यूँ तो खुशबू के सभी गीत एक से बढ़कर एक हैं पर फिल्म की परिस्थितियों के अनुरुप – दो नैनों में आँसू भरे हैं, गीत तो कमाल का बन पड़ा है।
यह कहना अतिशयोक्त्ति न होगी कि यह गीत गुलज़ार द्वारा प्रस्तुत किये गए पाँच टॉप गीतों में आता है।
पहले इस गीत की पृष्ठभूमि जान लें।
विगत कुछ दिन कुसुम (हेमा मालिनी) की ज़िंदगी के सबसे अच्छे दिन रहे हैं। उसका बचपन का साथी और पति डा. बृंदावन (जीतेंद्र) अपने बेटे चरन (मास्टर राजू) के साथ उसके घर रह रहा है क्योंकि उसके गाँव में प्लेग फैला हुआ है। जिन्होने शरतचंद्र चटर्जी की कहानी पर आधारित गुलज़ार की यह पीरियड फिल्म नहीं देखी है, उनकी सुविधा के लिये यह जानकारी जरुरी है कि बहुत साल पहले जब बृंदावन और कुसुम किशोर ही थे तभी उनकी शादी हो गयी थी परंतु दोनों के परिवारों के मध्य विवाद के कारण कभी भी गौना नहीं हो पाया और कुसुम अपने घर पर ही रहती रही। वह तो बृंदावन को ही अपना पति मानती रही है। इस बीच बृंदावन की लाखी (शर्मीला टैगोर) से शादी हो गयी और उस शादी से उसका बेटा चरन है। लाखी की मृत्यु हो चुकी है। बृंदावन बाद में एक बार कुसुम को बताता है कि किन आपातकालीन परिस्थितियों में उसे लाखी से विवाह करना पड़ा था।
लाखी की मृत्यु को समय हो गया है और अब बृंदावन की माँ (दुर्गा खोटे) चाहती हैं कि बृंदा, कुसुम को पत्नी रुप में घर ले आये परंतु गलतफहमियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और स्वाभिमानी कुसुम के रुख से नाराज़ होकर बृंदा की माँ उसके लिये लड़की देखने शहर चली जाती हैं यह वचन लेकर कि वे शीघ्र ही बृंदा की शादी कर देंगी।
उनकी अनुपस्थिति में ही आस-पास के इलाकों में प्लेग फैल जाता है और बृंदा का मैनेजर प्लेग से चरन को बचाये रखने के लिये उसे कुसुम के घर छोड़ देता है। मजबूरन बृंदा को भी वहाँ आना पड़ता है और कुसुम जिद करके उसे भी घर पर रोक लेती है। कुसुम के गाँव में प्लेग नहीं फैला है। फेरी करके आजीविका कमाने वाला कुसुम का बड़ा भाई कुंज (असरानी) जरुर प्लेग की गिरफ्त में आ जाता है और बृंदा को उसकी भी देखभाल करनी है।
कुसुम चरन को अपना ही बेटा मानती है और वह उसके बहुत नजदीक आ जाता है। सुबह मरीजों को देखने के लिये बृंदावन चला जाता है और शाम को वापिस कुसुम के घर आ जाता है। कुसुम को गृहस्थ जीवन जैसा सुख मिल रहा है।
वह और उसके जानने वाले सभी जानते हैं कि बृंदा की माँ उसके विवाह के लिये ही शहर गयी हैं। कुमुम की शुभचिंतक एक जमींदार घराने की महिला उससे पूछती भी है,” तुम्हे पता है कि बृंदा की माँ उसके विवाह के लिये शहर गयी है, तब क्यों तुमने बृंदा और उसके बेटे को अपने घर में ठहरा रखा है?”
उदास कुसुम कहती है,” यह मेरे लिये आखिरी अवसर है जीवन में कुछ खुशियाँ पाने के लिये और शायद इसके बाद उसे कभी कोई भी मौका नहीं मिलेगा और सारी आशायें खो जायेंगी तब मुझे इस अवसर का लाभ क्यों नहीं उठाना चाहिये?”
जिस दुखद समाचार की आशंका कुसुम को है वह एक शाम आ ही जाती है जब बृंदा बताता है कि कल सुबह वह अपने घर वापिस चला जायेगा क्योंकि उसकी माँ शहर से वापिस लौट रही है।
कुसुम जैसे आकाश से वापिस धरती पर आ जाती है। मूर्खतापूर्ण है उसका सवाल पर भावावेश में वह पूछती है,: क्या चरन भी साथ जायेगा?”
बृंदा के हाँ कहने पर धीमे से कुसुम कहती है,” मैं चरन को तैयार कर दूँगी”।
आज की रात कुसुम के लिये सबसे कठिन है। अब तक का सारा जीवन उसने बृंदा की राह तकते हुये बिताया है और कल सुबह बृंदा संभवतः हमेशा के लिये उसके जीवन से दूर चला जायेगा।
गुलज़ार के बोल कुसुम की भावनाओं को इस शुद्धता से प्रदर्शित कर देते हैं मानो कुसुम ने ही उन्हे लिखा हो।
दो नैनों में आँसू भरे हैं
निंदिया कैसे समाये
डूबी डूबी आँखों में
सपनों के साये
रात भर अपने हैं
दिन में पराये
कैसे नैनों में निंदिया समाये
आँखों में जब आँसू भर जायें तो नींद कैसे आयेगी। किन्ही कारणों से आँसू भरे होंगे आँखों में। जब दुख इतना बड़ा हो जाये तो नींद तो नहीं ही आनी है। जब दिल में गहन उदासी भर गयी हो तब सोने का विचार तक नहीं सूझता।
यह गीत पूरी फिल्म का निचोड़ है।
यह गीत संक्षेप में कुसुम की जीवनगाथा कह देता है।
इस गीत का फिल्मांकन पूरी फिल्म पर भारी पड़ता है। इस गीत के ऑडियो में तो तीव्र गति से गाया हुआ गीत भी है और इस गीत का यह स्वरूप भी अच्छा है परन्तु उसकी तारीफ में उतने कसीदे नहीं कढ़े जा सकते।
जबकि इस गीत के धीमे स्वरूप की शान में जितना कहा जाए या लिखा जाये उतना ही कम है। फिल्म में धीमी गति वाला गीत प्रस्तुत किया गया है और गीत का वही धीमी गति वाला स्वरूप अदभुत है।
गीत धीमी गति से बहता रहता है और बीच बीच में मौन भरे क्षण आते हैं और कैमरा बेहद नज़दीक से कुसुम और बृंदावन के भावों को पकड़ कर प्रस्तुत करता रहता है।
फिल्म में उपस्थित गाना पाँच मिनट से ज्यादा अवधि का है और वे पाँच मिनट गुलज़ार की कवि के रुप में विकट प्रतिभा और एक निर्देशक के रुप में तकनीक और कला दोनों क्षेत्रों में सामर्थ्य और कल्पना का आकर्षक संगम प्रस्तुत करते हैं। जहाँ एक ओर गुलज़ार हेमा मालिनी के चेहरे को और आँखों को खंगाल कर कुसुम की भावनाओं की गहराई को प्रस्तुत करते हैं वहीं दूसरी ओर वे एक कुशल निर्देशक के रुप में गीत को आकर्षक सिनेमाई रुप में प्रस्तुत करने पर भी खास तवज्जो देते हैं।
गीत के वीडियो में वे भाग नहीं हैं जो कि फिल्म में दिखाये गये हैं। गीत के मध्य में ऐसे क्षण आते हैं जहाँ गीत गाती हुयी कुसुम आहट सुनकर चुप हो जाती है। दरवाजे की झिर्रियों और नीचे से आने वाली परछाई से वह समझ जाती है कि बृंदा दरवाजे के पास खड़ा है। वह साँस रोके आशा से भर जाती है कि शायद बृंदावन भी उसकी तरह ही भावुक है और उससे बात करने उसके दरवाजे पर आया है। वह चौकन्नी हो जाती है, उसका रोम रोम आशंका और आशा दोनों से भर जाता है पर बेहद कठिन बीतने वाले वे क्षण खत्म हो जाते हैं जब परछाई दरवाजे से दूर हो जाती है। इन क्षणों में गुलज़ार का निर्देशन अदभुत रुप ले लेता है। मुश्किल से ही ऐसे अन्य क्षण किसी और हिन्दी फिल्म में आये होंगे। ऐसे किसी दृष्य की स्मृति नहीं है जहाँ कैमरे ने चरित्र के चेहरे, कमरे में मौजूद प्रकाश और अंदर आती छाया, इन तीन तत्वों को सजीव चरित्र बनाकर इस ढ़ंग से प्रस्तुत किया हो कि दर्शक मुख्य चरित्र के भावनाओं के साथ तादात्म्य महसूस करें।
छाया के दूर होते ही कुसुम फिर से निराशा में डूब जाती है। अब उसके सामने कोई आशा नहीं है। रात्री का अंधेरा निराशा को और घनीभूत कर देता है और बाज दफा तो यह इतना घना हो जाता है कि सुबह के सूरज की इठलाती-बलखाती किरणें भी आशा का संचार व्यक्ति के दिमाग और अस्तित्व में नहीं कर पातीं।
झूठे तेरे वादे पे
बरस बिताये
ज़िंदगी तो काटी
ये रात कट जाये
कैसे नैनों में निंदिया समाये
यह कुसुम के दुख की चरम अवस्था है। आज की रात उसकी सारी ज़िंदगी पर भारी पड़ रही है। स्वाभिमानी कुसुम अपनी भावनायें बृंदा तक पहुँचाना भी चाहती है पर उसका प्रेम भिक्षा में नहीं चाहती। आज उसका दुख रोके नहीं रुक रहा है और वह गीत बनकर उसके अस्तित्व से बाहर आ गया है।
बृंदावन इस गीत में खामोशी से अपनी भावनाओं का इज़हार करता है।
इस गीत को रचने के बहुत साल बाद स्त्री-पुरुष के मध्य किसी ऐसे ही रिश्ते में आयी किन्ही परिस्थितियों से भरी रात के लिये गुलज़ार ने लिखा –
रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने मांजी से कई खुश्क सी शाखें काटीं
तुमने भी गुज़रे हुये लम्हों के पत्ते तोड़े
मैंने जेब से निकाली सभी सूखी नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुये खत खोले
अपनी इन आँखों से मैंने कई माँजे तोड़े
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने पलकों पे नमी सूख गयी थी सो गिरा दी
रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको
काट के डाल दिया जलते अलाव में उसे
रात भर फूँकों से हर लौ को जगाये रखा
और दो जिस्मों के ईंधन को जलाये रखा
रात भर बुझते हुये रिश्ते को तापा हमने।
न तो कुसुम सो पायी है सारी रात और न ही बृंदावन। आने वाली सुबह का भविष्य अभी अंधकार में है।
दुख है इस गीत में, घनीभूत पीड़ा है पर तब भी इस गीत में गजब का सौंदर्य है, अतुलनीय आकर्षण है। इस गीत को दर्द भरे नगमों की श्रेणी में सम्मिलित नहीं कर सकते, इसमें दुःख है भी तो वह चित्कार करने वाले विलाप से परे का दुःख है यह दुःख की शुद्धतम अवस्था है, यह अंदुरनी दुःख है, इस दुःख से दिल पसीजता है पर यह दुःख का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं है। इस दुःख के प्रदर्शन में भी सौंदर्य है।
कुसुम के गालों पर ढलक आये आसुओं में उतना ही सौंदर्य है जितना की सुबह सुबह किसी चौड़े युवा पत्ते पर पड़ी ओस की बूंदों को देखकर महसूस होता है। इस दुःख को देखकर मन भीग जाता है पर साथ ही एक निरपेक्षता भी बनी रहती है। यही अच्छे साहित्य की खूबी होती है।
पंचम ने गजब की धुन बनायी है और लता मंगेशकर इस दुख भरे गाने को इस सचाई से गाती हैं कि इस गीत को कभी भी सुन लिया जाये यह श्रोता को प्रभावित किये बिना नहीं छोड़ता। ज्यादातर लता की सुरीली आवाज़ ही कुसुम के दुःख को प्रदर्शित करती रहती है और कभी कभी ही वाद्य-यंत्र उनका साथ देने आते हैं बीच-बीच में मौन के क्षण हैं जो गीत के प्रभाव को कई गुना बढ़ा देते हैं और कभी कभी केवल साज बेहद धीमी ध्वनि के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा देते हैं
हेमा मालिनी ने इतना ईमानदार अभिनय इस गीत में किया है कि गीत का मूल्य अपने आप बढ़ जाता है।
इस गीत के निर्माण में योगदान करने वालों के प्रति आदर भाव स्वतः ही उमड़ता है।
ऐसे पारिस्थितिजन्य गीत हों तो कोई बिरला ही होगा जो फिल्मों में गीतों की उपस्थिति पर आपत्ति जतायेगा। वह कला का दुश्मन ही हो सकता है। साधारण मनुष्य तो नहीं सकता।
…[राकेश]
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