हिंदी फिल्मों में ही ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहां किसी चरित्र का चित्रण समाज के लिए घातक लगेगा लेकिन फ़िल्में आती हैं चली जाती हैं, समाज अपनी मंथर गति से बदलाव देख,समझ, स्वीकार करके बढ़ता रहता है|
आखिरकार तो सिनेमा अतिशयोक्ति में बसने का ही क्षेत्र है न| उत्तम में भी सर्वोत्तम सिनेमा भी अतिशयोक्ति का ही सहारा लेकर अपना अस्तित्व बनता है|
…[राकेश]
Discover more from Cine Manthan
Subscribe to get the latest posts to your email.
Leave a comment