Gulzarपहुँचे हुये संतो, सिद्धों और सूफियों ने हमेशा अपने और प्रभु के बीच अद्वैत की कल्पना की है या बात की है या दुनिया को बताया है कि आत्मा परमात्मा के साथ एकाकार हो गयी है।

वे लगातार स्तुति से, लगातार ध्यान से एक दशा ऐसी आ जाने का बखान करते रहे हैं जब दूसरा नहीं रहता या सिर्फ दूसरा ही रहता है और स्वयं के अहं का विलोपीकरण हो जाता है।

कबीर ने भी कहा है

जब मैं था तब हरि नहीं,
अब हरि है मैं नाहीं

सूफी तो गाते ही रहे हैं अपने खो जाने और अपने प्रियतम के ही रह जाने की गाथाऐं।

रांझा रांझा कर दीनी मैं आपे रांझा होई
सद्दोनी मैनू दीदो रांझा हीर ना आंक्खो कोई।

रांझा मैं विच मैं रांझे विच होर ख्याल नहीं कोई
मैं नहीं आप हो आप करे दिलजोई

varis shah कुछ लोग इस सूफी कलाम को बाबा बुल्ले शाह की रचना मानते हैं और कुछ इसे बुल्ले शाह के चालीस बरस बाद जन्मे वारिस शाह, जिन्होने हीर-रांझा की कथा लिपिबद्ध की, की रचना मानते हैं|

ऐसा संभव हो सकता है,  जैसा कि भारत की कितनी ही कथाओं के बारे में हुआ है कि कितने ही लोगों ने उसमे अपना योगदान समय समय पर दिया पर किसी एक प्रचलित लेखक के संग्रह को ज्यादा प्रसिद्धि मिल गयी और बुल्ले शाह और उनसे भी पहले अन्य सूफी कवियों ने इसी या मिलते जुलते ऐसे ही गीत की रचना की हो। पर चूँकि वारिस शाह का नाम “हीर रांझा” के रचियता के रुप में प्रसिद्ध है सो ये भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि “रांझा रांझा” गीत भी उन्होने ही रचा था।  लगता तो ऐसा ही है कि ज्यादातर सूफी रचनायें मुश्किल से ही किसी एक व्यक्ति का कर्म होंगी। बरस दर बरस कई दीवानों ने उन्हे निखारा और संवारा होगा। तो ऐसी संभावना जरुर है कि बुल्ले शाह और वारिस शाह ही नहीं बल्कि सूफी परम्परा में उनसे पहले से यह गीत चला आ रहा है। अगर आबिदा परवीन और अन्य गायकों द्वारा गाया यह गीत सुना जाए तो अंत में एक पंक्ति सुनने को मिलती है –

तख्त हजारे ले चल बुलेया

इसी को प्रमाण मानते हुए इस कलाम को बुल्ले शाह की रचना माना जा सकता है|

सूफियों ने अपने को स्त्री रुप समझ कर प्रभू को पुरुष माना और इसी रुप में उसकी स्तुति की।

हीर (भक्त) उस स्थिति में पहुँच गयी है जहाँ उसे खुद तो पता है कि उसका स्वतंत्र अस्तित्व खत्म हो गया है और सिर्फ उसके आराध्य देव ही हैं जो जीते हैं और अब वह दूसरों से भी आग्रह कर रही है या खुद ही मगन होकर गा रही है कि लोगों मैं तो रांझा रांझा का जाप करके रांझा ही हो चुकी हूँ तुम भी अब मुझमें हीर न देखना अब तुम उसे नहीं पाओगे।

अब तो मैं ही रांझा हूँ और रांझा के अलावा कोई दूसरा ख्याल भी नहीं है। केवल वह ही सत्य है।

सूफियों के कलाम में देह नहीं है। वे इस दुनिया में बसने वाले देह धारी प्रेमियों के गीत नहीं हैं यह और बात है कि कवियों आदि ने उन्हे इस रुप में भी सूफियों से उधार ले लिया है।

सूफी तो प्रियतम से मिल जाने की बातें करते हैं और जिस प्रियतम से मिलने की बातें वे कर रहे हैं उसे वे सिर्फ महसूस कर सकते हैं उसके बारे में दूसरों से बातें तो कर सकते हैं पर दूसरों को वैसा ही अहसास नहीं करवा सकते। दूसरों को खुद ही प्रयास करना होगा कि बुल्ले शाह या अन्य सूफी क्या कह रहे हैं और किस स्थिति की बात कर रहे हैं। यहाँ सूफी गीत तो गा रहा है पर उसका प्रेमी जवाब उसी की भाषा में नहीं दे सकता।

रावण के रांझा रांझा गीत को सुनकर ऐसा प्रतीत होता है कि बुल्ले शाह के अशरीरी प्रेम को दर्शाते गीत को गुलज़ार, रहमान और मणि रत्नम की तिकड़ी ने देहधारियों का प्रेम गीत बना दिया है।

Bulleh Shahअद्वैत के भाव को द्वैत में विभक्त्त कर दिया है गुलज़ार साब ने। यहाँ रांझा न केवल हीर को जवाब दे रहा है वरन उसे चेतावनी भी दे रहा है कि रांझा रांझा का जाप करने से उसकी बदनामी हो जायेगी। ऐसा करने मात्र से ही सूफियों के अद्वैतवाद को द्वैत की और जाना पड़ गया है। अब एक की बात नहीं हो रही बल्कि दो की हो रही है।

जहाँ गुलज़ार साब का गीत आम फिल्मी गानों से बहुत उच्च कोटि का है वहीं वह बुल्ले शाह के सूफी काव्य के सामने हल्के स्तर का हो गया है क्योंकि उसकी प्रारुप बदल गया है। गुलज़ार साब के गीत में सुफीयाने स्पर्श को और ज्यादा महत्व मिलता अगर वे बुल्ले शाह द्वारा रचे गीत से मुखड़ा न लेते। ऐसा करने मात्र से ही तुलना आ जाना स्वाभाविक है। गाने के अंतरे मह्त्वपूर्ण हैं पर अंत में तो गीत का उपयोग ही देखा जाता है कि कहाँ और किस तरह से उसका उपयोग किया गया है। हाँ फिल्मी संगीत के हिसाब से गाना बहुत अच्छा बन पड़ा है।

गुलज़ार साब ने बुल्ले शाह के सूफी गाने का मुखड़ा लगभग जस का तस उपयोग में ले लिया है।

रांझा रांझा करदी वे मैं आपे रांझा होई
रांझा रांझा सद्दोनी मैनू हीर ना आंखो कोई

आगे गुलज़ार साब गाने को अपनी ही रौ में बहा ले गये हैं और जैसा कि वे अक्सर करते हैं ऐसी पंक्त्ति गाने में लिख देते हैं जिनका अर्थ समझने के लिये श्रोता को चेत कर बैठना पड़ता है और ध्यान से गीत सुनना पड़ता है।

ओ रांझा रांझा ना कर हीरे जग बदनामी होये
पत्ती पती झर जावे पर खुशबु चुप न होये

प्रेमी प्रेमिका द्वारा प्रेम की सरे आम घोषणा करने पर उसकी इस हरकत पर उसे एक सुगंधित पेड़ की सच्चाई से अवगत करा कर चेता रहा है।

बेगुनाह पकड़ा गया …
इश्क में जकड़ा गया …
आँख के दोष में दिल बेवजह पकड़ा गया …

सामान्यतः आँखे ही वे द्वार हैं जिनके द्वारा प्रेमी के दर्शन होते हैं और वह छवि ह्रदय में जा बसती है और वहाँ प्रेम का स्फुट्टन हो जाता है। कहा जाता है कि इश्क और मुश्क छिपाये नहीं छिपते। जहाँ खाँसी कहीं भी अपने जलवे दिखा सकती है और आवाज से लोगों को मरीज के हाल का पता चल जाता है ऐसे ही इश्क में पड़े व्यक्ति की आँखे सब बयान कर देती हैं।

आँख से हटती नहीं अरे हटती नहीं अरे हटती नहीं
सोते सोते बोलता हूँ कभी बोलते बोलते सोता हूँ
क्या जाने क्या होता है
कभी जलती आग टटोलता हूँ
एक बार तो आके देखे वो भी

प्रेम में पड़ा व्यक्ति तो सारे समय अपने प्रेमी के ही ख्याल और कल्पना में खोया रहता है और चाहता है कि उसकी इस दशा की खबर उसके प्रेमी तक पहुँचती रहे। टेलीपैथी से सबसे ज्यादा आशा प्रेमियों को ही होती है। प्रेमी की चाहत यही होती है कि उसकी हर भावना, हर सोच प्रेमी तक अनवरत रुप से पहुँचती रहे जिससे प्रेम और गाढ़ा होता जाये।

जल जा जल जा इश्क में जल जा
जले सो कुन्दन होये

इश्क भी व्यक्ति का शोधन करता है, उसे निखारता है क्योंकि उसका अहंकार कम से कम एक व्यक्ति के समक्ष तो उदासीन अवस्था में आ ही जाता है और अपने से ज्यादा दूसरा और दूसरे से किया प्रेम महत्वपूर्ण हो जाता है।

जलती राख लगा ले माथे
लगे तो चंदन होये

कृष्ण के प्रति प्रेम और उनके वियोग में अपनी दशा का वर्णन करती गोपियाँ ऊधौ से शिकायत करती हुयी कहती हैं कि वियोग की अग्नि में हमारे शरीर इस कदर तप रहे हैं की शीतल जल भी शरीर को स्पर्श करते ही भाप बन कर उड़ जाता है। गुलज़ार साब के गीत के प्रेमियों को भी गर्म ताजी राख चंदन की शीतलता प्रदान कर रही है।

वक्त कटता भी नहीं
वक्त रुकता भी नहीं

प्रेमी से बिना मिले वक्त नहीं कटता। यूँ तो सारे समय प्रेमी का ही तस्सवुर रहता है परन्तु फिर भी उसके भौतिक रुप से दर्शन होने जरुरी हो जाते हैं।

दिल है सजदे में मगर
इश्क झुकता भी नहीं

व्यक्ति काम करता जाता है पर मन में प्रेमी अब भी मौजूद रहता है। व्यक्ति प्रभु की प्रार्थना में लीन होने की कोशिश करता है परन्तु प्रेमी से हो जाने वाला प्रेम अब भी दूर जाने को तैयार नहीं होता। मन दो हिस्सों में बँट जाता है।

बिना तेरे रातें … अरे रातें
क्यूँ लम्बी लगती हैं?
कभी तेरा गुस्सा, तेरी बातें
क्यूँ अच्छी लगती हैं?
ये जलते कोयले अरे कोयले
अब रखना मुश्किल है

प्रेमी के साथ बिताया गया समय तो बस उड़ जाता है और जब प्रेमी का साथ नहीं होता तब पल, घड़ी भी लम्बे लगने लगते हैं। उसकी अनुपस्थिति में समय काटना भारी हो जाता है। उसकी हर बात याद आती है और व्यक्ति अगर किसी बात पर खुश हो रहा है या नाराज हो रहा है , दोनों ही दशाओं में प्रेमी के समीप जाना चाहता है ताकि उन मसलों पर बात कर सके। पर न जाने की विवशता उसे अंगारों पर बैठा देती है। प्रेमी अपने प्रेमी के साथ एकाकार होना चाहता है।

चल…चल जुनूं चलते रहें
तू कहीं ठहर नहीं
दिल अगर आ भी गया
वो तेरा शहर नहीं

गुरुदेव टैगोर ने अपनी एक प्रसिद्ध कविता में ऐसी ही स्थिति का वर्णन किया है। वे अध्यात्म के रास्ते पर चलते साधक को चेता रहे हैं कि राह में फूलों को चुनने और एकत्रित करने के लिये रुक मत जाना पथिक, तुम तो अपनी मंजिल की और बढ़ते जाना।

बिना तेरे सांसे अरे सांसे
कहीं खत्म न हो जायें
सभी तेरी यादें
सभी यादें कहीं भस्म न हो जाये
सुलगते कोयले अरे कोयले
अब बुझना मुश्किल है

वियोग में व्यक्ति का अंहकार भी जाग उठता है और वह इसका प्रदर्शन सूक्ष्म तरीक से कर ही जाता है, जब वह एक तरह से अपनी दयनीय हालत का जिक्र भी करता है और अपरोक्ष रुप से धमकी भी देता है कि वियोग की घडियाँ ज्यादा लम्बी खिंचने पर कहीं प्रेमी का ख्याल प्राथमिकता न खो दे और कहीं वह खुद ही इस वियोग का शिकार न हो जाये।

कितनी अजीब बात है कि दोनों प्रेमियों में से जो भी भावदशा की गम्भीर हालत से गुजर रहा होता है वह चाहता है कि यही दशा उसके प्रेमी की भी हो जाये और अगर ऐसा नहीं होता और भावुकता का स्तर थोड़ा कम दिखायी देता है प्रेमी में तो उसे कठोर ह्रदय और न जाने क्या क्या कहा जाता है। कुछ तो बेवफा तक कहने की सीमा तक भी पहुँच जाते हैं। पर कहे गये सब शब्द वही भाव नहीं रखते जैसे कि वे आमतौर पर समझे जाते हैं।

एक शायर ने ऐसी ही अवस्था पर क्या खूब कहा है।

मोह्ब्बत में बुरी नियत से कुछ सोचा नहीं जाता
कहा जाता है उसको बेवफा, समझा नहीं जाता

दो मानवों के आपसी प्रेम में यह सब होता है और गुलज़ार साब ने बेहद आकर्षक ढ़ंग से इन सब भावों को अपने गीत में प्रस्तुत किया है|

प्रेमियों के एकाकार हो जाने की सूचना देने वाले गीत हिन्दी फिल्मों में पहले से रहे हैं। पर ज्यादातर जब भी सूफी गीत लिये गये हैं वे बैक ग्राऊण्ड में बजते हैं नायक नायिका उन्हे गाते नहीं हैं और कोई अन्य उन गानों को गाकर प्रेमियों को प्रेम भाव सुनाता है।

गुलज़ार साब ने खूबसूरत और अर्थवान और उच्च स्तरीय अंतरे लिखे हैं, परन्तु यहाँ सूफी गीत के मुखड़े का उपयोग उनके अपने गीत का महत्व कम कर देता है क्योंकि उस सूफी गीत की परम्परा के अनुसार या तो कोई तीसरा हीर की स्थिति या भाव (भक्त्त की, आराध्य की नहीं) का वर्णन करे या खुद हीर करे।

हीर रांझा का डुएट तो नहीं है मौलिक गीत।

बड़ी लकीर से तुलना करने पर तो छोटी लगेगी ही एक लकीर।

अगर मुखड़ा भी रच देते गुलज़ार साब तो इस डुएट का महत्व साधारण गानों से कहीं ऊँचे स्तर का हो जाता, तब तुलना और तरीके की होती।
फिल्मों में विशिष्ट उपयोग के लिये गीत रचे जाते हैं अतः गुलज़ार साब की मजबूरी समझी जा सकती है।

जब व्यक्ति इन देह धारी सम्बंधों से ऊपर उठकर प्रभु से ऐसा प्रेम करने लगता है जहाँ वह आत्मा के परमात्मा से मिलन के लिये व्याकुल हो जाता है तो उसकी भावनाओं को बुल्ले शाह के गीत द्वारा ही अभिव्यक्ति मिल सकती है।

… [राकेश]

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