11 April 1946 को जन्में अभिनेता नवीन निश्चल उस समय जीवन का परित्याग (19 March 2011) कर गये जब एक अभिनेता के रुप में हिन्दी सिनेमा उनका बहुत अच्छा उपयोग कर सकने की स्थिति में पहुँच गया था|
आज के दौर में भानी-भांति की फिल्में हिंदी सिनेमा में बन रहे हैं और पुराने दौर से अलग आज के दौर में बुजुर्ग अभिनेता विविधता भरी भूमिकाएं पा रहे हैं और वे केवल चरित्र अभिनेताओं के लिए आरक्षित घिसी-पिटी भूमिकाएं निभाने के लिए अभिशप्त नहेने हैं| जहाँ तक भूमिकाओं का सवाल है वर्तमान दौर में सत्तर के दशक के फिल्मी सितारे अपने अभिनय जीवन के बहुत अच्छे दौर से गुजर रहे हैं। भले ही वे अब फिल्मों के नायक न बनाये जाते हों पर उनमें से ज्यादातर अभिनेता, मुख्य भूमिकायें निभाने वाले युवा सितारों से फिल्म को अपने पक्ष में छीन रहे हैं।
नवीन निश्चल का फिल्मी जीवन मध्यमार्गी रहा। उनकी फिल्मी यात्रा हिन्दी सिनेमा में स्टारडम की प्रक्रिया का विश्लेषण करने के लिये अच्छी और उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करती है। न तो वे बहुत बड़े सितारे बन पाये और न ही कभी ऐसा हुआ कि वे गुमनामी के अंधेरे में खो गये हों। उनके फिल्मों में प्रवेश के आसपास एफ़.टी.आई.आई से अभिनय की शिक्षा प्राप्त अभिनेतागण और बाहर से अभिनय की बिना किसी किस्म की पूर्व ट्रेनिंग लिये हुए बहुत सारे अभिनेता हिन्दी सिनेमा में कदम रख चुके थे। राजेश खन्ना, शशि कपूर, जीतेन्द्र, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना, शत्रुध्न सिन्हा आदि ने लगभग उसी समय स्टारडम पा लिया था और इन सितारों के सामने नायक की भूमिका में स्टारडम पाना आसान नहीं था। इनमें से हरेक के पास कुछ खास था और अन्य अभिनेताओं के लिये इनके समकक्ष खड़ा होने के लिये इन सबसे कुछ अलग या इनसे अच्छा करने की जरुरत थी। उस दौर की लगभग हर बड़ी और महत्वाकांक्षी फिल्म इन्ही सितारों के पास गयी।
इन सितारों में से लगभग हरेक अभिनेता एकल नायक वाली हिट फिल्में दे रहा था और निर्माता-निर्देशक इनकी जोड़ियाँ, तिकड़ियाँ और चौकड़ियाँ बनाकर भी इनके स्टारडम को भुना रहे थे। नवीन निश्चल भी अगर इन बहुसितारा फिल्मों में घुस पाते तो सत्तर के दशक के मध्योपरांत वे भी कुछ और अच्छी एवम हिट फिल्में पा सकते थे और ए श्रेणी में प्रवेश पा सकते थे।
सावन भादो (1970, निर्देशक – मोहन सहगल) जैसी हिट फिल्म से शुरुआत करके अगले लगभग पाँच सालों तक नवीन निश्चल को ठीक-ठीक सी फिल्में मिलीं, जिनमें परवाना (1971, निर्देशक – ज्योति स्वरुप), बुड्ढ़ा मिल गया (1971, निर्देशक – ह्रषिकेश मुखर्जी), हंसते जख्म (1973, निर्देशक – चेतन आनंद), धुंध (1973, निर्देशक – बी.आर. चोपड़ा) और पैसे की गुड़िया (1974, निर्देशक – ब्रज) प्रमुख हैं। विक्टोरिया न. 203, धर्मा और एक से बढ़कर एक, जैसी पूर्णतया व्यवसायिक श्रेणी वाली कई अभिनेताओं वाली फिल्में भी उन्हे इस काल में मिलीं और इन्होने सफलता भी पायी।
परंतु सत्तर का दशक खत्म होते होते अपने साथ के कुछ अन्य अभिनेताओं की नवीन निश्चल को भी दोयम दर्जे की रहस्य-रोमांच वाली तथाकथित हॉरर फिल्मों में खींच लिया गया और हिन्दी सिनेमा का इतिहास बताता है कि इन फिल्मों ने इनमें काम करने वाले अभिनेताओं का नुकसान ही किया है। इस वर्ग की फिल्मों के लिये जैसी दूरदृष्टि, लगन, कहानी, पटकथा, बजट और तकनीक की जरुरत होती है वह सब कम बजट की इन फिल्मों से सिरे से गायब रहा है। इन फिल्मों को बस खानापूर्ति करके सिर्फ इस वर्ग की फिल्में देखने वाले दर्शकों से पैसा वसूल करने के लिये बनाया जाता रहा है। इस वर्ग की हिन्दी फिल्में ही दर्शक का सबसे ज्यादा मूर्ख हिन्दी बनाती रही हैं। ऐसी हिन्दी फिल्में अभिनेताओं की साख तो गिराती ही रही हैं। इन फिल्मों के सबसे बड़े शिकार के रुप में अनिल धवन का नाम लिया जा सकता है। हालाँकि नवीन निश्चल की साख को ये फिल्में पूरी तरह से प्रभावित नहीं कर पायीं। 1980 में लेख टंडन की एक बार कहो, 1982 में बी.आर इशारा की लोग क्या कहेंगे, जैसी फिल्में उन्हे मिलीं। 1980 में ही रवि चोपड़ा की द बर्निंग ट्रेन ने उन्हे चरित्र भूमिका में प्रस्तुत किया। इस फिल्म में वे एक सहज स्वभाव वाले डाक्टर की भूमिका में थे और अगले कई सालों तक वे सह-भूमिकायें निभाते रहे। अस्सी के दशक में वैसे भी अर्थवान फिल्मों की संख्या आसानी से मुँहजबानी तौर पर गिनी जा सकती है और अस्सी और नब्बे के दशक की हिंदी फिल्मों का काल नवीन निश्चल जैसी अभिनय शैली के अभिनेता के लिये बहुत उचित काल नहीं था पर वे गिनी चुनी फिल्मों के जरिये अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे|
नवीन निश्चल के बारे में कहा जा सकता है कि उन्होने अपने अभिनय करने का तरीका नहीं बदला और वे सौम्य और सहज चरित्रों के लिये उपयोगी बने रहे। द बर्निंग ट्रेन ने उन्हे इस रुप में प्रस्तुत करके उनके सामने अभिनय के क्षेत्र में टिके रहने का मार्ग प्रशस्त किया। उनके अभिनय की इसी रेंज को और ज्यादा विकास मिला राजू बन गया जैंटलमैन (1992, निर्देशक – अज़ीज़ मिर्ज़ा) जैसी फिल्मों से। एक रईस आदमी के चरित्र में वे ऐसे समा गये जैसे वे इसी तरह की भूमिकाओं के लिये बने थे।
उनकी इसी सौम्यता को सही ढ़ंग से प्रस्तुत किया टी.वी धारावाहिकों ने, जिनमें देख भाई देख और फरमान प्रमुख हैं। देख भाई देख ने उनके अंदर कॉमेडी करने की संभावना भी जगायी।
नागेश कुकनूर की बॉलीवुड कॉलिंग में भी नवीन निश्चल ने मनु कपूर नामक एक फिल्म अभिनेता की भूमिका बड़े अच्छे ढ़ंग से निभायी।
नवीन निश्चल की पहली फिल्म का गीत “कान में झुमका” देखें तो ऐसा अनुमान लगता है कि उस दौर में यह काम जीतेंद्र उनसे बेहतर तरीके से पहले से ही करते आ रहे थे।
उनकी अभिनय रेंज में “तुम जो मिल गये हो” जैसे गीत ज्यादा मुनासिब बैठते थे।
उनके अभिनय जीवन का सबसे प्रभावशाली प्रदर्शन रिज़र्व था खोसला का घोसला में एक वरिष्ठ रंगकर्मी बापू की भूमिका के लिये। यही एक भूमिका चिल्ला-चिल्ला कर पुकारती है कि आज वे सत्तर के दशक के अपने साथी कलाकारों, जो कि उस समय सुपर स्टार्स थे और आज भी फिल्मों में काम कर रहे हैं, को जम कर टक्कर दे सकते थे।
खोसला का घोसला में बापू की भूमिका ऐसे अधेड़ उम्र के रंगकर्मी की थी जिसे देखकर ही पता चलता है कि इस कलाकार ने धन को तरजीह न देते हुए थियेटर के प्रति अपनी लगन को बनाये रखा है। जिस सहजता से उन्होने इस भूमिका को निभाया वह काबिलेतारीफ है। फिल्म में एक अमीर अप्रवासी भारतीय की भूमिका भी उन्होने जबरदस्त तरीके से निभायी। अमीर अप्रवासी के रुप का नाटक करना रंगकर्मी बापू के लिये एक चुनौती थी और बापू के रुप में नवीन निश्चल ने अपनी अभिनय क्षमता की जबरदस्त रेंज दिखायी। गरीब रंगकर्मी बापू से अथाह रुप से धनी सेठी की दोनों भूमिकाओं में उन्होने उल्लेखनीय अभिनय प्रदर्शन किया।
काश कि हिन्दी सिनेमा खोसला का घोसला के बाद उनकी इस दौर की विकसित अभिनय प्रतिभा का भरपूर उपयोग कर पाता। दुनिया जब जब खोसला का घोसला को देखेगी तब तब नवीन निश्चल की याद आयेगी।
हिन्दी सिनेमा में हॉलीवुड जैसी लाइट रोमांटिक कॉमेडी नहीं बनती हैं और इन फिल्मों के अभाव ने भी नवीन निश्चल जैसे अभिनेता को बहुत गहराई तक जड़ें जमाने नहीं दीं। अगर हिन्दी सिनेमा Up in The Air, Breezy, जैसी फिल्में बना सकता तो कुछ प्रतिभाशाली अभिनेता, जिन्होने कभी भी लाऊड अभिनय नहीं किया वे अपनी प्रतिभा का विकास ज्यादा सक्षम तरीके से कर सकते थे।
एक अभिनेता का रंग-रुप उसे वास्तविक जीवन की किसी शख्सियत की भूमिका निभाने के लिये उपयोगी बनाता है और इस लिहाज से भारत में अगर दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के जीवन पर कोई फिल्म बन सकती थी तो नवीन निश्चल बिल्कुल उचित अभिनेता थे।
…[राकेश]
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