फिल्म ‘कथा’ केवल खरगोश और कछुए की कहानी का मानवीय दृश्यात्मक रूपांतरण नहीं है| ‘कथा’ के मूल में एक कहावत है – हर चमकती चीज सोना नहीं होती| जो अच्छा दिखाई दे रहा हो, जरूरी नहीं वह वास्तव में अच्छा हो भी| और यह बात फिल्म को सार्वभौमिकता प्रदान करती है| किसी भी देश में किसी भी भाषा में यह परिकल्पना काम कर जायेगी|
मनुष्य की इच्छाएं और सपने, जो कि अभी पूरे होने बाकी हैं, उसे उस वक्त अक्ल का अंधा बना देते हैं जब ऐसी कोई चीज सामने आ जाए जिसे वह अरसे से चाह रहा हो| लंबे समय से इच्छित वस्तु की अकस्मात उपलब्धि समझने की शक्ति क्षीण कर देती है| कहते हैं कि स्त्री, चाहे वह संसार की किसी भी जगह की क्यों न हो, के मन में एक ऐसे पुरुष से विवाह करने की इच्छा रहती है, जो सर्वगुण सम्पन हो, दिखने में आकर्षक हो, और धनी हो, और ऐसा गुण भी रखता हो कि न केवल अपनी भावनाओं को आराम से व्यक्त कर सके बल्कि उसके भावों और उसकी भावनाओं को भी बिना उसके द्वारा व्यक्त किये ही समझ ले| अक्सर ऐसे पुरुष जो अंतर्मुखी, शर्मीले, और सीधे, सादे दिल वाले हों और जो हमेशा दूसरों को प्रभावित करने में नहीं लगे रहते, स्त्रियों दवारा भोंदू की संज्ञा पाते हैं| गरीब और विकासशील देश में निम्न-मध्यवर्गीय लोगों में बहुतायत ऐसे लोगों की होती है जहां माता-पिता अपनी संतानों को सभी सुख सुविधाएँ मुहैया नहीं करा पाते और बचपन से ही बच्चों के मन में जो नहीं मिल पा रहा है, उसका एक अलग कमरा बनता चला जाता है जहां मौक़ा मिलते ही इन सब सुख सुविधाओं का उपभोग कर लेने की इच्छाएं एकत्रित होती चली जाती हैं| भारत जैसे देश में जहां लड़की शादी के बाद पति के घर चली जाती है, लड़कियों के मन में ऐसा भाव होना स्वाभाविक है कि जो माता-पिता के घर में न मिला वह सब पति के घर उसे मिल जाना चाहिए| माता-पिता भी अपनी लड़की की शादी ऐसे वर से तो करना ही चाहते हैं जो धन-संपत्ति और हैसियत में उनसे बढ़कर हो| लड़का अपने से कम संपत्ति और शैक्षिक और अन्य योग्यताओं वाली लड़की से विवाह कर सकता है, करते हैं पर लड़कियों के लिए ऐसा करना उनके सपनों पर कुठाराघात करने के बराबर होता है| मध्य-वर्ग में ऐसा कम देखने को मिलता है कि लड़की ने अपने से कम आर्थिक हैसियत वाले लड़के से विवाह किया हो| सच्ची योग्यताएं और सच्चे गुण ऐसे में पीछे चले जाते हैं और खोखली मान्यताएं सतह पर आकर जीवन को संचालित करने लगती हैं|
‘कथा’ ऐसी ही पृष्ठभूमि पर बनी एक बेहतरीन फिल्म है| फिल्म की नायिका भी खालिस सोने को नजरंदाज करके पीतल को सोना समझ गले लगाती है और जीवन का सबसे बड़ा धोखा खाती है|
साधारण कहानी का सादा फिल्मांकन फिल्म की खासियत बन जाता है| फिल्म सीधे-सादे तरीके से कहानी को आगे बढाती हुयी इंसानी मनोविज्ञान को भली भांति परदे पर प्रस्तुत करती है, और दर्शक को उसका विश्लेषण करने का अवसर देती है|
कहानी के स्तर पर देखें तो यह एक साधारण सी कहानी है| राजाराम पु. जोशी अर्थात राजाराम पुरषोत्तम जोशी (नसीरुद्दीन शाह) बम्बई में एक चाल में अकेला रहता है और जूते की एक कम्पनी में क्लर्क का काम करता है| राजाराम बेहद सीधा सादा, ईमानदार और बला का परिश्रमी व्यक्ति है| वह पड़ोस के घर में रहने वाली संध्या (दीप्ति नवल) से प्रेम तो करता है पर उससे अपने प्रेम का इजहार करने की हिम्मत उसके पास नहीं है| वह सोचता रहता है कि एक बार उसे प्रमोशन मिल जाए तो वह संध्या के माता-पिता से बात करे| संध्या के माता-पिता ही नहीं चाल में सभी लोग राजाराम की भलमनसाहत के कारण उसे पसंद करते हैं, पर बहुधा लोग उसके सादे व्यवहार के कारण उसका शोषण भी करते रहते हैं| राजाराम इन बातों का बुरा नहीं मानता और इन छिटपुट घटनाओं के कारण अपना मूल व्यवहार और स्वभाव नहीं बदलता| संध्या किसी रोज उसके घर आ जाए तो वह दिन राजाराम के लिए उत्सवमयी हो जाता है| एकांत में वह अपने मन में संध्या से खूब बातें किया करता है पर संध्या के सामने आने पर उससे अपने मन की बात कहने की उसकी सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं| दफ्तर में भी राजाराम का शोषण उसके साथ के कमर्चारी करते रहते हैं और इधर उधर के बहाने गढ़ कर अपने काम का बोझा भी राजाराम के सिर डालते रहते हैं| राजाराम भी बिना शिकायत करे अपने काम के साथ इन लोगों का काम भी निबटा दिया करता है| वह किस किस्म का आदर्शवादी है यह इस एक दृश्य से पता चल जाता है|
एक शाम दफ्तर से वह थका हारा लौटा है, बस स्टॉप पर वह कायदे से लोगों की लाइन में खड़ा होता है पर बस आने पर अन्य लोग तो धक्का मुक्की लगा कर बस में चढ़ जाते हैं, नियम कायदे मानने वाला राजाराम सड़क पर ही खड़ा रह जाता है| दो-तीन बसें आकर चली जाती हैं और राजाराम को बस में घुसने का मौका नहीं मिलता| छीनाझपटी करके वह कोई चीज ले नहीं सकता| टैक्सी से जाने लायक खर्चा करने का उसने सोचा भी नहीं, उसके लिए बहुत महंगा है टैक्सी से जाना| तभी एक आदमी बस स्टॉप पर आता है उसके हाथ में चलता हुआ ट्रांजिस्टर है, जिसमें राजाराम सुनता है कि किसी जरुरतमंद को आपाता स्थिति में अस्पताल में ओ-निगेटिव ग्रुप का रक्त चाहिए| वह सड़क पर चिल्लाने लगता है कि उसका खून इसे विशेष ग्रुप का है, वह एक टैक्सी रोकता है और उसे मुंहमांगी रकम पर अस्पताल जाने के लिए राजी कर देता है और खुशी से चिल्लाता हुआ अस्पताल चला जाता है| देर से घर लौटता है डिनर तैयार करता है ताकि खाकर ढंग से सो सके और अगले दिन दफ्तर जा सके|
लोगों के लिए राजाराम एक भावनात्मक और आदर्शवादी मूर्ख है पर वह सच्ची मानवता में भरोसा रखता है और उसे विश्वास है कि जब वह दिल से अच्छा है तो अन्य लोग भी ऐसे ही भले होंगें और क्यों बिना मतलब अन्य लोगों को संदेह की दृष्टि से देखा जाए|
राजाराम की मंथर गति से चलती रूटीन ज़िंदगी में सहसा गत्यात्मक परिवर्तन आते हैं उसके उसके स्कूल सहपाठी बासु (फारुख शेख) के उसके घर में लगभग जबरदस्ती घुस आने से| चलता पुर्जा बासु राजाराम को विवश कर देता है उसे अपने घर में ठहराने के लिए| चतुर बासु शीघ्र ही राजाराम की सारी स्थिति, चाल में रहने वालों की प्रवृतियाँ समझ लेता है और सबको अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से चूना लगाने लगता है| वह इतना घाघ है कि सीढ़ी चढ़ रहे बुजुर्ग को सामान सहित सीढियां चढ़ने देता है और बिल्कुल अंतिम पायदान पर सामान उनसे ले लेता है कि उसके रहते वे बोझ कैसे उठा सकते हैं और बुजुर्गवार का दिल जीत लेता है| वह सुबह का नाश्ता किसी के घर, दुपहर का खाना कहीं और, शाम की चाय कोई उसे राजाराम के यहाँ दे जाता है और फिर रात के खाने के समय उसकी दावत किसी और के घर होती है| संध्या को देखते ही वह उसकी सपनीली प्रकृति को भांप लेता है और समझ जाता है कि उसके मन में उसकी वर्तमान ज़िंदगी से बेहतर ज़िंदगी पाने की तमन्ना है| संध्या के माता-पिता की संध्या के विवाह को लेकर लालसा को भी वह देख लेता है| संध्या और उसके माता-पिता सोचते हैं कि उसकी अच्छी जगह शादी हो जाने से संध्या को वह सब कुछ मिल सकेगा जो अभी वे लोग जुटा नहीं पाते|
राजाराम और बासु में जमीन आसमान का अंतर है| राजाराम के लिए प्रेम करना या प्रेम में होना एक पवित्र बात है जबकि बासु के लिए लड़की पटाना और उसे घुमाना फिरना, उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित करना ही प्रेम है| चालबाज बासु को अच्छे से पता है कि मानव प्रशंसा से बहुत जल्दी पिघलता है| निठल्ला बासु राजाराम से उसके बॉस के बारे में कुछ जानकारियाँ लेकर उसका पीछा करना शुरू कर देता है और ऐसा चक्कर चलाता है कि पचास तरह के झूठ बोलकर राजाराम की कम्पनी में मैनेजर की नौकरी पा जाता है|
लोगों को झांसा देना बासु की फितरत है| बॉस के घर पार्टी में जाने पर वह भांप जाता है कि उसके बॉस और बॉस की पत्नी- अनुराधा (मल्लिका साराभाई) की उम्र में काफी अंतर है| बस इसी का फायदा उठा वह अनुराधा पर भी डोरे डालने लगता है| बॉस की बेटी को देखता है, तो उसे भी शीशे में उतारने की चेष्टा करता है| राजाराम की चाल में वह संध्या को भी अपने जाल में फंसाना चाहता है| संध्या से सच्चा प्रेम करने वाला राजाराम बासु की ऐसी हरकतें सहन नहीं कर पाता और बासु को समझाता है कि संध्या ऐसी लड़की नहीं है और अगर वह वाकई उससे प्रेम करता है तभी उसे संध्या को अपने प्रेम में डालना चाहिए और अगर वह उसकी भावनाओं से खिलवाड़ कर रहा है तो उसे यह खेल यहीं रोक देना चाहिए|
राजाराम की शराफत, उसका अंतर्मुखी होना, और उसका शर्मीलापन उसे संध्या को चेताने से रोकने पर बासु से जलने वाले की संज्ञा दे जाता है|
बासु एक ही समय में संध्या और अनुराधा से प्रेम की पींगें बढ़ा रहा है और अंतर्मुखी राजाराम के सपने को पैर तले रौंद कर उसी के घर में डेरा डाले बैठा है|
क्या बासु का भेद संध्या और अनुराधा पर खुलेगा?
क्या राजाराम के मौन प्रेम को संध्या समझ और सम्मान दे पायेगी|
जीवन में क्या सच्चा इंसान राजाराम जीतेगा या चलतापुर्जा बासु?
और वास्तव में किसे जीतना चाहिए? ‘कथा’ का सार और संघर्ष यही है|
यह आश्चर्य का विषय है कि अस्सी के दशक में ‘कथा’ के बनने से पहले से ही और उसके बाद तो खासकर हिंदी फिल्मों के नायक बासु जैसे चरित्र के ही हैं, जो नायिका को पटाकर (भांति भांति के तौर तरीके अपनाकर) प्रेम में होने के दावे किया करते हैं और राजाराम जैसे नायक तो ‘कथा’ के बाद हिंदी फिल्मों के धरातल से गायब ही हो गये|
मुख्य कलाकारों जैसे नसीरुद्दीन शाह, फारुख शेख, दीप्ती नवल, मल्लिका साराभाई और विनी परांजपे के बहुत अच्छे अभिनय से फिल्म का स्तर कई गुना बढ़ जाता है| और साहयक भूमिकाओं में नियुक्त अभिनेतागण भी फिल्म को वास्तविक और असरदार बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते| बम्बई की एक असली चाल में फिल्म को शूट करने से और वहीं के रहने वाले कुछ लोगों को फिल्म में भूमिकाएं देने से फिल्म में वास्तविकता का पुट आ गया है|
सई परांजपे ने बेहतरीन अभिनेताओं का चुनाव अपनी फिल्म के लिए किया| इस फिल्म से पहले तक फारुख शेख सामान्यतः सीधे और साधारण आदमी के किरदार निभाते आए थे और ‘कथा’ में उन्हें चतुर और शातिर फ्लर्ट के रूप में प्रस्तुत किया गया और उन्होंने इस आकषर्क भूमिका में अपने व्यक्तित्व के आकर्षण को बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया| अकार्शक व्यक्तित्व और लुभावने अंदाज में बोलने वाले चालाक व्यक्ति की भूमिका में फारुख शेख ने शानदार अभिनय किया और परदे पर उनके द्वारा लोगों का दिल जीतते हुए देखना भरपूर विश्वसनीय लगता है|
नसीरुद्दीन शाह ने राजाराम की भूमिका को आत्मिक गहराई के साथ परदे पर साकार कर दिया| और यह उनके सर्वश्रेष्ठ अभिनय प्रदर्शनों में से एक है| उनके चरित्र के पास कोई भी ऐसा संवाद नहीं जिससे वे हिंदी फिल्मों के नियमित नायकों जैसे सर्वशक्तिमान लगें| राजाराम के मनोविज्ञान और उसकी भावनाओं को, उनकी हिचकिचाहट भरी अभिव्यक्ति को, उसके मौन को, उसकी छोटी छोटी खुशियों को, उसके आदर्शवाद को, उसकी ईमानदारी को, उसके मूक प्रेम को, और जिससे उसे प्रेम है उसके संकट काल में उसके साथ दृढता से खड़े होने के आत्मिक बल को, और अन्य बहुत सारे तत्वों को उन्होंने परदे पर एक कुशल जादूगर की भांति प्रस्तुत करके जादू रचा है
दीप्ती नवल ने संध्या का अभिनय नहीं किया वरन वे परदे पर संध्या का जीवन जीती हुयी प्रतीत होती हैं| दीप्ती नवल तो कहीं पीछे रह जाती हैं और दर्शकों को संध्या ही दिखाई देती रहती है|
मल्लिका साराभाई को अमीर, आकर्षक और वक्त पड़ने पर फ्लर्ट का सहारा लेने वाली अनुराधा की भूमिका देकर सई परांजपे ने इस छोटी सी भूमिका को महत्वपूर्ण बना दिया
राजकमल का संगीत अच्छा है, खासकर ‘कौन आया कौन आया’ कोरस गीत तो खासा प्रसिद्द रहा है| कार्टून विधा का फिल्म में रोचक ढंग से इस्तेमाल किया गया है|
सई परांजपे को तीन महत्वपूर्ण हिंदी फिल्मों के निर्देशन के लिए हमेशा ही याद रखा जायेगा| दर्शकों को संवेदना के स्तर पर भीतर तक स्पर्श कर सकने की क्षमता वाली “स्पर्श” और दर्शकों को गुदगुदाकर हंसाने वाली ‘कथा’ और ‘चश्मे-बद्दूर’ तीनों ही फिल्मों को हिंदी सिनेमा की सर्वकालिक अच्छी फिल्मों में शामिल किया जाता रहेगा|
…[राकेश]
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