7 KHOON mAAFकफस में और नशेमन में रह के देख लिया
कहीं भी चैन मुझे जेरे-आस्मां न मिला

विशाल भारद्वाज की फिल्म 7 Khoon Maaf फैंटेसी के सहारे रिश्तों के बारे में कुछ बुनियादी सवाल की खोजबीन करने की बात करती है। पहले तो बहुत समय बाद विशुद्ध फैंटेसी का सहारा किसी हिन्दी फिल्म में किया गया है। ऐसी फैंटेसी, जो जब तक यात्रा करती है तब तक एक रोचक पर अजनबी कथा कहती रहती है – ऐसा जैसा किसी दूसरी जगह के अजनबी पात्रों वाली कहानी को देख या सुनकर लगता है – पर जब यह परिणति पर पहुँच जाती है तब यकायक यह ज़िंदगी से बड़ा गहरा रिश्ता बना लेती है और हर जगह के इंसान से रिश्ता जोड़ लेती है।

7 खून माफ मर्डर मिस्ट्री फिल्म नहीं है। ऐसा होता तो दुनिया को ढ़िंढ़ोरा पीटकर बताते की जरुरत नहीं थी कि यह रस्किन बॉन्ड की कहानी- Susanna’s Seven Husbands, पर आधारित है और न ही ट्रेलर में सब कुछ स्पष्ट तौर पर दिखाने की जरुरत थी कि फिल्म में क्या होने वाला है। और न ही विशाल को अपनी फिल्म में मध्यांतर करते समय – Four more to go… जैसा जुमला दिखाने की ही जरुरत थी। अगर मर्डर मिस्ट्री के सस्पैंस से भरी फिल्म ही बनायी जाती तो उसका प्रस्तुतीकरण अलग किस्म का होता। उसका प्रचार अलग ढ़ंग से किया जाता।

कर्नल रंजीत के उपन्यास होते हैं जहाँ मेजर बलवंत और उनकी टीम किसी हत्याकाँड के पीछे छिपे रहस्य को उजागर किया करती है। उसमें पाठक का आनंद इस रहस्य की खोज़ की यात्रा में मेजर के साथ-साथ चलना है। अगर पाठक कर्नल रंजीत के उपन्यासों के अंत के चार-पाँच पन्ने पहले ही पढ़ ले तो उसे सब कुछ पहले ही पता चल जाता है कि कातिल कौन है और उसने क्या किया, क्यों किया और कैसे किया।

छह खून और इन हत्याओं के दौरान और इन्हे करने के बाद भ्रमित सुज़ाना (प्रियंका चोपड़ा) की जीवन यात्रा को किसी परिणति तक पहुँचना है और एक अपराधपूर्ण जीवन जीते हुये किये गये अपराध उस अर्थ तक पहुँचने के लिये रास्ते में आने वाले पड़ाव हैं या मोड़ हैं। इन्ही सबसे गुज़रकर ही सुज़ाना उस अर्थ तक पहुँच जाती है।

पर क्या सुज़ाना के लिये अपने छह पतियों को मारना जरुरी था?
क्या वह तलाक लेकर उनसे अलग नहीं हो सकती थी?

ऐसा ही होता तो यह सोच कर फिल्म कितनी लचर लगती कि इतनी साधारण बात न रस्किन बॉंन्ड समझ पाये और न ही विशाल भारद्वाज। इस तर्क से चलें तो जिसने भी रस्किन की कहानी पढ़ रखी है उसे पता है कि फिल्म में क्या होगा और उसकी रुचि सिर्फ इस बात में होगी कि कैसे होगा? यह कोई मर्डर मिस्ट्री तो है नहीं, यहाँ तो दर्शकों को सब कुछ पता है कि क्या हो रहा है!

फिल्म की कहानी- जो कि सुज़ाना की जीवनी है- एक सपाट बयानी दर्ज करती है। सुज़ाना की कहानी एक ऐसी ही कल्पनात्मक कहानी है जैसी सुल्ताना डाकू की कथा सुन लो या पढ़ लो। वह भी एक सपाट बयानी है बस वहाँ अंत में मॉरल ऑफ स्टोरी बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है जब सुल्ताना अपनी माँ के ऊपर आक्रमण करता है कि यदि उसने बचपन में ही उसे पहली चोरी के समय रोक लिया होता तो आज उसे फाँसी की सज़ा न होती। सुल्ताना के पास वाल्मिकी और अँगुलीमाल वाले अवसर पाने जैसा भाग्य नहीं है।

सुज़ाना के पास सुल्ताना वाला बहाना नहीं है। उसने जो किया है खुद किया है और खुद करने में बहुत पेंच हैं। आज का मानव धरती पर मानव जीवन के उदगम के समय पैदा होने वाले प्रथम पीढ़ी के मानव से एकदम अलग नहीं हो गया है। मानव का दिमाग और मन को जोड़ने वाला तत्व बहुत अंधेरे से गुजरा है और इस अंधेरे का अपना इतिहास है और इसे शैतान कह लें या कुछ और, यह मानव मन को मथता ही रहेगा। कभी हो सकता है ऐसा हो जाये कि नये मानव के मन से पुराने सारे इतिहास को साफ कर दिया जाये।

विचार के तल पर मानव कुछ भी सोच सकता है। ये विचार इस बात के द्योतक नहीं हैं कि मानव ऐसा ही है। विचार तो कई मर्तबा कम्प्यूटर प्रोग्राम में आ गये वायरस जैसे भी होते हैं, जो शोधन प्रक्रिया से गुजरने तक बहुत कुछ बिगाड़ देते हैं। सुज़ाना का जीवन भी ऐसे ही वायरसग्रस्त हैं और वह एक दूषित जीवन जीती है। बहुत बार वह चाहती है और कोशिश भी करती है कि वह एक सीधा-सादा जीवन जिये पर उसकी किस्मत की प्रोग्रामिंग में भी गड़बड़ी है।

बिना मेटाफिज़ीकल संसार में गये ऐसी कहानियाँ पूरी नहीं होतीं। हो भी नहीं सकतीं। मेटाफिज़ीकल व्याख्या- सात लघु कहानियों वाली गाथा में वह धागा है जो सातों मनकों को एक सूत्र में पिरोता हुआ सुज़ाना के जीवन को अंत में एक सुगढ़ अर्थ देता है और उसे एक Parable का रुप देता है।

औसत स्तर पर समझौते करके जी रहे तथाकथित धर्म-भीरु लोगों की भीड़ अंदर की यात्रा में प्रगति नहीं कर पाती पर जीवन को खतरनाक ढ़ंग से जी रहा व्यक्त्ति, चाहे वह समाज की नजरों में अपराध ही क्यों न कर रहा हो, प्रगति की राह में छलांग लगा सकता है क्योंकि उसकी छलांग में अब पुराने संसार के बंधन नहीं हैं। वह अपनी समग्रता में अज्ञात में कूदने आया है।

हत्या और तलाक से सम्बंधित प्रश्न इस फिल्म और इसकी कहानी के संबंध में बुनियादी है। यदि इस प्रश्न को साधारण ढ़ंग से लिया जाये तब तो बहुत सारे दर्शक जो विशाल भारद्वाज से यह अपेक्षा करे बैठे होंगे कि वे हिलाकर रख देंगे सिनेमा संसार को इस फिल्म से, उन्हे निराशा हो सकती है। पर जिन भी दर्शकों के अंदर फिल्म यह प्रश्न जगा पाने में कामयाब हो जायेगी कि सुज़ाना हत्या क्यों करती है, वह तलाक लेकर भी तो अलग हो सकती थी और जिन दर्शकों तक फिल्म का अंत अपने सही अर्थ मे पहुँच जायेगा, वे फिल्म के तात्पर्य से सीधे-सीधे जुड़ जायेंगे और फिल्म जिन तत्वों की खोज करने की ओर इशारे करती है उनकी तरफ दर्शक जायेंगे। वे रिश्तों में मौजूद मनोवैज्ञानिक कारणों की जाँच पड़ताल करेंगे। वे जीवन का अर्थ या जीवन में एक अर्थ खोजने की बुनियादी बात पर गौर करेंगे।

वाल्मिकी और अँगुलीमाल की कथायें बहुत महत्वपूर्ण हैं इस संदर्भ में। अगर ऊपर उठने का एक बिंदु है तो एक व्यक्त्ति वहीं खड़ा-खड़ा भी ऊर्ध्वाकार गति कर सकता है, पर इसके लिये उसमें शुद्धता पहले से मौजूद होनी चाहिये। और दूसरा पथ है जिसमें व्यक्त्ति पहले एक क्षितिजाकार वर्तुलाकार गति निबटाकर उस बिंदु पर वापस आयेगा और तब वह ऊर्धवाकार गति प्रारम्भ कर सकता है। इस वर्तुलाकार यात्रा के दौरान उसने नये-नये अनुभव किये और धीरे-धीरे सब सूखे पत्तों की तरह गिरते चले गये और जब वह मूल बिंदु पर पहुँचता है तो निर्रथकता को अपने आप अनुभव करके खाली होकर वहाँ पहुँचता है और अब इस खालीपन की शुद्धता में इस बात की भरपूर संभावना है कि उसकी ऊर्धवाकार गति प्रारंभ हो सकती है।

सुज़ाना की जीवनी शुद्ध अस्तित्व वाली नहीं है। वह चेतना और दिमाग से साधारण औरत है। अगर उसमें पहले ही बिंदु से गति करने की क्षमता होती तो कहानी कुछ और होती। पर ऐसा है नहीं।

दुनिया में हरेक व्यक्त्ति के मन में उसकी एक छवि होती है। और उसकी एक प्रकृति भी होती है। उसकी प्रकृति के कारण उसके अंदर अपनी ही छवि खंडित भी हो सकती है।

व्यक्त्ति के कृत्य इस बात पर बहुत निर्भर करते हैं कि वह कितना लचीला है अपने अंदर की खंडित छवि को स्वीकारने में या उसकी कितनी परिपक्वता है इस बात को समझने के लिये और कितनी समझ और चेतनता है अपने गलत कृत्यों से उपजे भावों से निबटकर अंतस-मन को शुद्ध करते रहने की।

व्यक्त्ति सिर्फ प्रेम में ही दूसरे से बंधन नहीं रखता बल्कि नफरत आने के बाद भी एक बंधन बना रहता है दोनों के मध्य।

एक तो गहरे प्रेम में भी ऐसी स्थितियाँ आती हैं जब अहंकार आखिरी कुछ चोटें करता है और व्यक्त्ति को प्रेमी से दूर जाने का विचार सम्प्रेषित करने की कोशिश करता है और समझाता है कि ठहरो, क्या कर रहे हो, तुम्हारी निजी स्वतंत्रता चली जायेगी, अभिनय करो। बहुमत अभिनय में रम जाता है और गिने चुने इस अवस्था को पार करके प्रेम की दूसरी अवस्था पर पहुँच कर वहाँ का आनंद लेते हैं और जीवन में शांति का अनुभव करते हैं। अब व्यक्त्ति से व्यक्त्ति की दौड़ खत्म हो गयी है।

सुज़ाना के जीवन में तो पहले स्तर का प्रेम भी नहीं फला है। वह सोचती है और आशा करती है कि आकर्षणों के वशीभूत होकर जो सम्बंध वह बना रही है वे अंततः प्रेम में बदल जायेंगे पर ऐसा होता नहीं है और उसके अंदर का अपराधी बार बार जाग्रत होता रहता है।

इच्छाओं से ही सपने जन्मते हैं व्यक्त्ति के विचार संसार के अंदर और व्यक्त्ति कुछ कदम उठाता है। अगर ये सपने पूरे नहीं होते या पूरे होते तो दीखते हैं पर इनसे वे परिणाम नहीं आते जो उन्होने पहले सोचे थे कि ऐसा होगा तब दिक्कत शुरु होती है।

सुज़ाना की इच्छा है कि उसके पति में उसके पिता जैसे गुण हों या वह सुज़ाना से उसी तरह व्यवहार करे और भावों की वैसी ही गुणवत्ता जीवन में लाये जैसे कि उसके पिता के स्नेह में थी। यह सुज़ाना की कसौटी है अपने पति को अच्छा समझने के लिये। अगर वह ऐसा है तो अच्छा है वरना नहीं। बदकिस्मती से सुज़ाना छह शादियाँ करती है पर वे सभी के सभी उसके पिता जैसे तो नहीं ही हैं वरन वे सामान्य पुरुष भी नहीं हैं। सभी में कुछ न कुछ हद दर्जे की कमजोरियाँ हैं या असमान्यतायें हैं। पर सुज़ाना की यह चाह Electra complex से ग्रसित नहीं है। ऐसा कोई भी संकेत फिल्म नहीं करती। सुज़ाना अपनी नैनी मैगी (ऊषा उत्थुप) को माँ समान प्रेम और सम्मान देती है।

सुज़ाना को पहली शादी अपने पिता की इच्छा से मेजर एडविन (नील नीतिन मुकेश) से करनी पड़ी थी। मेजर 1984 में हुये ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान अपना एक पैर गँवा बैठा है। मेजर शारीरिक रुप से ही अपंग नहीं हो गया है बल्कि वह दिमाग से भी बीमार हो चुका है और वह सुज़ाना को प्रताड़ित करता है। और सुज़ाना के पिता के समय से ही सुज़ाना की देखभाल करने वाले स्टॉफ के सदस्यों को भी अपमानित और प्रताड़ित करता रहता है। सुज़ाना इन सदस्यों के करीब है और वे भी उसके लिये कुछ भी कर सकते हैं।

अगर मेजर सुज़ाना से प्रेम करे तो शायद सुज़ाना के व्यक्त्तित्व के बुरे पहलू सुप्तावस्था में ही रहें पर मेजर द्वारा सार्वजनिक रुप से सुज़ाना का अपमान किये जाने जैसी घटनायें और हर दम दी जा रही प्रताड़नायें सुज़ाना के अंदर की अपराधी मानसिकता को जगा देती हैं और उसके व्यक्त्तित्व का यह पहलू खुद न्यायधीश भी है। जो सुज़ाना की निगाहों से गिर गया और जिसने उसे प्रताड़ित किया उसकी ज़िंदगी उसके लिये राह के आवारा कुत्तों से ज्यादा अहमियत नहीं रखती जिनके भेजे वह स्कूल जाने वाले दिनों में ही गोली से उड़ा दिया करती थी।

सुज़ाना के जीवन के ये भाग उसकी बहुत साधारण भौतिक इच्छा से भरे हुये हैं कि उसे एक प्रेम करने वाला पति मिले जिसके साथ वह प्रेमपूर्वक वैवाहिक जीवन जिये। प्रेम ही सुज़ाना के व्यक्त्तित्व के बुरे पहलू का शोधन कर सकता है और प्रेम के नाम उसे मिलने वाला धोखा उसके बुरे पहलू को न केवल जाग्रत रखता है बल्कि उसे शिकारी की तरह उस पर वार करने वाले जानवर को खत्म करने के लिये उकसाता भी है। प्रेम में उसका पूरा समर्पण है परंतु बाकी उसका शोषण कर पाना और उस पर शासन करना मुश्किल काम है। वह घायल जानवर की तरह पलट कर वार करती है और अपने घायल अहंकार का बदला ले लेती है।

अगर सम्बंधों के बारे में इस विचार को केंद्रित करें तो जब कोई दूसरे व्यक्त्ति को चुनता है और बाद में उसे अच्छा नहीं लगता इस व्यक्त्ति के साथ रहने में तो सबसे ज्यादा परेशानी उसे इस बात से होती है कि उसने एक गलत निर्णय लिया था। वह आदमी भी गलत हो सकता है पर इस बात से इतना फर्क नहीं पड़ता क्योंकि तब उससे दूरी बनायी जा सकती है, उससे दूर जाया जा सकता है और उसकी याद मिट जायेगी परंतु दिक्कत आती है अपने द्वारा लिये गये निर्णय पर होने वाले पछतावे से।

रॉक गायक जिम्मी (जॉन अब्राहम) और कश्मीरी शायर वसीउल्लाह (इरफान खान) और रशियन एजेंट निकोलाई व्रोन्स्की (Aleksandr Dyachenko) से उसके विवाह आनन-फानन में होते हैं और तीनों ही अलग-अलग तरीके से उसके जीवन में नर्क का समावेश लेकर आते हैं। तीनों के व्यक्तित्व के ऊपरी आवरण बेहद आकर्षक हैं, पर तीनों के ही जीवन के अंधेरे पक्ष ऐसे हैं जिनके साथ किसी भी समर्थ स्त्री का निर्वाह नहीं हो सकता। जिम्मी नशे का आदि है और सुज़ाना की भरपूर कोशिशों के बावजूद भी वह नशा तो छोड़ ही नहीं पाता बल्कि अपने जैसी ही नशेड़ी औरतों के साथ संबंध रखने से भी बाज नहीं आता।

महफिलों को अपनी संवेदनशील शायरी से लूटने वाले वसीउल्लाह खान निजी ज़िंदगी में हद दर्जे के सेडिस्ट हैं।

तीन शादियाँ करके परेशानी उठा चुकी सुज़ाना व्रोन्स्की से शादी करने की इच्छुक नहीं है। वह उससे कहती है,

एक और शादी करने की हिम्मत नहीं है मुझमें। शादी से बड़ा हादसा हुआ नहीं है इंसान के साथ। एंड इन एनी केस आई वांट टू रिमेन इन लव।

आकर्षक व्रोन्स्की उसे अपनी अदाओं से उसे यकीन दिला देता है कि वह भी प्रेम की खातिर ही भारत में रहना चाहता है पर कानूनी रुप से यहाँ ठहरने के लिये उसे शादी करना बहुत जरुरी है।

हकीकत सुज़ाना को शादी के बाद पता चलती हैं कि व्रोन्स्की ने उसे धोखा दिया है और उसका दिल फिर टूट जाता है। घायल सुज़ाना के अपराधी पहलू को तो जज बनकर अपने अपराधी को स्वयं ही सज़ा देनी है!

अभी तक सुज़ाना तीन बार दिल के हाथों बिककर शादियाँ करती रही है। पर अबकी बार उसकी ज़िंदगी में पुनः प्रवेश करने वाला पुलिस अधिकारी कीमत लाल (अन्नू कपूर), जो कि पहले से ही सुज़ाना पर फिदा है, कानून के शिकंजे में फंसी सुज़ाना को अपनी सरकारी शक्त्ति और अपने जोड़तोड़ करने की प्रतिभा के बल पर एक तरह से विवश कर देता है कि वह उसके सामने समर्पण कर दे। कानून के पंजे से अपने को बचाये रखने के लिये सुज़ाना को ऐसा करना भी पड़ता है। सुज़ाना के आकर्षण में बुरी तरह से गिरफ्तार कीमत सुज़ाना की सहायता करने के एवज में उससे शादी करना चाहता है।

कीमत को इस बात का पता नहीं है कि अब कोई पुरुष छल-कपट से सुज़ाना पर शासन नहीं कर सकता। शतरंज के इस खेल में बाजी बिछाता जरुर कीमत लाल है पर उसे जल्दी ही अपरोक्ष युद्ध में हारना पड़ता है।

परंतु पाँच पतियों के साथ चले इस द्वंद ने सुज़ाना की मानसिकता को रोगग्रस्त कर दिया है। अरुण (विवान शाह), जो अपने बचपन से ही अपनी मालकिन सुज़ाना के प्रति आकर्षण महसूस करता आया है वह भी अपनी युवावस्था में सुज़ाना द्वारा
उसके सामने समर्पण करने के प्रयास से एकदम से भौचक्का रह जाता है और सुज़ाना के प्रति अपने मन में उत्पन्न हुयी वितृष्णा को दरकिनार न कर पाने के कारण सुज़ाना से दूर चला जाता है।

पाँच शादियाँ करने के बाद भी सही साथी न खोज पाने वाली सुज़ाना के लिये अपना यह पतन बहुत बड़ा आघात है। पर जीवन खत्म हो जाये इससे पहले ही एक और रिश्ता जीवन में सामने आता है, डा. मधूसूदन तरफदार (नसीरुद्दीन शाह) के रुप में। मीठा बोलने वाले परिपक्व डॉक्टर को पाकर सुज़ाना ज़िंदगी में फिर से रुचि लेने लगती है कि धन-सम्पत्ति का मसला फिर से ज़िंदगी और मौत के बीच चूहे बिल्ली वाला खेल शुरु कर देता है।

यह आखिरी चोट है सुज़ाना के लिये। अब उसके मन में बसे रहने वाली चटटान टूट चुकी है। अब दूसरे के साथ से कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। अब बाहर की खोज से कुछ भी मिलने वाला नहीं है। छह बार वह गिर चुकी है और उसे अपराध करने के पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिला।

ऐसा अर्थहीन जीवन किसी काम का नहीं है। सदा की गैम्बलर सुज़ाना को अपने जीवन का सबसे बड़ा जुआ खेलना है। अब यह विपरित की यात्रा है। पहले के उलटे के मुकाबले अब यह सीधे रास्ते की यात्रा है।

अब उसके सामने बहुत कुछ साफ हो चुका है। अरुण से मिलने पर वह उसे कुछ बातें कहती है जैसे कि दुनिया की हर औरत कभी न कभी ऐसा जरुर सोचती है कि पति से हमेशा से कैसे छुटकारा पाया जाये।

सम्बंधों में जिसका भी वर्चस्व रहेगा उससे छुटकारा पाने का विचार उसके वर्चस्व को झेल रहे साथी के मन में आयेगा ही। यह स्त्री और पुरुष दोनों के लिये सत्य है।

वह अरुण से कहती है कि बच्चे होने से पति को सहन करना आसान हो जाता है। साधारण रिश्ते में यही पुरुष के लिये भी सत्य है।

अरुण के यह पूछने पर कि फिर आपने किसी भी शादी में बच्चों को जन्म क्यों नहीं दिया। सुज़ाना कहती है कि शायद तुमसे वह कमी पूरी होती रही।

जीवन में यह परिवर्तन है। अरुण खुद बचपन से सुज़ाना को पाना चाहता रहा है और तब सुज़ाना उसे पुत्रवत स्नेह करती है। बाद में बुरे समय में दिमाग पर से नियंत्रण खोकर वह उससे सम्बंध बनाना चाहती है और उसके सभी कृत्यों को जानने वाले अरुण का इस एक हरकत से उससे मोह ही खत्म हो जाता है। सुज़ाना द्वारा उसे पढ़ा-लिखा कर डॉक्टर बनाने में की गयी सहायता को अब वह एहसान समझता है और कानूनी रुप से उसकी मदद करने के बाद वह उसे कहता भी है कि उसने एहसान का बदला चुका दिया है।

मानव की सोच में समय के साथ परिवर्तन आते ही आते हैं। उसके मन में सुज़ाना की छवि एक अपराधी की है। पर उसके इस बार किये निर्णय को देखकर उसकी आँखें भर आती हैं।

मानव जीवन में पश्चाताप का बहुत महत्व है। अपराध के लिये समाज द्वारा तय की गयीं सजायें एक अलग मामला है और जरुरी नहीं कि सजा को काटकर भी व्यक्त्ति को पहले अपने द्वारा अपनाये गये रास्तों को लेकर पछतावा हो और पश्चाताप की अग्नि उसके मानस को शुद्ध करे। ऐसा भी हो सकता है कि व्यक्त्ति मानवीय दृष्टि में अपराध करे पर समाज इस बात को न जानता हो और उसे कानून सजा न दे पाये पर उसका अंतर्मन पश्चाताप से जलने लगे और वह बदल जाये। अपेक्षा तो कानूनी सजा की भी यही होती है कि मनुष्य परिवर्तित हो जाये पर ऐसा बहुत कम हो पाता है। ऐसा होना बहुत महत्वपूर्ण है कि अपने आप अंदर से शुद्ध होने के भाव जग जायें।

7 खून माफ अपनी चंद कमियों के बावजूद देखने वाले में एक अलग भाव जगाती है, जिसमें कभी-कभी बोरियत भी हो सकती है, जॉन अब्राहम वाला भाग फिल्म में दूसरा ही अध्याय है और उनके कमजोर अभिनय के कारण यह फिल्म से दर्शक की फिल्म में उत्सुकता और पसंदगी को ऋणात्मक रुप से प्रभावित करता है। इरफान खान के परदे पर आने के बाद फिल्म वापस अपनी पकड़ बना लेती है।

अंत के पंद्रह-बीस मिनट की फिल्म दर्शक के अंदर उचित सवाल उठा सकती है। अगर वे सवाल उठ गये तो फिल्म दर्शक तक पहुँच जाती है। कुछ दर्शक पहली ही बार में सम्बंधों से सम्बंधित बुनियादी सवालों तक पहुँच जायेंगे और कुछ अभी फिल्म की व्यवसायिक सफलता के मुद्दे पर जरुरत से ज्यादा ध्यान देकर इस बात से चूक जायेंगे और बाद में किसी और पुनरावलोकन के समय बात को पकड़ेंगे।

इतना जरुर है कि फिल्म के प्रस्तुतीकरण में और ज्यादा रोचकता लायी जा सकती थी। हर सम्बंध के दुखद अंत के बाद सुज़ाना की मनोस्थिति को कुछ विस्तार दिया जा सकता था और तब फिल्म में भावनात्मक तत्व की सही डोज़ रहती और दर्शक को हरदम पकड़े रहती।

फिल्म के प्रभावी अंत को देखकर और फिल्म में भूत और वर्तमान में कई बार होने वाले परस्पर बदलाव को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि यदि फिल्म का पहला ही दृष्य सुज़ाना को चर्च में अंगूठी पहनाने वाला होता और फिर आँसू बहाते अरुण पर फोकस करके फ्लैशबैक का सहारा लिया जाता तो दर्शक अंत तक इस रोचकता से बंधे रहते कि इस बार सुज़ाना किससे शादी कर रही है? और बाद में फिल्म के अंत में दर्शकों पर सही बात का राज़ खुलता।

गुलज़ार, विशाल और रेखा भारद्वाज की लाजवाब तिकड़ी द्वारा सृजित ईशू गीत फिल्म के अंत को सारगर्भित अर्थ और वातावरण प्रदान करता है।

फिल्म दृष्यात्मक है। सेट डिजायनिंग, फ्रेमिंग, सिनेमेटोग्राफी, और लाइटिंग आदि देखकर श्याम बेनेगल की अनूठी फिल्म त्रिकाल की गुणवत्ता की याद आती है। दोनों ही फिल्में कहानी की माँग के अनुरुप वातावरण रचने में सफल हैं। इस फिल्म में वातावरण रचने में पार्श्व संगीत का भी बड़ा योगदान है।

ऐसा अनुमान ही लगाया जा सकता है कि प्रियंका चोपड़ा के अभिनय प्रदर्शन का प्रभाव और बढ़ जाता यदि उनकी हर शादी की दुखद परिणति के बाद उनके अकेलेपन के कुछ दृष्य सृजित किये जाते। अभी तो तेज रफ्तार से उनकी छह शादियाँ परदे पर गुजरती जाती हैं और दर्शकों को उनकी मनोस्थिति से परिचित होने के लिये ठहराव नहीं देतीं। उनके लिये तो उनके अभिनय जीवन के पहले दशक के अंत के हिसाब से यह बड़ा अच्छा अवसर था। व्यवसायिक फिल्मों में काम करते रहने से ऐसे अवसर कम ही मिलते हैं। उन्हे तो निश्चित ही फायदा हुआ होगा इस फिल्म को करने से। पर बात यह भी है कि उनका अभिनय प्रदर्शन ऐसे रुप में सामने नहीं आता कि दर्शक यह कह सकें कि इस भूमिका में किसी और की कल्पना अब नहीं की जा सकती। फिल्म देखकर ऐसी बातें उठती हैं कि क्या तब्बू और विद्या बालन क्या इस भूमिका को किसी और ऊँचाई पर न ले जातीं या कि क्या नयी अभिनेत्रियों में अपनी अभिनय क्षमता और सामर्थ्य प्रदर्शित कर चुकीं कंगना रणावत और कोंकणा सेन (जो कि कुछ देर के लिये अरुण की पत्नी के रुप में परदे पर आती हैं) इस भूमिका के मनोवैज्ञानिक पहलू को ज्यादा कुशलता से प्रदर्शित न कर देतीं।

जॉन अब्राहम के साधारण अभिनय प्रदर्शन को छोड़कर बाकी सभी पुरुष अभिनेताओं ने अपनी अपनी भूमिकाओं में अच्छे अभिनय का प्रदर्शन किया है। रेनकोट के बाद अन्नू कपूर फिर से यह भाव जगाते हैं कि हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों को उन्हे अच्छी भूमिकायें देकर उनकी अभिनय प्रतिभा का समुचित उपयोग करना चाहिये।

अपने पिता नसीरुद्दीन शाह की शैली में संवाद बोलने वाले विवान शाह आत्मविश्वास से भरे नज़र आते हैं और यह किसी भी नवोदित अभिनेता के लिये बहुत बड़ा गुण है।

ऊषा उत्थुप को एक अभिनेत्री के रुप में देखना अच्छा लगा। वे पूरी तरह से सहज थीं और ज्यादा संवाद न होते हुये भी वे अपनी उपस्थिति का भरपूर अहसास कराती हैं।

फिल्म के संगीत ने भी अपनी श्रेष्ठता के परचम लहराये|

वर्तमान दौर के हिन्दी सिनेमा के शीर्षस्थ निर्देशकों में शुमार विशाल भारद्वाज ने मकड़ी से शुरु करके हर बार एक नये किस्म की फिल्म बनायी है और यह एक शुभ संकेत है, हिन्दी सिनेमा की प्रवृत्ति को देखकर जहाँ बाजार किसी फिल्मकार पर दबाव बनाता है कि अपनी सफलता की ही बार बार फोटो कॉपी करे।

ऐसी फिल्में हिन्दी सिनेमा में बनती नहीं है अतः ऐसे प्रयासों का समुचित रुप से सही मूल्यांकन होना चाहिये और केवल बॉक्स ऑफिस की सफलता को ही पैमाना बनाकर ऐसी फिल्मों की संभावनाओं को नष्ट नहीं करना चाहिये।

…[राकेश]

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