mukesh1एक उम्दा गीत हरेक विभाग में उम्दा होता है। बढ़िया बोल, जिन्हे सुनकर श्रोता के अंदर वे कल्पनायें जन्म लेनें लगें जो कि गीत के शब्द उकेरे दे रहे हैं और कर्णप्रिय धुन और गायिकी, जिन्हे सुन श्रोता का मन झूम उठे।

किसी गीत में कुछ कमी रह जाती है किसी में कुछ। किसी गीत का मुखड़ा अगर जबर्दस्त है तो अंतरे में फीकापन आने लगता है, कहीं बोल अच्छे हों और उन बोलों को मधुर संगीत और समर्थ गायिकी का सहारा न मिले तो लगता है कि फिर गीत को गवाने की क्या जरुरत थी, इसे कविता की तरह पढ़ न लते, आखिरकार शब्दों के मानी तो वही रहते न।

पर कुछ गीत हैं ऐसे जहाँ कोई कमी नज़र नहीं आती और जहाँ गीत की गुणवत्ता श्रोता को बिना लाग-लपेट के क्लीन बोल्ड कर देती है। तीर सीधे कानों से उतर दिल में जा बैठता है।

ऐसा ही सम्पूर्ण गीत है – तुम महकती जवां चाँदनी हो। फिल्म –प्यासे दिल (1974) का यह गीत मरहूम शायर जान निसार अख्तर ने लिखा था और इसे संगीतबद्ध किया था मशहूर संगीतकार खय्याम ने और इस खूबसूरत गीत को अपने दिल से निकले स्वर से जीवंत बनाया था मुकेश ने।

किसी शायर की पंक्तियों को थोड़ा हेरफेर के साथ उपयोग में लायें तो इस शानदार गीत की शान में कसीदें कुछ यूँ पढ़े जा सकते हैं –

इस गीत की किस अदा को दिल से लगायें
यहाँ हर बात दमकती है सोने माफिक

सन 1976 के अगस्त माह ने भारतीय फिल्म संगीत और इसके प्रेमियों पर बड़ा जुल्म किया पहले तो 19 अगस्त को जान निसार अख्तर को काल ने अपना ग्रास बना लिया और कुछ ही दिन बाद 27 अगस्त को मुकेश को भी धरा से बुला लिया गया।

jannisarये दो बड़े फनकार तो हमारे बीच नहीं रहे पर मुकेश, जान निसार अख्तर और खय्याम की रचनाशीलता के संयोग से निकला अमर गीत आज भी श्रोताओं को आह्लादित कर रहा है। जो संगीतप्रेमी इस गीत को एक बार सुन ले वह इसका दीवाना हो जाता है।

प्रेमी द्वारा प्रेमिका की तारीफ में कसीदे कढ़े जाने वाले गीत में रोमांस अपनी इंद्रधनुषी रंगों की छटा बिखेर सके और गीत श्रोता के दिल तक मिठास, ठंडक और ऊर्जा ले जाये इसके लिये जान निसार अख्तर ने इस गीत को श्रंगार रस की चाशनी में पगाया है और क्या तो बेहतरीन व्यंजनायें उन्होने प्रयुक्त्त की हैं! बड़े शायरों की रचनायें निराली ही होती हैं। जान निसार अख्तर द्वारा रचे गीत की खूबसूरती के दीदार मन को मोहने वाले हैं।

तुम महकती जवां चांदनी हो
चलती फिरती कोई रोशनी हो
रंग भी, रुप भी, रागिनी भी
जो भी सोचूँ तुम्हे तुम वही हो
तुम महकती जवां चांदनी हो

जब कभी तुमने नजरें उठायीं
आंख तारों की झुकने लगी हैं
मुस्कारायीं जो आँखें झुका के
साँसे फूलों की रुकने लगी हैं
तुम बहारों की पहली हँसी हो

नर्म आँचल से छनती ये खुशबु
मेरे हर ख्वाब पर छा गयी है
जब भी तुम पर निगाहें पड़ी हैं
दिल में एक प्यास लहरा गयी है
तुम तो सचमुच छलकती नदी हो

जब से देखा है चाहा है तुमको
ये फसाना चला है यहीं से
कब तलक दिल भटकता रहेगा
माँग लूँ आज तुम को तुम्ही से
तुम के खुद प्यार हो ज़िंदगी हो
चलती फिरती कोई रोशनी हो
रंग भी, रुप भी, रागिनी भी
जो भी सोचूँ तुम्हे तुम वही हो
तुम महकती जवां चांदनी हो

इस गीत में मुकेश की गायिकी के बारे में क्या कहा जाये!

कहीं उनका स्वर यहीं पास से आता प्रतीत होता है कभी कहीं दूर से, निचले, मध्यम और उच्च स्वरों के फूलों से इस गीत का चमन खिल उठता है, महकने लगता है। पूरे गीत में आवश्यकतानुसार शब्दों को इस तरह अपनी आवाज के आरोह-अवरोह से उन्होने उच्चारित किया है कि जान निसार अख्तर के शब्द भी धन्य हो गये लगते हैं। उनके उच्चारण मात्र से शब्दों के अर्थ अपनी कुंडलिनी खोलने लगते हैं।

“तुम महकती जवां चांदनी हो” में ही उनकी आवाज अलग-अलग शब्द पर पर शिखर और घाटी की दूरी तय करती है। पूरे गीत में कई पंक्तियों के अंत में “हो” शब्द प्रयुक्क्त हुआ है और उन्होने हरेक पंक्ति में इसे अलग तरीके से गाया है।

“रंग भी, रुप भी” गाते हुये उनकी आवाज का नर्म रुप “रागिनी भी” गाते हुये नर्माहट की गर्माहट में मखमली अहसास भी जोड़ देता है। रंग भी, रुप भी का तरल बहाव “रागिनी भी” पर आकर सहसा गाढ़ा होकर धीमा हो जाता है और कुछ और देर श्रोता के साथ ठहर जाता है।

“तुम महकती जवां चांदनी हो” पंक्ति अगर धरा पर गायी गयी है तो पंक्ति “चलती फिरती कोई रोशनी हो” ऐसी प्रतीत होती है कि सुदूर आकाश में आतिशबाजी कर चमक दिखा रही हो, और “रंग भी, रुप भी, रागिनी भी” ऊपर से पैराशूट के साथ झूलते हुये वापिस आती प्रतीत होती है।

“जब कभी तुमने नजरें उठायीं” से शुरु हुआ अंतरा जान निसार अख्तर, मुकेश और खय्याम की तिकड़ी ने ऐसे जोर देकर प्रस्तुत किया है मानो यूनिवर्सल ट्रूथ प्रकार की वास्तविकता का बखान किया जा रहा है। क्या आत्मविश्वास है इस अंतरे में!

“नर्म आँचल से छनती ये खुशबु…” वाला अंतरा प्रेमी की तरफ से अपनी असली बात कहने से पहले की भूमिका बनाने का खूबसूरत प्रयास है।

और ” जब से देखा है चाहा है तुमको…” के अंतरे में प्रेमी का व्याकुल प्रेम-निवेदन, मुकेश ने उच्च स्वर में गाकर स्पष्ट रुप में प्रस्तुत कर दिया है। अपनी बात कहने के लिये वातावरण बनाकर प्रेमी सीधे सीधे कह उठता है – माँग लूँ आज तुम को तुम्ही से। और इस मुद्दे की बात कहने के लिये मुकेश की आवाज मध्यम स्वर में आ जाती है मानो दिल में बसे गहनतम राज को जाहिर करके एक बोझ उतर गया हो।

जान निसार अख्तर, मुकेश और खय्याम की इस खूबसूरत रचना को हल्का करता है इस गीत का सतही फिल्मांकन|

कोई शायर मज़ाक में कह गये हैं

अब मैं समझा तेरे रुखसार पे तिल का मतलब
दौलते हुस्न पे दरबान बैठा रखा है

बच्चों को नज़र न लग जाये इसलिये मातायें उनके गाल पर, माथे पर काला टीका लगाया करती हैं। गीत का वीडियो भी इस बेहद खूबसूरत गीत पर लगा काला टीका ही प्रतीत होता है|

बहरहाल मज़ाक से परे इस गीत का सौंदर्य कभी भी इसे सुनने वाले को आनंद देने में असफल नहीं होता है|

…[राकेश]


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