देव डी फिल्म का यह गीत अपने आप में एक सम्पूर्ण फिल्म है और यह फिल्म के तीन मुख्य पात्रों में से एक लैनी (Kalki Koechlin) की जीवनकथा को संक्षेप में बयान कर देता है। यह गीत जिस तरह से एक लड़की के जीवन के सूरज को बादलों के पीछे छिपता हुआ प्रदर्शित करता है वह काबिलेतारीफ है। एक बार देख-सुन लेने के बाद यह गीत पीछा नहीं छोड़ता और दिलो-दिमाग में गहराई से बस जाता है।
चूँकि गीत फिल्म में फ्लैशबैक में दिखाया जाता है जहाँ देह व्यापार करने वाली चंदा (Kalki Koechlin) बन चुकी लड़की अपना बीता हुआ जीवन याद करती है जब वह एक स्कूल में पढ़ने वाली लड़की लैनी हुआ करती थी। माता-पिता के प्यार भरे संरक्षण में व्यतीत होने वाला जीवन कब और कैसे गर्त में गिर जाता है, यही इस गीत में दिखाया गया है। एक खुशहाल जीवन के उदासी के अंधेरे कुँए में गिर जाने की कथा है यह गीत। गीत जिस तरह के जीवन से संबंध रखता है उसकी प्रकृत्ति को ढ़ंग से उकेरने के लिये शुरु से ही वाद्य-यंत्र एक उदास माहौल रचते हैं।
उतरा उतरा मौसम ढ़लके पलकों में
कतरा कतरा पी लूँ आ इस पल को मैं
सूरज की कुछ बूँदें टपकी हैं पेशानी पे
सरगोशी खुद से करती हूँ मैं हैरानी में
आँखों में ढ़लक आये आँसुओं के सहारे चंदा बन चुकी लैनी अपनी ज़िंदगी के बीते लम्हों को याद कर रही है। इतना सब कुछ उसकी ज़िंदगी में जल्दी जल्दी घट चुका है कि जब यह घट रहा था तब तो उसे बस स्थितियों को झेलने के सिवा कोई दूसरा ख्याल भी नहीं आया होगा और अब जब वह बुरा वक्त्त बीत चुका है और उसकी ज़िंदगी को हमेशा के लिये बदल चुका है तब पुराना और मौजूदा वक्त्त उसे हैरान कर जाता है।
बहुत ही बेहतरीन पंक्ति गीतकार- अमिताभ भट्टाचार्य ने लिखी है – सरगोशी खुद से करती हूँ मैं हैरानी में…
चंदा खुद से भी चुपके से ही बात कर सकती है, अपने से अपनी ही शिकायत भी ऐसे करती है जिससे किसी और को खबर तो छोड़िये खुद उसकी चेतना को भी इसका इल्म न हो।
इतने दुख को पुनः याद करने के बाद अगर जीना है तो उस दुख को उखाड़ फेकना होगा, और इसीलिये संगीत निर्देशक- अमित त्रिवेदी ने गायिका- अदिति सिंह शर्मा से बहुत तेज रफ्तार में यह पंक्तियाँ गवाईं हैं – यही मेरी ज़िंदगी है, ज़िंदगी है ज़िंदगी ज़िंदगी
अगर किसी कम तैरना जानने वाले को ऐसा लगने लगे कि वह डूब जायेगा या उसे किसी किस्म की घबराहट हो जाये तो छटपटाकर वह बहुत तेजी से हाथ पैर चलाने लगता है जिससे कि वह शीघ्रता से किनारे पर पहुँच जाये। पर उसकी इस छटपटाहट से उसके तैरने की गति नहीं बढ़ती वरन उसकी ऊर्जा ही जाया जाती है। गायिका ने बिल्कुल उसी अंदाज़ में बहुत जोर देकर इन शब्दों को गाया है मानो चरित्र को इन भावों से मुक्त्ति पानी हो और इसके लिये उसकी छटपटाहट को दिखाने के लिये उसके अपनी ज़िंदगी के बारे में दो भावों को एक साथ दर्शाना जरुरी है। वह स्वीकृति करती है कि उसकी ज़िंदगी की सच्चाई यही है और इसके लिये शब्द रचे गये हैं – यही मेरी ज़िंदगी है, ज़िंदगी है ज़िंदगी ज़िंदगी। परंतु वह इस ज़िंदगी के इन विषाद लाने वाले भावों से मुक्त्त होना चाहती है इसलिये इन शब्दों को गाया इस तरह गया है जैसे इन्हे नकारा भी जा रहा हो।
इतनी योजना आजकल गीतों में देखने को मिलती नहीं है।
स्कूल में पढ़ने वाली लड़की-जो घर पर अपने माता-पिता के साथ प्रेमपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही है, कब उसके कदम बहक जाते हैं उसे अहसास ही नहीं होता और जब उसे होश आता है तब तक चाँद पर कालिख पुत चुकी होती है।
वह इस यात्रा को याद करती है।
मैं, मेरे पल, मेरे दिन जैसे हों
चंद सब्ज शाखें एक शजर पे खिलीं
हैं मैंने सब सपने रंग डाले
जी भर के दिल में ले के उजाले
खिलखिलाके मैं तो उड़ चली
वह उन सपनीले दिनों को याद करती है जब उसे ऐसा लगता था कि उसके सपने, उसके दिन, दिन का हर पल, एक ऐसे वृक्षकी शाखें बन गये थे जिन पर खूबसूरत और सुगंधित फूलों की बेइंतहा आमद होने वाली थी। कच्ची उम्र में दिखने वाले इन सब्ज-बागी सपनों को आँखों को लिये वह इनकी रौ में बहती चली गयी। कभी एक और कवि ने लिखा था
नादां हैं वो अभी उम्र नहीं है प्यार की
लड़की को तो होश ही नहीं था कि जिसे वह प्यार समझ रही थी वह एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं था। जिसे वह अपना नया घरौंदा समझ रही थी वह एक कुटिल शिकारी द्वारा फैंका हुआ जाल था, जिसमें वह अपने आप फँसती चली गयी क्योंकि उसे अपने प्रेम पर अगाध भरोसा था। उसकी आँखें सच नहीं देख पा रही थीं।
जिसे वह खुशी और सुख समझ रही थी वह बस एक परदा मात्र था और उस परदे को हटाकर जैसे ही वह अंदर दाखिल होती है उसका जीवन दुख और अंधेरे से भर जाता है।
कुदरत मुस्कुराती है मेरी नादानी पे
सरगोशी खुद से करती हूँ मैं हैरानी में
यही मेरी ज़िंदगी है, ज़िंदगी है ज़िंदगी ज़िंदगी
सब कुछ सहन करके आज उसे लगता है कि कुदरत उसकी नादानी का मजाक बना रही है। उसने अपनी नादानी से अपनी ज़िंदगी खुद ही गलत दिशाओं में चला दी और उसके बाद तो प्रकृत्ति के नियम लागू हो जाते हैं। हर कदम का अपना फल आना होता है। एक गलती से जीवन में आने वाली बाकी परिस्थितियों पर तो उसका कोई भी बस नहीं था।
एक हँसी खुशी से फलने फूलने की संभावना लिये हुये जीवन के मुरझाने की कथा कहता गीत उदासी बिखेरता है। और गीत का फिल्मांकन, जो कि इस जीवन के खुशहाल दिनों को दिखाता है, इस दुख की तीव्रता और सांद्रता को बढ़ा जाता है।
गीत के फिल्माकंन में चरित्र, मुख्य और अतिरिक्त, आधुनिक काल के सच्चे प्रतिनिधि बनकर सामने आते हैं। गीत दिल्ली और अन्य घटित हुये दुर्भाग्यपूर्ण एम.एम.एस कांडों का सिनेमाई प्रतिरुपण इस तरह से करता है कि दर्शकों को इन मामलों के कारण अपना जीवन होम कर चुकी लड़कियों के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने में सहायता मिले।
लैनी के चरित्र के द्वारा आज के दौर की उस उम्र की लड़कियों की मानसिकता एवम उनके भटकाव को दर्शाया गया है। लड़की की दिनचर्या को कम समय में विस्तार दे दिया गया है। जैसे कि- सुबह माँ द्वारा उठाया जाना, तैयार होकर पिता के पास जाकर स्नेह प्रदर्शित करना, हिन्दी फिल्मों के गीतों में रुचि रखना आदि। स्कूल जाने के लिये निकलते हुये स्कर्ट को ऊपर खींच कर छोटा करना, ज़ुराबों को नीचे करना, घर से बाहर निकलने पर उसे देखकर सीटी बजाने वाले लड़कों की हरकत पर अपने ऊपर कुछ कुछ गर्व सा महसूस करना, स्कूल न जाकर अपने बॉयफ्रेंड के साथ होटल या अन्य जगहों पर जाना, देह सम्पर्क से परहेज न करना…आदि बहुत सारी प्रवृत्तियां दिखायी गयी हैं जिनसे आज के युवा प्रभावित हो रहे हैं और अपने जीवन की हानि कर रहे हैं।
बॉयफ्रेंड, जिसका स्कूल से कतई भी लेना देना नहीं है और जिसकी पृष्ठभूमि भी लैनी जानती न होगी, पर इतना विश्वास करना कि उसे अपने व्यक्तिगत लम्हों की वीडियो बनाने की अनुमति दे देना लैनी के लिये घातक साबित होता है।
पूर्णिमा और अमावस्या तो एक चक्र में चलते हैं पर लैनी के जीवन में एक बार अमावस्या के समावेश होने के बाद उसका अंधेरा ही छाया रहता है।
बहुत सारी बातों को एक छोटा सा गीत पूरी ईमानदारी से दर्शा देता है। निर्देशक का कैमरा कुछ पहेलियाँ भी दर्शकों के लिये रचता है जैसे लैनी के घर से निकलते हुये उसके पिता के बंगले के नम्बर (13) पर कैमरा अटका रहता है…मानो इस अंक से जुड़े अंध-विश्वास पर जोर देना चाहता हो कि आने वाले दिनों में यह अंक कुछ गुल खिलायेगा।
गीत हर लिहाज से उत्कृष्ट है। यह अपने आप में एक छोटी फिल्म लगता है।
…[राकेश]
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