Dilip Kumar (1922-2021): The legend who inspired generations of artists,  Entertainment News | wionews.com

मौन साधा परदे पर तो ऐसा कि सन्नाटे के छंद ही बुन दिए और बकर बकर बोल हास्य रचा तो ऐसा कि लगा अभिनेता दिलीप कुमार को ट्रेजडी किंग का खिताब कैसे दे दिया लोगों ने, यह अभिनेता तो हास्य रस के घोड़े का सबसे अच्छा घुड़सवार है| नई पीढी का कोई दर्शक अगर कोहिनूर, आज़ाद, राम और श्याम, या गोपी देखने से दिलीप कुमार के फ़िल्म संसार में प्रवेश करे तो उसे यह मानने में बहुत दिक्कत आयेगी कि इसी अभिनेता को ट्रेजडी किंग कहा गया| और अगर कोई देवदास जैसी फिल्मों को देखे और पचास के दशक के मध्य तक ही ठहर जाए तो उसे दिलीप कुमार के गहरे अभिनय से यही आभास मिलेगा कि इस अभिनेता ने मुश्किल से ही परदे पर कॉमेडी की होगी| अभिनेता चंद्रमोहन, जिन्होंने शहीद में दिलीप कुमार के चरित्र के पिता का चरित्र निभाया था, अपने बारे में कहा करते थे कि उनका तो कोट भी अभिनय करता है| अभिनेताओं का कैमरे के सामने अपना चेहरा लाने का ख़ास मोह होता है, आखिर वही उनके लिए अपनी कला का प्रदर्शन करने का माध्यम है, दिलीप कुमार ने हिन्दी सिनेमा को सिखाया कि कैमरे की तरफ पीठ करके या गर्दन को घुमाकर कैमरे के सामने साइड से खडा रह कर अभिनय करने से भी दृश्यों में जबरदस्त असर लाया जा सकता है और अभिनय प्रदर्शन एक सतत प्रक्रिया है, पूरी फ़िल्म के लिए| यूँ शूटिंग अवश्य ही टुकड़ों-टुकड़ों में होती है लेकिन फ़िल्म के प्रदर्शित होने पर अभिनेता का पूरी फ़िल्म में संग्रहित प्रदर्शन ही दर्शक पर असर डालेगा| किन्ही ख़ास दृश्यों में उसका जबरदस्त प्रदर्शन नहीं| अभिनेता को अपने अभिनय को इस तरह मांजना होगा कि जब अलग अलग उसके दृश्यों को फ़िल्म में जोड़ा जाए तो वे एक ही यात्रा के भाग लगें, वे एक ऐसी माला लगें जिसके मनके दिखाई न दें, अलग अलग महसूस न हों| अभिनय में नाटकीयता के समावेश के कारण उनसे पहले ऐसा नहीं होता था, और अच्छे खासे नामचीन अभिनेता भी इस मामले में एकरूप अभिनय करते दिखाई नहीं देते और वे कुछ दृश्यों में बहुत अच्छे, कुछ में औसत और कुछ में औसत से कम दिखाई देते हैं| दिलीप कुमार ने पूरी फ़िल्म में अभिनय के एक स्तर में निरंतरता कैसे रखी जाए इस बात को स्थापित किया, बार बार अपने अपने प्रदर्शनों से सिद्ध किया|

दिलीप कुमार में अभिनय की वासना नहीं थी, उन्हें अभिनय का योगी एवं ब्रहमचारी कहा जा सकता है| इस तरह का धैर्य, संयम या नियंत्रण उनके बाद केवल अभिनेता पंकज कपूर में देखा जा सकता है| चुनींदा लेकिन ठोस काम करने का सलीका हिन्दी सिनेमा को दिलीप कुमार ने ही सिखाया| जब उन्हें बहुत देर से साल १९९५ में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा की गई तो दिल्ली में दूरदर्शन ने उनका साक्षात्कार लिया और साक्षात्कार लेने वाले सज्जन ने उनसे विरोधाभासी बात करते हुए सवाल पूछा कि आपने इतनी कम फ़िल्में क्यों कीं और उसी के उप प्रश्न के रूप में उनके द्वारा कमाए धन के बारे में कुछ पूछा जिसका बेहद सलीकेदार जवाब दिलीप साब ने दिया कि जैसा आपने जिक्र किया कि मैंने बेहद कम फ़िल्में कीं, तो पैसा भी तो उसी अनुपात में ही तो कमाया होगा|

दिलीप कुमार की अभिनय शैली की नक़ल करके या उनसे प्रेरित होकर अभिनेताओं की पीढियां तैयार होती रही हैं या अभिनेता अपनी कला को और धारदार बनाते रहे हैं|

दिलीप कुमार के गहन मित्र और समवर्ती अभिनेता निर्देशक राज कपूर जब प्रेम रोग बना रहे थे तो एक द्रश्य में अपने पुत्र अभिनेता ऋषि कपूर के प्रदर्शन से वे संतुष्ट नहीं थे और राज कपूर उन निर्देशकों में से थे जिन्हें उनके मन मुताबिक़ दृश्य या अभिनय प्रदर्शन न मिले तो वे एक साल तक भी इन्तजार करने और उसे बार बार शूट करने की मेहनत से तनिक भी घबराते नहीं थे| उन्होंने कैमरे के पीछे से चिल्ला कर ऋषि कपूर से कहा,” चिंटू मुझे युसूफ चाहिए”|

ऋषि कपूर चकराए कि युसूफ यहाँ कैसे आयेंगे? पूछने पर निर्देशक पिता ने उनकी मुश्किल आसान करते हुए कहा कि इस दृश्य को जैसे युसूफ करता वैसे करने की कोशिश करो|

राज कपूर दिलीप कुमार और देव आनंद की आपसी मित्रता के बावजूद मीडिया में हमेशा से ही उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता के चर्चे भी हमेशा रहे लेकिन उनके बीच प्रतियोगिता अपने स्वस्थतम रूप में ही थी वरना रात के दो बजे दिलीप कुमार को राज कपूर का फ़ोन न आता यह कहने के लिए,” लाले आज तेरी शक्ति देखी, बस हो गया फैसला, भारत में दिलीप कुमार बस एक ही है”|

राज कपूर दिलीप कुमार ने साथ-साथ महबूब खान की अंदाज़ में अभिनय किया था और बरसों बाद एक और प्रेम त्रिकोण पर जब राज कपूर ने फ़िल्म – संगम, बनाने की योजना बनाई तो दिलीप कुमार को ही सबसे पहले अपने अलावा दूसरी मुख्य भूमिका में लेना चाहा| गहन मित्रता होने के बावजूद दिलीप कुमार ने विशुद्ध व्यावसायिक निर्णय लेते हुए राज कपूर के सामने एक मांग रखी कि या तो राज कपूर फ़िल्म में अभिनय करेंगे (अंदाज़ की तरह) या केवल निर्देशन की कमान संभालेंगे, दोनों काम वे करेंगे तो उन दोनों की बात नहीं बनेगी”| बात नहीं ही बनी लेकिन उनकी मित्रता की बात राज कपूर के देहांत तक बनी ही रही और उनके देहावसान के बाद भी कपूर खानदान के लिए दिलीप कुमार पितृतुल्य ही बने रहे| ऐसा कोई नहीं होगा हिन्दी सिनेमा में जो दिलीप कुमार का सम्मान न करता हो, उनसे व्यक्तिगत रंजिश के बावजूद उनका सम्मान वह अवश्य ही करता होगा|

अस्सी के दशक में एक दूजे के लिए से हिन्दी फिल्मों में धमाकेदार प्रवेश और बाद में सागर द्वारा अपने प्रवेश पर एक ठोस अभिनेता होने की मुहर लगाने वाले और नायगन, महानदी, अप्पू राजा, मेयर साब, पुष्पक आदि फिल्मों से समूचे भारत में अपनी अभिनय प्रतिभा का डंका बजाने वाले कमल हासन ने एक बार दिलीप कुमार के एक छवि पोस्टर पर उनके हस्ताक्षर लेने का प्रयास किया था कि समय रहते भारत के सबसे अच्छे अभिनेता की निशानी उनके पास रहे|

नसीरुद्दीन शाह, जो बामुश्किल अपने समवर्ती या अपने से बड़ी पीढी के किसी ऐसे अभिनेता की प्रशंसा करते हैं, जो सफल भी रहा हो, दिलीप कुमार की शान में कहा था, उन्होंने ने पचास के दशक में जो काम किया उसका लोहा तो मैं क्या सारी दुनिया मानती है|

नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी और पंकज कपूर जैसे बला के जादुई अभिनेताओं के साथ बहुत सारी फ़िल्में करने के बाद भी कभी स्पष्ट रूप से उनकी कला की प्रशंसा न करने वाली शबाना आजमी के लिए भी दिलीप कुमार शानदार उर्दू, प्रभावशाली अंगरेजी बोलने वाले, शायरी से प्रेम करने वाले बेहद सलीकेदार और एक अर्थ में एक पूर्ण पुरुष रहे|

दिलीप कुमार को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिला तो अमिताभ बच्चन ने अखबार में लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था- उत्तम नहीं सर्वोत्तम है दिलीप कुमार|

इस लेख में अमिताभ ने उल्लेख किया कि कैसे अपने आदर्श अभिनेता दिलीप कुमार के साथ पहली बार शक्ति में कैमरे का सामना करते वक्तत वे नर्वस हो गए और एक साधारण से दृश्य के कई रिटेक उन्होंने दिए|

यश चोपड़ा बरसों से दिलीप कुमार के साथ काम करना चाहते थे और उन्हें अवसर मिला जाकर “मशाल” में| सड़क किनारे दम तोडती वहीदा रहमान के चरित्र को बचाने के लिए दिलीप कुमार का चरित्र जो करता है उसमें दिलीप कुमार का अभिनय एक मिसाल बन चूका है| भले ही मिमिक्री कलाकार उस दृश्य में दिलीप साब के चिल्लाकर संवाद बोलने की नक़ल किया करते हैं, लेकिन बकौल यश चोपड़ा उस लम्बे दृश्य की शूटिंग कई रातों में निबटी और दिलीप कुमार ने इतने तरीकों से उसे किया था और हर टेक इतना प्रभावशाली था कि सबसे अच्छा टेक चुनना मुश्किल था| 

दिलीप कुमार वास्तव में अभिनेताओं और फ़िल्म वालों के प्रेरणास्रोत अभिनेता थे|

दिलीप कुमार ने जो किया पूर्ण समर्पण और लगन से किया और उस कार्य को तब तक साधा जब तक कि उसमें महारत हासिल न कर ली| कोहिनूर में उन्हें परदे पर सितार बजाना था तो उन्होंने बाकायदा सितार बजाना सिखा ही नहीं वरन विदेश में सितार बजाने की अपनी कला का प्रदर्शन भी लोगों के सामने किया| हृषिकेश मुखर्जी की पहली फ़िल्म – मुसाफिर में उन्हें लता मंगेशकर के साथ दोगाना गाना था तो उसे भी उन्होंने इस अंदाज़ में गया कि देवदास का तलत द्वारा गाये गीत – मितवा लागी रे की टक्कर का लगता है| उनके अपने आप गीत गाने से यह भी पता चला कि पचास के दशक की उनकी संवदेनाओं से भरी फिल्मों में तलत द्वारा उनके लिए पार्श्व गायन करना बिलकुल प्राकृतिक बात थी क्योंकि दोनों की गाने की आवाज़ और गाने के अंदाज़ में बहुत समानताएं थीं|

खेल कूद के प्रति उनका लगाव तो जग जाहिर था ही| दिलीप कुमार केवल फिल्मों में अभिनय करने तक ही सीमित नहीं रहते थे| वे जीवन को शिद्दत से जीने की कायल थे और उन्होंने फिल्मों में काम करने से इतर और बहुत से काम भी किये| क्रिकेट और फ़ुटबाल को सिर्फ देखा ही नहीं बल्कि उन्हें पूर्ण समर्पण से खेला भी और अन्य खिलाड़ियों को प्रोत्साहन देने के लिए स्थानीय क्लबों की स्थापना की और उन्हें आर्थिक सहायता दी, उनका रखरखाव का जिम्मा लिया| फ़िल्म उद्योग में काम करने वाले बहुत से लोग सारे दिन फ़िल्में ही देखते हैं, उन्हीं की बातें करते हैं| इनसे अलग दिलीप कुमार ने जीवन के बहुत से रंग जिए| वे फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर चर्चा या उस पर सुधार कार्य भी अपने बोट हाउस पर किया करते थे| अलग अलग क्षेत्रों के दिग्गजों संग उनकी मित्रता रही| केवल साहित्य, सिनेमा और संगीत ही नहीं बल्कि ज़िंदगी के अलग-अलग अन्य क्षेत्रों में उनका आवागमन लगातार बना रहा| हिन्दी सिनेमा के कितने ऐसे अभिनेता होंगे या हुए होंगे जो बम्बई हाई कोर्ट में मुक़दमे सुनने जाते हों? दिलीप कुमार जाते थे जब उनके नामी वकील मित्र गण किसी रोचक मुक़दमे में जिरह किया करते थे| जीवन की बहुरंगी प्रवृत्ति से तालमेल बैठाना ही शायद सबसे बड़ा कारण रहा उनके  अभिनय में इतनी गहराई उतर आने का|

दिलीप कुमार बम्बई के शैरिफ भी बने|

दिलीप कुमार की कुछ फिल्मों के विषय अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले रहे (दीदार और बैराग का नाम तो आसानी से लिया जा सकता है) लेकिन राज कुमार (कुदरत) और राजेश खन्ना (रेड रोज़) से बहुत पहले दिलीप कुमार ने अमर में एक ऐसे नायक की भूमिका की जो अपने घर में परिस्थितिवश शरण लेने आई गरीब सहनायिका (निम्मी) का बलात्कार करता है| पचास के दशक में केवल नायक की ही भूमिकाएं निभाने वाले किसी भी अभिनेता के लिए यह बेहद असामान्य कदम था, लेकिन अच्छे और दमदार कथानक के मुरीद दिलीप कुमार ने इस जोखिम को उठाया और अपनी जहीन अदाकारी के बलबूते आदर्श, अपराध और पश्चाताप के कशमकश में फंसे व्यक्ति के मानसिक संघर्ष को परदे पर इस तरह से उतार दिया कि देखने वाले को लगे कि वह भी इस व्यक्ति की यात्रा को जी रहा है|  

दिलीप कुमार से पहले भी अशोक कुमार बड़े सितारा अभिनेता थे लेकिन युवा नायक के रूप में उनकी पारी पहले आज़ादी के संघर्ष और बाद में बंटवारे के शोर में थोड़ी दबी रही| किस्मत ने उन्हें उस समय का बड़ा सितारा तो बना दिया लेकिन हिन्दी सिनेमा को वास्तव में सितारा अभिनेता नायक मिले आज़ादी के बाद राजदेवदिलीप के तिकड़ी के उभार से| अशोक कुमार एक सशक्त अभिनेता के रूप में इन तीनों की फिल्मों के और इनके काल में अन्य फिल्मों के अंग बने रहे| राजदेवदिलीप ने हिन्दी सिनेमा का सारा व्याकरण ही बदल दिया| तीनों ही उस स्तर के खिलाड़ी थे जहां एक की फ़िल्म देखते समय बाकी दोनों की स्मृति नहीं रहती| तीनों ने साथ-साथ विकास किया और साल दर साल दर्शकों को उच्च गुणवत्ता की फ़िल्में देते रहे और हिन्दी सिनेमा को समृद्ध बनाते रहे| तीनों में ही आपस में गलाकाट प्रतियोगिता नहीं थी| तीनों अपने हुनर के कारण आत्मविश्वास से लबरेज़ थे और अपनी कला साधना में ही रत रहे| एक भी फ़िल्म का इतिहास ऐसा नहीं मिलता कि इन तीनों में से किसी एक को मिल रही थी और दूसरे या तीसरे ने तिकड़म करके वह फ़िल्म हथिया ली|

हृषिकेश मुखर्जी की बेटी की शादी हुयी तो दिलीप कुमार अपनी कार लिए ऐसे ही काम करते रहे जैसे अपने घर में अपनी नजदीकी रिश्तेदार की शादी करवा रहे हों| उनका व्यक्तिगत रिश्ता जो अपने साथ काम करने वालों के साथ बना वो ध्यान देने लायक बात है| रवि चोपड़ा ने एक बार उन्हें याद करते हुए कहा था कि एक फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर चर्चा अकरने के लिए वे घर आये तो लुंगी कुर्ता पहने हुए कार से उतरे और पूछा,” तेरा बाप कहाँ हैं?

ऐसा बेतकल्लुफ़ी का रिश्ता हर व्यक्ति के बस की बात नहीं| सामाजिक रूप से वे बेहद जिम्मेदार व्यक्ति रहे और शायद जीवन में असल के अनुभव ही उन्हें अभिनय में गहराई लाने के लिए सहायता करते रहे|

दिलीप कुमार की संवाद अदायगी ने हिन्दी फिल्मों पर खासा असर डाला| उनकी शुरुआती फिल्मों को देख कर भी निश्चित पता चलता है कि वे लेखक द्वारा लिखे गए संवादों को अपने अनुसार ढाल लिया करते थे और उसे बेहद स्वाभाविक बना डालते थे| उनकी फ़िल्म मेला के एक दृश्य में दिलीप कुमार को उनके पिता अपनी दूकान पर बैठा देते हैं और दिलीप कुमार को अपनी प्रेयसी और मित्र नर्गिस से मिलने जाना है| वे अपने पिता को निश्चिंत करते हैं और कुछ ऐसा कहते हैं, जिसका सारांश है,” बापू तुम जाओ, मैं हूँ न यहाँ देखभाल करने को”| बापू को भी पता है और दर्शकों को भी बाप के जाते ही युवक को दूकान से भाग जाना है| जिस खुशनुमा और स्वाभाविक अंदाज़ में दिलीप कुमार ने एक साधारण से संवाद को बोला है वह दर्शाता है कि उन्होंने उसी वक्त से अपनी अभिनय कला पर कमाल की दक्षता हासिल कर ली थी| दो तीन पंक्तियों के उस संवाद से निश्चित पता चलता है कि एक तो तभी से दिलीप साब ने अपने संवादों को अपने अनुसार ढालकर ऐसा बनाना शुरू कर दिया था जिससे वे स्वाभाविक बातचीत का हिस्सा लगें, न कि नाटकीय संवाद, और दूसरे उन्होंने उसे इस ढंग से बोला जैसा उनके पहले के किसी अभिनेता ने कभी नहीं बोला होगा| उन्होंने एक साधारण से संवाद में रोचकता भर दी और घोषणा कर दी कि अच्छे अभिनय के साथ उन्होंने एक कीमियागिरी भी विकसित कर ली है जो उन्हें अच्छा अभिनेता होने के साथ सितारा भी बनायेगी| उन्होंने अपने अभिनय प्रदर्शन में व्यक्तित्व का समावेश करना शुरू कर दिया| उनके निभाये चरित्र सच्चे और अच्छे तो लगते ही थे, साथ ही बेहद आकर्षक भी लगते थे| उन्होंने एक बड़े नायक को गढ़ना शुरू किया| उनका रास्ता चरित्र अभिनेताओं से अलग हो गया, जहां बहुत अच्छे अभिनेता थे| उन्हीं सालों में बलराज साहनी बहुत अच्छा अभिनय करने के साथ इस कौशल को नहीं साध पाए|

दिलीप कुमार को केवल अभिनेता मानना सही नहीं होगा क्योंकि अपनी फिल्मों की स्क्रिप्ट में सुधार या बदलाव करने से लेकर अपने संवाद लिखने और निर्देशक के साथ नजदीकी सम्बन्ध कायम कर फ़िल्म निर्माण के हर पहलू में अपनी भूमिका के लिए स्थान बनाने के कारण उनकी हरेक फ़िल्म में अभिनय के अलावा भी बहुत कुछ अन्य प्रकार के योगदान का समावेश हमेशा रहा है|

गंगा जमुना के बारे में यहे कहा और माना गया कि इस फ़िल्म के निर्माण में उनकी भूमिका हर स्तर पर उपस्थित थी और स्क्रिप्ट लेखन से लेकर निर्देशन में उनके निजी योगदान का भी समावेश रहा|

दिलीप कुमार की फिल्मों को देखें तो एक पैटर्न निकल कर आता है, एक तरह की उन्होंने लगभग तीन फ़िल्में कीं| थोड़ा बहुत अंतर कथाक्रम में होगा लेकिन मौटे तौर पर एक चरित्र को उन्होंने लगभग तीन तीन बार निभाया और इन चरित्रों के लगभग एक जैसे गुण होने के बावजूद ऐसा नहीं लगता कि दिलीप कुमार टाइप्ड हो गए वे तीसरी फ़िल्म को भी उसी ताजगी से कर गए जैसी ऊर्जा से उन्होंने पहली फ़िल्म को किया होगा| नया दौर का तांगे वाला, राम और श्याम का श्याम, गोपी और सगीना महतो का चरित्र चारों लगभग एक से ही हैं, लेकिन चारों अलग लगते हैं|

यह अवश्य है कि जो नयापन उनकी साठ के दशक के मध्य तक की फिल्मों में रही वह उनकी बाद की फिल्मों में कायम नहीं रही| बैराग के बाद क्रान्ति और बाद में सुभाष घई और अस्सी के दशक में अन्य निर्देशकों संग की गई फ़िल्में वे न भी करते तो चल जाता| उनकी उम्र के हिसाब से चरित्र लिखने वाले लेखक और चरित्र गढ़ने वाले निर्देशक ही हिन्दी सिनेमा में नहीं थे| शक्ति में अमिताभ के बड़े हो जाने के बाद अपनी उम्र का चरित्र निभाने में वे पुनः अव्वल दर्जे के अभिनेता नज़र आते हैं| अपने एक जीनियस अभिनेता होने की झलकें उन्होंने अपनी इन तमाम फिल्मों में भी दिखाई| दुनिया ऐसी ही फ़िल्म थी जैसी उस जमाने में बन रही थीं, लेकिन उसमें भी जिस तरह वात्सल्य से वे ऋषि कपूर के चरित्र को देखते हैं वह उनके अभिनय की सच्चाई को दर्शाता है| अस्सी के दशक की उनकी फिल्मों का स्तर उस दौर की अन्य फिल्मों से बेहतर है, उनका अभिनय भी उस दौर के अभिनेताओं से कहीं ऊपर के स्तर का है लेकिन इन फिल्मों और उनमें अभिनय की तुलना साठ के दशक के मध्य तक गई फिल्मों और उनके अभिनय के स्तर से नहीं की जा सकती| पचास के दशक और साठ के दशक के मध्य तक किया गया उनका अभिनय प्रदर्शन एक बहुत ऊँचे दर्जे की बात है|

उन्हें डेविड लीन के साथ लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया कर लेनी चाहिए थी, शायद भारतीय अभिनेताओं को हॉलीवुड और विश्व के अन्य सिनेमा उद्योगों में कायदे का मुकाम साठ के दशक में ही मिलना शुरू हो जाता| उनका डेविड लीन को इनकार करना उनके किसी तरह के भय को दर्शाता है| यह ऐसा ही भय हो सकता है जिसके कारण उन्होंने फ़िल्म में गरीब मजदूर की भूमिका निभाते हुए भी कभी परदे पर कमीज या कुर्ता नहीं उतारा| दिलीप कुमार को कभी आधी बाजू की कमीज में भी परदे पर नहीं देखा गया| दिलीप कुमार को गुरुदत्त से प्यासा करने का वादा करने के बाद नियत दिन नियत समय पर शूटिंग पर पहुँच जाना चाहिए था पर गुरुदत्त पूरे दिन स्टूडियो में इन्तजार करते रहे और दिलीप कुमार जब नहीं आये तो उन्होंने फिर से स्वयं ही नायक की भूमिका के रूप में शूटिंग आरम्भ कर दी| अगर दिलीप कुमार प्यासा करते तो गुरुदत्त की यह मास्टरपीस फ़िल्म गुणवत्ता में और कई गुना ज्यादा की बढ़ोत्तरी कर पाती क्योंकि तब गुरुदत्त को अभिनेता के रूप में ध्यान भटकाने की आवश्यकता न रहती और वे एक निर्देशक के रूप में फ़िल्म पर और नजदीकी से नज़र रख पाते|

सत्तर के दशक के बाद उन्हें श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, मृणाल सेन और अगर संभव होता तो सत्यजीत रे के साथ फ़िल्में करनी चाहिए थीं, जिससे उनके अन्दर के अभिनेता को वैसी ही चुनौतियां मिलतीं जैसी उनके निर्देशक उन्हें पचास के दशक में दिया करते थे| शशि कपूर ने बेहद सही सुझाव इस्माइल मर्चेंट को दिया था जब उन्होंने फ़िल्म- मुहाफ़िज़ में, बीते दौर के उर्दू के एक शायर के चरित्र के लिए दिलीप कुमार का नाम सुझाया था| महेश भट्ट की सारांश जैसी फ़िल्में उनके लिए माकूल बैठतीं, जहां वे अपनी उम्र का चरित्र निभा पाते और हिन्दी सिनेमा में उम्रदराज अभिनेताओं के लिए सही वक्त पर जगह बनाते| बैराग के बाद उनकी फिल्मों के कुछ भागों को छोड़ कर ज्यादातर फ़िल्म बनाने वालों ने कुछ भी उससे बेहतर नहीं करवाया जो वे पहले ही नहीं कर चुके थे| हिन्दी सिनेमा में नायक की भूमिका निभाने वाले सबसे बेहतरीन अभिनेताओं में से सबसे ऊपर की श्रेणी के अभिनेता के जीवित रहते हिन्दी सिनेमा के लेखकों और निर्देशकों ने यह अवसर खो दिया|

बैराग के बाद उनके पास आने वाले निर्देशक वे लोग थे जो उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे और उनके लिए दिलीप कुमार का नाम अपनी फ़िल्म में उपयोग में लाना बहुत बड़ी बात थी|  

ऐसा लगता था कि वे उम्र का शतक पूरा कर लेंगे लेकिन वे चले गए|

यहूदी फ़िल्म में उनके द्वारा प्रस्तुर गीत की एक पंक्ति थी

चाहे कितनी आवाज़ देना फिर नहीं आयेंगे हम

राजदेवदिलीप की त्रयी के जाने से हिन्दी सिनेमा की बहुत बड़ी चमक चली गई है| अब केवल लता मंगेशकर ही ऐसा नाम हैं जो हिन्दी सिनेमा के स्वर्णिम इतिहास की जीता जागता उदाहरण देश के समक्ष हैं|

सिनेमा में अभिनय को दीवाने की तरह प्रेम करके उसे साधने वाला अभिनेता अब नहीं है| अभिनय की दुनिया में तो वे बरसों से सक्रिय नहीं थे| दिलीप कुमार का नाम भारतीय सिनेमा में इतना बड़ा है कि बरसों से फिल्मों में काम न करने के बावजूद देश में रोज़ ही उनका उल्लेख सार्वजनिक स्तर पर होता रहता था| फ़िल्मी दुनिया चढ़ते सूरज को नमस्ते करने का उद्योग है और वहां सभी को भुला दिया जाता है| दिलीप कुमार उन चंद सितारों में से एक हैं जिन्हें न कभी भुलाया गया और न कभी भुलाया जाएगा| अब तो शायद नौजवान पीढी के लोग भी ढूंढ कर उनकी फ़िल्में देखें कि ऐसा क्या था इस अभिनेता में कि लगभग पच्चीस सालों से फिल्मों में काम न करने के बावजूद दुनिया उसे इस कदर याद कर रही है?

…[राकेश]

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