फ़िल्म के अंतिम दृश्य में कैमरे की ओर पीठ करे सड़क पर जा रहे रूहानी सुकून देने वाले इत्र और सुरमा प्रदानकर्ता छन्नू खान (ओम पुरी) अचानक पलटते हैं और कैमरे की मार्फ़त अभिनेता ओम पुरी दर्शकों से मुखातिब होते हैं| उनके चेहरे पर दोस्ताना और हल्की शरारत भरी मुस्कान जो उनकी आँखों तक विस्तार पाती है और आँखों में सितारे झिलमिलाती है, दर्शकों को बरबस ही मुस्कराने को प्रेरित करती है और The 400 Blows के अंतिम फ्रेम की तरह शॉट फ्रीज हो जाता है और सामने परदे से अदभुत अभिनेता ओम पुरी की रुकी, किन्तु जीवंत तसवीर, दर्शकों की आँखों में झंकार उनके दिल पर आघात करती और इस वास्तविकता का बोध कराती है कि अब वे (ओम पुरी) इस धरा पर जीवित नहीं हैं| फ़िल्म का यह अंतिम फ्रेम इस दुखद भाव का अहसास जगाता है कि ओम पुरी नामक विलक्षण और विश्व-स्तरीय अभिनेता अब अपनी अभिनय प्रतिभा से वैश्विक सिनेमा को गुलज़ार नहीं कर पायेगा और अब हमें उनके पहले से किये गये अभिनय प्रदर्शनों तक ही सीमित रह जाना पड़ेगा| फ़िल्म का अंतिम फ्रेम सिनेमा के दर्शकों को यह बोध करा जाता है कि उनकी कितनी बड़ी व्यक्तिगत क्षति ओम पुरी की असमय मृत्यु से हुई है| ऐसा कहना कतई अतिशयोक्ति न लगेगा कि यह ओम पुरी की करिश्माई और बेहद जीवंत स्क्रीन प्रेजेंस की महानता है कि फ़िल्म का यह अंतिम फ्रेम बाकी पूरी फ़िल्म पर भारी दिखाई देता है और फ़िल्म इस अकेले कार्य के लिए धन्यवाद की पात्र है|

छोटे शहर हों या बड़े शहरों की बात हो या किसी कस्बे की ही बात कर लें तो तकरीबन हरेक जगह एक दो ऐसे धनी लोगों की चर्चा जरुर ही उस जगह होती है जिनके बारे में कहा जाता है कि ये पहले कबाड़  का धंधा करते थे या अभी भी करते हैं और उसी व्यापार से इन्होने इतनी बड़ी कोठी या इतना बड़ा बँगला बनवा लिया है और अब ये शानो-शौकत से रहते हैं| लोग प्रशंसा और रश्क दोनों तरह के भावों से इस बात को कहते हैं|

इन धनवान बन चुके कबाड़ का व्यापार करने वाले लोगों के धनवान बनने से पहले के जीवन और धनवान बनने के बाद के जीवन में निस्संदेह अन्तर होता होगा| उनकी आर्थिक स्थितियां ही नहीं बदलती बल्कि उनकी सामजिक स्थितियां भी बदलती होंगी| भारतीय समाज में कुछ समय पहले तक ऐसी चर्चाएं भी होती थीं कि दिल्ली के लुटयंस जोन में रहने वाले खानदानी धनी लोग भारत में नये नये अमीर बने बहुत से व्यापारियों को अपने बराबर नहीं समझते और यह भी चर्चा होती रहती थी कि जब तक नये धनी लुटयंस जोन में अपने बंगले न बसा लें तब तक वे खानदानी राईस वर्ग में कायदे के अमीर भी नहीं समझे जाते थे| बहरहाल कबाड़ का व्यापार करके अमीर बने व्यक्ति के जीवन में आने वाले परिवर्तन एक मनोरंजक फ़िल्म की कथावस्तु जुटा सकते हैं|

मि. कबाड़ी फ़िल्म ऐसे ही एक गरीब कबाड़ी कल्लू (अनू कपूर) के जीवन को दिखाती है जो कि अपने किसी रिश्तेदार दवारा छोड़ी गई संपत्ति पा जाने के कारण अचानक ही अमीर बन जाता है| अक्सर ऐसा देखा जाता है कि दुर्दिन देख रहे लोग अगर अचानक ही साधन सम्पन्न हो जाएँ तो वे अपने दुर्दिन के साथियों से मेल मिलाप रखना पसन्द नहीं करते क्योकि उन्हें भय होता है कि इससे उनकी नई सामाजिक स्थिति में बड़ा नुकसान होगा|

कल्लू भी अमीर बनते ही अपने कबाड़ी साथियों को अपने जीवन से दूर कर देता है और अपना नाम भी कल्लू कबाड़ी से के.के रख लेता है| दौलत और ज्यादा धन को खींचती है और के.के और ज्यादा अमीर बनता जाता है| वह अपने कबाड़ी वाले दिनों की यादों से परेशान रहता है और चाहता है कि न तो उसके विगत जीवन से कोई उसके आसपास रहे और न ही कोई उसे याद दिला पाए कि कभी वह कबाड़ी था| पर वह एक अशिक्षित आदमी है और बहुत पैसा होने से वह धनी लोगों के क्लबों की सदस्यता तो ले लेता है लेकिन पढ़े-लिखे अंग्रेजीदां लोग उसे बराबरी का दर्जा नहीं देते और उसे हेय दृष्टि से देखते हैं जिससे वह और ज्यादा परेशान रहता है| ‘करेले पर नीम चढ़ा’ स्टाइल में उसका बेटा भी पांचवीं फेल रह जाता है और बड़े होकर सामूहिक शौचालयों का व्यापार चलाता है जिसमें उसे खूब मनाफा होता है और शहर दर शहर वह शौचालयों की एक बड़ी श्रंखला खड़ी कर देता है|

के.के और उसकी पत्नी चंदों (सारिका) की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि अपने कबाड़ी होने के इतिहास से और वर्त्तमान में शौचालय का व्यापार करने के कारण उन लोगों में यह हीन भावना पनप जाती है कि कोई कायदे का परिवार उनके बेटे और बेटी से विवाह करने के लिए सामने नहीं आएगा|

तार्किक दृष्टि से फ़िल्म में यह बात फ़िल्म के कथानक को थोड़ा कमजोर बनाती है क्योंकि वास्तविकता में हम देखते हैं कि वर्तमान दौर में व्यापार से बड़ा मुनाफ़ा होना चाहिए और फिर व्यक्ति चाहे स्क्रैप डीलर हो या शौचालय चलाता हो, इससे अधिकतर लोगों को फर्क नहीं पड़ता| आखिर ‘सुलभ शौचालय’ के संस्थापक को इसी देश और समाज ने भरपूर धन-सम्मान दिया है| फ़िल्म संभवतः इस बात पर फोकस कर सकती थी कि के.के और उसकी पत्नी और बेटे की दिक्कत व्यापार या काम की वजह से नहीं बल्कि कायदे से शिक्षित न हो पाने के कारण है| खैर फ़िल्म एक सामाजिक मुददे को आधार न बनाकर शुरू से ही अपने को हास्य-व्यंग्य की विधा पर आधारित करती है और यह लेखक-निर्देशक की स्वतंत्रता होती है कि किस तरह अपनी कथा को बुनता है और कैसे उसे विस्तार देकर दिखाता है|

विरोधाभास में जी रहे के.के और उसके परिवार को अपने भूतकाल और वर्त्तमान के व्यापार को लोगों से छिपाकर कैसे अगली पीढ़ी के सदस्यों के विवाह सम्मानित परिवारों में करनी है और इस लुकाछिपी में कैसी कैसी हास्यास्पद स्थितियों से उन्हें गुजरना पड़ता है और किस तरह उन्हें अंत में सच का बोध होता है यही मि. कबाड़ी में दिखाया गया है|

बरसों पहले मराठी रंगमंच के जाने माने अभिनेता और निर्देशक राम नगरकर ने अपनी आत्मकथा (रामनगरी) पर अमोल पालेकर को अपनी (नायक) भूमिका में लेकर “रामनगरी” फ़िल्म बनाई थी जिसमें व्यवसाय से नाई होने के कारण राम नगरकर को तब के बम्बई और पुणे में किस तरह जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है और अपनी जातिगत पहचान छिपाने के कारण उन्हें कैसी हास्यास्पद स्थितियों से गुजरना पड़ता है, यह सब हास्य-व्यंग्य और भावुकता के बेहद संतुलित मिश्रण के दवारा दिखाया गया था| मि.कबाड़ी “रामनगरी” के संतुलित हास्य-व्यंग्य वाले रास्ते को न अपनाकर लाऊड हास्य के पथ पर चलती है| पहले फ्रेम से ही फ़िल्म लाऊड हास्य की ओर चली जाती है| फ़िल्म हंसाती भी खूब है पर संतुलित हास्य पसन्द करने वाले दर्शकों को कुछ जगहों पर भदेस भाषा के संवादों और शब्दों में लिपट कर आता हास्य शायद गुदगुदा न सके| पर यहीं एक बात यह भी सच है कि अगर ऐसे संवाद अगर अंग्रेजी में बोले जाएँ तो दर्शकों को दिक्कत नहीं होती| जैसे कि अगर किसी अंग्रेजी फ़िल्म में कोई चरित्र किसी स्त्री चरित्र से कहे, “Did you have some work with me or you just came here to fart only” तो दर्शक इस पर हँस सकते हैं पर अगर यही संवाद हिन्दी में बोला जाए तो शायद सारे दर्शक इस पर उन्मुक्तता से हँस न सकें| भदेस संवादों के साथ यह रिस्क बना ही रहता है और ऐसा ही लगता है कि भदेस भाषा का अति उपयोग मि. कबाड़ी के थोड़ा विरुद्ध जा सकता है|

अभिनय के हिसाब से फ़िल्म में सभी अभिनेताओं, यहाँ तक कि नवोदित कलाकारों ने भी अभिनय में भरपूर आत्मविश्वास दिखाया है|

विनय पाठक विचित्र किस्म से अपनी आँखें ऊपर चढाये रखते हैं और संवाद भी अलग तरीके से बोलते हैं पर रोचक बात यह है कि पूरी फ़िल्म में वे अपनी विचित्रता की निरंतरता कायम रखते हैं|

संगीत की बात करें तो जहां कव्वाली (ये शाम गजब की) और समूह गीत (ज़िंदगी को फोन तो लगा) लाऊड संगीत के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं वहीं रोमांटिक गीत “नैना लागे” और “तेरा इशारा दे दे” मधुर संगीत प्रस्तुत करते हैं| ‘मन मेरा राम ही राम जपे’ गाते हुए फ़िल्म के एक निर्माता गायक अनूप जलोटा स्वयं परदे पर उपस्थित होते हैं और दर्शकों में आनंद जगाते हैं| फ़िल्म का संगीत अच्छा है|

फ़िल्म की निर्देशक सीमा कपूर हैं और संभवतः एक स्त्री होने के नाते वे रिश्तों को सामने तौर पर तल्ख़ बनाने वाली बड़ी बातें इस तरह से दिखा गई हैं जिससे पारिवारिक रिश्ते सहजता से निबाहे जाते दिखाई दें| मसलन कल्लू, आठ –नौ साल के एक बेटे का पिता है और तब वह अपने कबाड़ी दोस्तों को बताता है उसने उनके लिए भाभी ढूँढ ली है| कल्लू का बेटा अपने पिता की दूसरी शादी में जमकर नाचता है और बड़ा होने पर भी चंदो का चमन (राजीव सिंह) के साथ सौतेली माँ जैसा रिश्ता नहीं वरन सगी माँ से कहीं बेहतर एक सहज सा रिश्ता बना रहता है और फ़िल्म एक बार भी न तो चंदो की मार्फ़त और न ही चमन की मार्फ़त इस बात का जिक्र दिखाती है उनमें ऐसा कोई भेदभाव पनपा हो यहाँ तक कि चमन के लिए आए कुछ रिश्ते इसीलिए पूर्णता को नहीं पहुँचते क्योंकि अनपढ़ चंदो सब कुछ सच सच लड़की वालों के सामने बोल दिया करती है और दोनों माँ- बेटे इस बाबत बात भी करते हैं और चंदो के सच स्वीकार करने की बात कहने से अपना नुकसान होते दिखाई देने के बावजूद चमन माँ की बात को सही मानता है और उनमें परस्पर प्रेम और सम्मान ज्यादा गहराता दिखाई देता है| सौतेली माँ और पुत्र के रिश्ते को बड़ी खूबसूरती से फ़िल्म गढ़ती है और कहीं भी नाटकीय नहीं होती|

एक फ़िल्म बना चुके निर्देशक के सामने दो तरह के विकास की चुनौतियां होती हैं| एक तो निर्देशक के रूप में व्यक्तिगत विकास की बात है कि निर्देशकीय परिपक्वता सीढ़ी के ऊँचे पायदान पर चढ़ती दूसरी फ़िल्म में दिखाई दे और दूसरा विकास होता है कि दूसरी फ़िल्म स्वतंत्र रूप से पहली फ़िल्म के बराबर या उससे बेहतर गुणवत्ता की फ़िल्म दिखाई दे| सीमा कपूर ने स्त्री स्वतंत्रता पर मुद्दा आधारित फ़िल्म Haat The weekly Bazaar बनाई थी और उसकी गुणवत्ता से दर्शकों को चौंकाया था और निर्देशन के क्षेत्र में अपने आगाज़ का अहसास हिन्दी फिल्मों के दर्शकों को करवाया था| मि. कबाड़ी उनकी पहली फ़िल्म की भांति मुद्दा आधारित फ़िल्म न होकर एक हास्य-व्यंग्य की विधा वाली फ़िल्म है जिसमें उन्होंने हास्य की भी लाऊड शैली को ही अपनाया है| यह बात तो तय है कि इस शैली को हर तरह के दर्शक पसन्द नहीं कर पाते हैं| और इस विधा की बहुत कम फिल्मों के ही दर्शकों के दिमाग में बहुत समय तक बने रह पाने की परम्परा बनी हुई है| जहां हृषिकेश मुखर्जी की हास्य-फ़िल्में आज भी याद की जाती हैं देखी जाती हैं, वहीं लाऊड हास्य वाली बहुत कम हिन्दी फ़िल्में ही समय के स्केल पर जीवित रह पाई हैं|

मि. कबाड़ी में सीमा कपूर ने अपनी पहली फ़िल्म से अलग किस्म का विषय लिया और उसे अलग ट्रीटमेंट दिया सो अंदुरनी तौर पर एक निर्देशक के तौर पर उनमें अवश्य ही विकास का अनुभव हुआ होगा पर फ़िल्म यह भी स्पष्ट दर्शाती है कि कई कमजोरियां फ़िल्म में उपस्थित हैं जिनसे बच कर फ़िल्म की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता था| मसलन जैसे छन्नू खान का किरदार है, वह फ़िल्म में एक वास्तविक चरित्र है और फ़िल्म में एक नहीं कई चरित्रों से वार्तालाप करता है, उनका स्पर्श करता है लेकिन फ़िल्म के अंत में अचानक से फ़िल्म ऐसा दिखाती है कि छन्नू खान कोई वास्तविक चरित्र न होकर एक रूहानी चरित्र है| फ़िल्म के विषय में ऐसे ही कुछ झोल प्रतीत होते हैं जिन्हें नज़रअंदाज करने के लिए दर्शक को हास्य का ऐसा जबर्दस्त डोज़ चाहिए होता है जिससे वे उन्मुक्त ठहाके लगाएं और उसकी ऊष्मा में बाकी सब बातें भूल जाएँ| फ़िल्म बहुत जगह ऐसा करती भी है पर कुछ जगहों पर ऐसा नहीं कर पाती और यह अनियमितता पूरी फ़िल्म की औसत गुणवत्ता को थोड़ा नीचे खींचती है|

एक सच्चाई यह भी है कि Haat The weekly Bazaar और मि. कबाड़ी जैसी फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक, जिनके साथ न तो किसी बड़े फ़िल्मी समूह का साथ हो और न ही बड़े बजट का साथ हो उनके लिए नियमित रूप से फंड की व्यवस्था न हो पाने से फ़िल्म पूरी कर पाना ही एक चुनौती होती है| आर्थिक संरक्षण की अनुपलब्धता ऐसी फिल्मों के निर्माण को गंभीर रूप से प्रभावित करती है और यह बात निस्संदेह रूप से फ़िल्म की गुणवत्ता को कहीं न कहीं प्रभावित करती ही है|

सीमा कपूर ने दो फ़िल्में बिल्कुल अलग प्रकार की बना कर अपनी प्रतिभा के विकास का परिचय दिया है और आशा जगाई है कि भविष्य में वे और बेहतर फ़िल्में रचेंगी|

…[राकेश]

 

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