीनू नंदी को लेना चाहिये।
ज़िंदगी के रंग और ढ़ंग दोनों ही निराले होते हैं। चीनू को कहाँ तो एक्स्ट्रा की भूमिकायें मिलने के लिये भी तमाम तरह की लानत मलामत से गुजरना पड़ता है और कहाँ उनके दरवाजे पर विश्वविख्यात निर्देशक अपनी अगली फिल्म के नायक की भूमिका का प्रस्ताव लिये आता है। चीनू तो घबरा उठते हैं। कुछ ही दिन पहले वे केवल सौ रुपयों के लिये एक फिल्म यूनिट के एकांऊटेंट के सामने गिड़गिड़ाकर विनती कर रहे थे और वहीं बैठे सितारे ने उन पर रहम खाते हुये उन्हे सौ रुपये दिये जाने की कृपा उन पर की थी और कहाँ उस सितारे और उस जैसे अन्य सितारों की इच्छाओं को दरकिनार करके जॉय, चीनू को अपनी अगली फिल्म का नायक बना डालते हैं।
निर्माता के अंतिम समय में जॉय को धोखा देकर गायब हो जाने के कारण इज़ाबेला फिल्म को आर्थिक सहयोग देने के लिये निर्माता बनकर भारत आ जाती हैं।
भाग्य के ऐसा पलटा खाने पर आदमी हर समय भयभीत रहता है कि कहीं यह अवसर उनसे छिन न जाये। वह बार बार आश्वासन चाहता है कि वह ठीक तरीके से काम कर रहा है। अब तक के जीवन के स्तर से बड़ा काम मिलने पर संतुलन सम्भालना आसान बात नहीं है किसी भी आम आदमी के लिये। चीनू भी अंदर से घबराये हुये रहते हैं। जीवन में पहली बार उनके घर पर शूटिंग के लिये ले जाने के लिये कार आती है। रोज देखे जाने वाले रास्ते और जगह भी कार के अंदर बैठकर उन्हे नये लगते हैं।
अभी तक के अभिनय जीवन में उन्होने यही सीखा है कि निर्देशक और सितारों की चापलूसी करो और यही वे जॉय के साथ करना चाहते हैं पर जॉय की रुचि अपनी फिल्म को अच्छी तरह से बनाने में ही है।
मानव बड़ी जटिल उपस्थिति है इस संसार में। संवेदनशील फिल्में बनाने वाले विश्वविख्यात निर्देशक जॉय अपनी पत्नी की संवेदनाओं से अपरिचित रहते हैं। उन पर सारे समय अपनी फिल्मों का ही खुमार चढ़ा रहता है। वे अपनी रचनात्मक दुनिया में रमे रहते हैं और शायद मानकर चलते हैं कि शादी के इतने साल बाद उनकी पत्नी भी घर की दुनिया में पूरी तरह से रम चुकी हैं परंतु उनकी पत्नी को लगता है कि जॉय उनकी उपेक्षा कर रहे हैं। इज़ाबेला के भारत प्रवास से उन्हे यह भी संदेह होने लगता है कि शायद जॉय और इज़ाबेला के मध्य कोई नज़दीकी रिश्ता पनप रहा है या पनप चुका है। ऋणात्मक विचार चक्रव्यूह बनाकर उनके दिमाग को घेर लेते हैं और वे अपनी ऐसी सोच की शिकार होकर और ज्यादा अवसाद से घिरती चली जाती हैं और कई तरह के अपरोक्ष तरीकों से जाँचने की कोशिश करती हैं कि जॉय को उनका ध्यान है या नहीं परंतु जॉय का पूरा ध्यान तो अपनी फिल्म को पूरा करने में लगा हुआ है।
यह हिस्सा दशकों से चली आ रही एक बहस को हवा देता है कि क्या पूरी तरह से अपनी कला के प्रति समर्पित कलाकार को शादी करनी चाहिये? अक्सर ऐसा देखा गया है कि फिल्म निर्देशकों की पत्नियों को उनसे बहुत सारी शिकायतें हो जाती हैं। उन्हे लगता है कि निर्देशक पति के काल्पनिक लोक की तुलना में वास्तविक वैवाहिक जीवन उपेक्षा का शिकार हो जाता है। ऊपर से फिल्म में काम कर रही अभिनेत्रियों का डर भी उन्हे सताता रहता है। कितने ही ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ इन्ही सब बातों और संदेहों के कारण निर्देशकों के वैवाहिक जीवन में अशांति आ गयी।
जॉय की पत्नी के अंदर इकट्ठा हो रहा भावनाओं का गुबार एक दिन शूटिंग स्थल पर जाकर फूटता है। वापसी में वे जॉय से कहती हैं कि उन्होने तो जॉय की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने में ही अपना जीवन होम कर दिया। जॉय शांति से जवाब देते हैं,” तुम्हे यह सब करने की जरुरत नहीं थी”।
शायद गलती पूरी तरह से जॉय की भी नहीं है। वे अपनी कला के प्रति समर्पित कलाकार हैं। शुरु में उनकी पत्नी ने उनके इसी कलाकार रुप को चाहा होगा, सराहा होगा पर बाद में वे पिछड़ गयीं और जॉय अपनी मनचाही दुनिया में अनवरत रुप से चलते रहे। वे चाहतीं तो वे भी अपनी पसंद के किसी क्षेत्र में मन लगाकर काम करके अपने अंदर शांति बनाये रख सकती थीं और तब उन्हे जॉय को समझने में और उनके साथ शांति और खुशी से रहने की कीमिया ज्ञात हो जाती।
उधर चीनू मन लगाकर जॉय के फिल्म के सपने में अपने अभिनय से रंग भर रहे हैं। इज़ाबेला चीनू के साथ फिल्म के नायक कलाकार जैसा सम्मानजनक व्यवहार करती हैं। उन्होने यही सीखा है और यही वे व्यवहार में प्रदर्शित भी करती हैं परंतु चीनू और जॉय के मध्य दूरियाँ हैं और चीनू को लगता रहता है कि जॉय की नज़र में वे अभी तक एक जूनियर एक्स्ट्रा ही हैं। वे जॉय से भय खाते हैं। वे उनके साथ एक ऐसा सम्बंध चाहते हैं जहाँ वे अच्छा अनुभव कर सकें पर जॉय उनसे दूरी बना कर रखते हैं। चीनू को लगता रहता होगा कि जॉय ने उन पर उपकार किया है अपनी फिल्म में नायक की भूमिका देकर और इसलिये वे उनसे बराबरी का व्यवहार नहीं कर पाते हैं। शायद यह सच भी हो और शायद सच यह हो कि जॉय के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात है अपनी फिल्म को अच्छे तरीके से बनाना। अपने अभिनेताओं से दोस्ताना सम्बंध बनाने में उनकी रुचि नहीं है। हर निर्देशक का तरीका अलग होता है काम करने का। परंतु तब भी मानवीय सम्बंधों में एक गरिमा और ऊष्णता की जरुरत होती है जो चीनू और जॉय के मध्य जॉय की तरफ से कभी प्रदर्शित नहीं की गयी है।
ऐसे ही विचारों और ऊहापोह से घिरे चीनू क्लाइमेक्स में जॉय के मन मुताबिक शॉट नहीं दे पाते हैं और जॉय के डाँटकर पूछने पर चीनू अपने भय उन्हे बता देते हैं।
फिल्म भी पूरी होते होते जॉय- उनकी पत्नी- और इज़ाबेला और जॉय-चीनू, के बीच रिश्ते बदलाव देखते हैं।
फिल्म पारस पत्थर भी शायद अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समाराहों में जॉय का झण्डा ऊँचा करे रखेगी, शायद चीनू को भी प्रतिष्ठा मिले पर अभी तो चीनू के लिये इतना संतोष ही काफी है कि शहर में उसके भी विशाल आकार के पोस्टर लगे हैं।
सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, तपन सिन्हा, आदि निर्देशकों के युग के बाद बंगाली फिल्मों में विश्वस्तरीय फिल्मों का अकाल पड़ गया। बहुमत ऐसी फिल्मों का हो गया जहाँ निर्देशक इन महान फिल्मकारों द्वारा बनायी महान फिल्मों की नकल करने लगे पर ज्यादातर फिल्में दिखावटी लगने लगीं। दृष्यात्मक से ज्यादा लप्फाज़ी बंगाली फिल्मों का आधार बनती चली गयी। हर दृष्य शब्दों की अधिकता का शिकार हो गया। निम्न स्तर का नकली किस्म का अभिनय फिल्मों पर छा गया।
शुक्नो लंका में भी ऐसी दिखावट है जहाँ फिल्मी सितारों वाले दृष्य दिखाये गये हैं पर यहाँ वे इसलिये काम कर जाते हैं कि कथानक में ही इस बात की गुंजाइश है कि चालू फिल्मों एवम सार्थक फिल्मों का अंतर स्पष्ट हो जाये।
अगर सतर या अस्सी के दशक में सत्यजीत रे की पीढ़ी के नामचीन निर्देशक इस फिल्म को बनाते तो शायद चीनू नंदी की भूमिका उत्पल दत्त के पास जाती। मिथुन चक्रबर्ती का अभिनय अच्छा है पर कहीं कहीं उनमें प्रसिद्ध सितारे मिथुन चक्रबर्ती की झलक दिख जाती है और वे अपने चरित्र से थोड़ा बाहर आ गये लगते हैं। इसमें निर्देशक की कमी भी शामिल है। जिन्होने मिथुन की हिन्दी फिल्म- फिर कभी, देखी है उन्हे एकदम स्पष्ट हो जायेगा कि उस फिल्म के उच्च मध्यवर्गीय चरित्र के रुप में वे जैसे चलते हैं, नाचते हैं वैसे ही वे इस गरीब अभिनेता के चरित्र में चलते हैं और नाचते हैं। उनके नृत्य में दोनों फिल्मों में गहरा सामंजस्य हैं। उन्हे बहुत अच्छी भूमिका मिली थी पर यह फिल्म उनसे केवल अच्छा कहलाये जाने वाला अभिनय प्रदर्शन ही करवा पायी, अविस्मरणीय कहलाये जाने वाला अभिनय नहीं।
सब्यसाची, देबाश्री रॉय दोनों ही जमें हैं अपनी अपनी भूमिकाओं में पर इन सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं अंगना बसु, जिन्होने चीनू नंदी की पत्नी की भूमिका निभायी है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी आकर्षक है।
फिल्म बंगाल के एक प्रसिद्ध लोक गीत का रीमिक्स संस्करण भी प्रस्तुत करती है।
…[राकेश]
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