Shaanसत्तर का दशक बीत चुका था, अस्सी का दशक धड़ल्ले से आगमन कर गया था। अमिताभ बच्चन सफलता के पुष्पक विमान पर उड़ान भरते हुये हिन्दी सिनेमा में देवाधिदेव होने का मुकाम हासिल कर चुके थे। दर्शक उनकी हर नई फिल्म इस अपेक्षा से देखने जाते थे कि देखें इस बार इस लम्बाई ने कितनी ऊँचाई के फल,फूल और पत्ते तोड़े हैं और किस तरह तोड़े हैं। फल, फूल और पत्ते किस तरह के हैं इनका ध्यान उनकी फिल्मों के कुछ दर्शक नहीं के बराबर करते थे परंतु सच्चाई यह भी है कि उनकी उन्ही फिल्मों को अखिल भारतीय स्तर पर बड़ी सफलता मिली थी जो गुणवत्ता में अच्छी थीं और जिन्होने कुछ अलग किस्म की सामग्री दर्शकों के सामने पेश की थी, दो बार तक तो पुनरावृत्ति चल सकती है पर उससे ज्यादा एक फॉर्मूले को दोहराये जाने की प्रवृत्ति उनके सबसे अच्छे दौर में भी उनकी कुछ फिल्मों पर भारी पड़ी थी।

शान के प्रदर्शित होने से पहले, पिछले पांच सालों में शोले हिन्दी सिनेमा के सबसे मनोरंजक और चमकते सितारे का स्थान ग्रहण कर ही चुकी थी और यह फिल्म उत्तर भारत के तो लगभग हरेक शहर, छोटे-मध्यम और बड़े, में साल में कम से कम एक बार तो अभी भी भरपूर भीड़ जुटा जाती थी और कितनी ही जगह हाऊसफुल शो चलते थे।

रमेश सिप्पी की अगली फिल्म का बेसब्री से इंतजार लोगों को था। फिल्मी पत्रिकायें एवम अखबार आदि सूचना दे चुके थे कि वे एक और मल्टी-स्टारर फिल्म बना रहे हैं।

उन दिनों दूरदर्शन बुधवार को चित्रहार दिखाया करता था और ज्यादातर तो इस कार्यक्रम में पुरानी फिल्मों के गाने ही दिखाये जाते थे पर कभी-कभी हाल ही में रिलीज हुयी फिल्मों के गीत भी दर्शकों को देखने को मिल जाते थे। ऐसे ही एक बुधवार के चित्रहार में एक गाना दिखाया गया। खासियत ये थी गाने की कि जिस फिल्म का यह गाना था वह अभी रिलीज नहीं हुयी थी और दो दिन बाद ही शुक्रवार को रिलीज होने वाली थी। ।

गाना था यमा यमा, फिल्म थी शान

एशियाड 82 अभी दूर था और रंगीन टेलीविजन भी घर घर में घुसपैठ न कर पाये थे पर श्वेत श्याम टीवी सेट्स पर भी गाने ने दर्शकों को उत्सुकता से भर दिया था। मोहम्मद रफी, तो ठीक हैं पर अमिताभ बच्चन के लिये राहुल देव बर्मन क्यों अपनी अलग ढ़ंग की आवाज में गाना गा रहे हैं? किशोर कुमार क्यों उपलब्ध नहीं हैं इस गाने के लिये?

ये गंजे महोदय कौन हैं जो सिंहासन पर बैठे इस समूह गीत और नृत्य का आनंद ले रहे हैं?
इनके चेहरे पर यह रहस्यमयी मुस्कान क्यों है?
शत्रुघ्न सिन्हा बंदूक के साथ क्या खोज रहे हैं?
परवीन बॉबी और राखी तो वाजिब हैं पर अमिताभ की इतने बड़े बजट की फिल्म में बिंदिया गोस्वामी क्या कर रही हैं?
माजरा क्या है?

गाने ने दर्शकों में फिल्म के प्रति उत्सुकता जगाने का काम सफलतापूर्वक निबटा दिया था। यह गाना उन गानों में से आता है जो फिल्म का प्रचार बखूबी कर सकते हैं।

बृहस्पतिवार ऐसे ही मुद्दों पर बात करते गुजरा बहुत सारे लोगों का, खासतौर पर अमिताभ बच्चन के चाहने वालों का। पिछले पाँच सालों में ऐसी भी चर्चायें रही थीं पत्रिकाओं में कि शोले में जय का किरदार निभाने का प्रस्ताव शत्रुघ्न सिन्हा के पास भी गया था और गब्बर सिंह का किरदार निभाने का प्रस्ताव डैनी के पास गया था। दोनों ही ये फिल्म कर नहीं पाये थे। अब डैनी तो नहीं पर शत्रुघ्न सिन्हा जरुर शोले वाले रमेश सिप्पी की शान में नजर आने वाले थे।

शोले में महत्वपूर्ण भूमिकायें निभाने वाले बहुत सारे कलाकार जैसे धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी बच्चन, संजीव कुमार, अमजद खान, सचिन, ए के हंगल, असरानी और जगदीप, शान में नहीं थे।

पर रमेश सिप्पी और अमिताभ बच्चन के नाम दर्शकों को सिनेमा हॉल में खींचने के लिये बहुत थे।

शुक्रवार किसी उत्सव के कारण अवकाश का दिन था और दर्शक टूट पड़े सिनेमाघरों पर जहाँ भी शान का प्रदर्शन होना था। सिनेमाघर इस फिल्म के लिये विशेष रुप से सजाये गये थे। दर्शकों की भारी भीड़ आयेगी ऐसा अनुमान लगाकर पुलिस बल का भी इंतजाम था ताकि बदइंतजामी न फैल जाये। टिकट ब्लैक में न बेचे जायें इसे रोकने के लिये एक दर्शक को एक ही टिकट बेचने का प्रबंध भी किया गया था।
फिल्म शुरु हुयी? दर्शकों को आकर्षित करने के लिये बॉन्ड सीरिज की फिल्मों जैसी शुरुआत “शान” में भी रखी गयी थी। ऊषा उत्थुप द्वारा बड़े ही आकर्षक ढ़ंग से गाये गीत “दोस्तों से प्यार किया” पर बॉडी सूट पहन कर नाचती हुयी प्लेबॉय से सम्बंधित रही केटी मिर्जा के शरीर पर फिल्म में आगे आने वाले दृष्यों की झलकें दिखायी गयीं। हिन्दी फिल्मों के दर्शकों के लिये ऐसा देखना पहला अनुभव था और गाना और कास्टिंग का ऐसा रोचक अंदाज उनकी उत्सुकता और उत्साह बढ़ाने में पूरी तरह से कामयाब था।

सिर्फ कास्टिंग ही नहीं बल्कि फिल्म के खलनायक शाकाल की पूरी अवधारणा ही जेम्स बॉन्ड सीरिज की फिल्मों की तर्ज पर बुनी गयी थी।

रमेश सिप्पी, सलीम-जावेद, अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, सुनील दत्त, शत्रुघ्न सिन्हा, परवीन बॉबी, और राखी जैसे जाने पहचाने बड़े नाम फिल्म से जुड़े हुये थे। जॉनी वॉकर भी कुछ अरसे बाद फिल्म में नजर आये थे।

एक नये अभिनेता मजहर खान को भी “नाम अब्दुल है मेरा” जैसा गाना रफी की आवाज में दिया गया था।

हिन्दी फिल्मों के हिसाब से एक खलनायक की दुनिया, मतलब उसका अडडा जहाँ वह रहता है, बसाने में जबर्दस्त पैसा खर्चा किया गया था। खलनायक के अडडे के दृष्य दर्शकों को चकित कर देने वाले थे।

पानी के अंदर खतरनाक मगरमच्छों से लड़ाई के दृष्य थे।
दम घोटने वाली गैस वहाँ थी।
हमेशा सजा-धजा रहने वाला गंजा खलनायक इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स से सजे अपने कक्ष में बैठा हुआ काली दुनिया का अपना साम्राज्य चलाता है।
जहाँ वह बैठता है उसके पीछे विशाल शीशे की दीवार के बाहर समुद्र में मछलियाँ तैरती दिखायी देती हैं।
वीडियो कांफ्रेसिंग के दृष्य वहाँ थे।
बम से टापू पर बसे जजीरे को उड़ाने के हैरत अंगेज दृष्य मौजूद थे फिल्म में।

इतना सब कुछ खलनायक के संसार में था कि फिल्म उसी सब के बलबूते चल जानी चाहिये थी। आखिरकार घोर व्यवसायिक और फॉर्मूला टाइप हिन्दी फिल्मों का दर्शक इस बात को तो सोचेगा नहीं कि इतना तामझाम सम्भालने के लिये शाकाल को बिजली/ऊर्जा कहाँ से मिलती है और बम्बई से केवल तीन सौ मील की दूरी पर स्थित टापू से वह कैसे भारत सरकार की निगाह में आये बिना जुर्म का अपना कारोबार चलाता है? ये सब बातें इतने आकर्षक दृष्यों के सामने कौन सोचेगा?

पर पहले ही शो से बाहर निकलने वाले दर्शक खुश नहीं थे। बहुत कुछ था फिल्म में पर दर्शक फिल्म से संतुष्ट नहीं थे। लगभग तय था कि फिल्म को “वर्ड ऑफ माउथ” की पद्धति के द्वारा प्रचार मिल पाने की कोई गुंजाइश नहीं थी और ऐसा ही हुआ भी और फिल्म उतनी सफलता नहीं पा पायी जितना कि अमिताभ बच्चन की फिल्में उस दौर में पाती थीं। और यहाँ तो रमेश सिप्पी और उनकी पिछली फिल्म शोले की ख्याति भी फिल्म के साथ आयी थी।

कहाँ गड़बड़ हुयी?
बहुत सारी विदेशी और देशी फिल्मों से तो शोले में भी दृष्य उधार लिये गये थे पर शोले ने कभी भी स्वतंत्र रुप से दर्शक को बाँधने और उसे भरपूर मनोरंजन देने में कोई कोताही नहीं बरती। फिर शान में ही ऐसा क्या हो गया?

आखिर उन्ही सलीम-जावेद की हिट जोड़ी ने शान को लिखा था जिन्होने शोले लिखी थी।

शान में एक स्टाइल था तो फिर शान, शोले की तरह रमेश सिप्पी की शान क्यों न बन पायी।

तटस्थ होकर देखा जाये तो शान में ढ़ेरों कमियाँ थीं और इन्ही कमियों की वजह से उस समय यह मँहगी फिल्म दर्शकों को वैसा मनोरंजन देने में नाकामयाब रही जैसा शोले ने दिया था और शोले के बाद की अमिताभ की कई फिल्मों ने दिया था।

कास्टिंग खत्म होने क बाद फिल्म शुरु होती है पुलिस अधिकारी डीसीपी शिव कुमार (सुनील दत्त) के बहादुरी भरे स्टंट दृष्यों से। ये बस ठीक ठाक स्तर वाले दृष्य हैं और बाद में घर पहुँचने पर सुनील दत्त के राखी से संवाद वाले दृष्य तो कुछ हद तक बोरियत लाते हैं। ठीक है कि शिव कुमार की ईमानदारी को स्थापित करने को दृष्य और संवाद गढ़े गये हैं परंतु वे बहुत ज्यादा प्रभाव छोड़ नहीं पाते दर्शकों के ऊपर।

अमिताभ और शशि कपूर का परिचय फिल्म में कराने वाले दृष्य जिसमें वे दोनों होटल मैनेजर युनूस परवेज़ को चूना लगाते हैं कभी भी उन्मुक्त्त किस्म की हँसी उत्पन्न नहीं कर पाते। आगे जॉनी वॉकर और बिंदिया गोस्वामी के अमिताभ और शशि कपूर के साथ के दृष्यों में भी कॉमेडी का स्तर बस औसत ही रहता है। बल्कि पूरी फिल्म में कॉमेडी का स्तर कभी भी औसत से ऊपर नहीं उठ पाता, शोले के स्तर की कॉमेडी दिखा पाना तो दूर की बात है।

होटल से रानी (बिंदु) के गले का हार चुराकर बाहर आकर अमिताभ और परवीन बॉबी के कार के अंदर वाले दृश्य में भी औसत किस्म की कॉमेडी है। बल्कि ऐसा लगता है कि अमिताभ को प्रयास करना पड़ रहा है हास्य उत्पन्न करने में उन दृष्यों में।

ऐसा कहना गलत न होगा कि शुरुआती कास्टिंग के बाद फिल्म में असली ऊर्जा आ पाती है जब गाना – “प्यार करने वाले जीते हैं शान से” शुरु होता है।

पंचम ने पूरी फिल्म में अपनी तरफ से भरपूर योगदान दिया है।

तेज रफ्तार से भागती तो है शान पर इसमें ऊँगलियों पर गिने जा सकने वाले दृष्य ही ऐसे हैं जो दर्शकों की स्मृति में जम कर बैठ जाये जबकि शोले में ऐसे यादगार दृष्यों की भरमार है।

इतने ज्यादा चरित्र फिल्म में हैं कि बहुत सारे समय तो कुछ कलाकार गायब ही रहते हैं जैसे बिंदिया गोस्वामी और जॉनी वॉकर तो बहुत समय बाद सीधे यमा यमा गाने में दिखायी पड़ते हैं।

लेखन के स्तर पर कह सकते हैं कि प्रत्येक अभिनेता को प्रस्तुत करने वाले दृष्य प्रभावी बनाने का प्रयास किया गया है परंतु ठीक ठाक और कहीं कहीं अच्छा अभिनय करने के बावजूद दर्शक किसी चरित्र के साथ बहुत देर तक रह नहीं पाते। फिल्म इतने सारे चरित्र इकट्ठे तो कर लेती है पर उनकी उपस्थिति के साथ न्याय नहीं कर पाती।

शाकाल को दर्शकों से रुबरु कराने वाला प्रथम दृष्य भी इस खलनायक के चरित्र की खतरनाक उपस्थिति को बहुत ज्यादा प्रभावी बनाने के लिये गढ़ा गया है और कुलभुषण खरबंदा अपनी विशिष्ट शैली में बोले गये संवाद से एक शहरी और नफीस किस्म के खलनायक को प्रस्तुत करने में मेहनत भी खूब करते हैं पर आगे चलकर पूरी फिल्म में शाकाल वैसा प्रभाव नहीं जमा पाता जैसा गब्बर सिंह ने शोले में किया था।

कुछ न कुछ कमी सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी की तरफ से शाकाल के चरित्र को प्रस्तुत करने में रह ही गयी वरना सलीम-जावेद मि. इंडिया में शाकाल को दोबारा से मोगाम्बो के रुप में थोड़ा और संवार कर पेश न करते।

शान के खलनायक-शाकाल, में जो कमी रह गयी थी वह मि. इंडिया में सुधारी गयी और अमरीश पुरी और शेखर कपूर की जोड़ी ने वह प्रभाव उत्पन्न किया जो रमेश सिप्पी और कुलभूषण खरबंदा शान में न कर पाये थे।

शान में दृष्यों के क्रम संयोजन में भी कुछ समस्या है। डीसीपी शिव कुमार की निर्मम हत्या हो जाती है और उनके पुत्र समान भाई रवि (शशि कपूर) और विजय (अमिताभ बच्चन), अभी अभी विधवा हुयी अपनी भाभी के साथ रहने के बजाय सुनीता (परवीन बॉबी) और रेणु (बिंदिया गोस्वामी) के साथ प्रेम लीला रचाने, कॉमेडी करने और जानू मेरी जान जैसे गीत गाते हुये दिखाये गये हैं। इस गीत को शिव कुमार की मृत्यु से पूर्व भी कहीं दिखाया जा सकता था।

फिल्म यह भी स्थापित नहीं कर पाती कि अपनी भाभी के साथ रहने का जो काम रवि और विजय को करना चाहिये उसे राकेश (शत्रुघ्न सिन्हा) क्यों कर रहा है?

फिल्म में बहुत सारे आकर्षक दृष्य हैं जैसे शाकाल के जजीरे पर हेलीकॉप्टर के पहुँचने का दृष्य, शिव कुमार के उस जजीरे से भागने का दृष्य, समुद्र तट पर कुत्तों द्वारा शिव कुमार का पीछा करने वाला दृष्य, पुलिस का रवि और सुनीता की कार की पीछा करने वाला दृष्य। प्यार करने वाले जीते हैं शान से गीत को देखें तो पायेंगे कि कैसे कैमरा निरंतर कभी ऊपर से चरित्रों को दिखाता है और अगले ही शॉट में नीचे से, इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि नृत्य करने वाले कलाकारों, कोरियोग्राफर, कैमरामैन और एडिटर का काम कड़ी मेहनत वाला रहा होगा।

परंतु जहाँ फिल्म में बहुत सारे दृष्य एकदम नये तरीके से प्रस्तुत किये गये थे वहीं “नाम अब्दुल है मेरा” वाले गाने में दशकों पुरानी तकनीक देखी जा सकती है और मजहर खान को एक जगह बैठाकर उनके पीछे स्क्रीन पर चलते दृष्यों को शूट किया गया है।

इस तरह नयी पुरानी तकनीक और अच्छाइयों और कमियों के मिश्रण से शान भरी हुयी है पर महत्वपूर्ण बात यह है कि कमियाँ फिल्म की खूबियों पर छा गयीं और उन्होने दर्शकों पर फिल्म के असर को कम कर दिया।

फिल्म में कहानी और कथानक के फैलाव के स्तर पर ही समस्या थी। शान भी व्यवसायिक श्रॆणी में आने वाली हिन्दी फिल्म है जहाँ तार्किक रुप से बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण कहानी और कथानक का समावेश किया जाना शायद आवश्यक ने समझा गया हो। शोले में खिचड़ी काम कर गयी थी परंतु यहाँ वह पक ही न पायी।

डीसीपी शिव कुमार को शाकाल साफ साफ बता देता है कि उसका जजीरा बम्बई से तीन सौ मील दूर एक टापू पर है और वे एक बार शाकाल को चकमा देने के लिये उससे कह देते हैं कि वे उससे हाथ मिलाने के लिये तैयार हैं और बस तभी फिल्म उनकी बहादुरी दिखाने के लिये उन्हे पहाड़ी से समुद्र में कूदते हुये दिखा देती है। क्या उन्हे भान नहीं था कि बम्बई पँहुचने से पहले ही शाकाल उन्हे मरवा देगा? तो कौन सी बुद्धिमत्ता उन्होने एक बुद्धिमान पुलिस अधिकारी के रुप में दिखायी? जब वे शाकाल को धोखा देने के लिये उससे हाथ मिलाने की बात कह सकते हैं तो वे ऐसा कह कर उसे धोखे में रखते हुये बम्बई भी वापिस आ सकते हैं ताकि शाकाल के खिलाफ ढ़ंग से मुकाबला कर सकें पर मसाला हिन्दी फिल्मों की कहानी और स्क्रीन-प्ले में ऐसी बातों पर गौर नहीं किया जाता।

पर दर्शकों को कमतर समझना कुछ फिल्मों को भारी पड़ जाता है और शान भी उनमें से एक है।

बिंदिया गोस्वामी के पास हेमा मालिनी और बड़ी प्रसिद्धि वाली अभिनेत्रियों जैसा नाम और स्क्रीन पर प्रभावशाली उपस्थिति नहीं थी पर केवल उन्हे ही फिल्म की असफलता का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

अमिताभ – शशि कपूर की जोड़ी ने कई सुपर हिट फिल्मों को दर्शकों को सौंपा है तो यह नहीं कहा जा सकता कि शशि कपूर के होने से फिल्म में ऐसा असर नहीं आ पाया जैसा कि शोले में धर्मेन्द्र और परवरिश और मुकद्दर का सिकंदर आदि में विनोद खन्ना के होने से आया था।

ये जरुर है कि शशि कपूर को प्रस्तुत करने में कुछ कमी जरुर रह गयी हैं। यहाँ तक कि उन्हे एक ही वेशभूषा में कई दष्यों में देखा जा सकता है जबकि उन्ही दृष्यों में उन के भाई और साथी का चरित्र निभाने वाले अमिताभ ने बदली हुयी वेशभूषायें पहनी हुयी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो शशि कपूर के पास वक्त्त की कमी रही होगी और उनकी ज्यादातर शूटिंग एक साथ ही कर ली गयी होगी या फिर उनकी वेशभूषा पर वाकई ध्यान नहीं दिया गया।

शत्रुघ्न सिन्हा अपनी अन्य फिल्मों की तरह लाउड नहीं हैं इस फिल्म में और एक दृष्य, जिसमें शिव कुमार की हत्या होने के बाद वे रवि और विजय से मिलने उनके घर पँहुचते हैं, में वे बहुत अच्छे अभिनय का प्रदर्शन करते हैं। पर तब भी उनकी उपस्थिति फिल्म में ऐसी कोई चमक पैदा नहीं करती जिससे कि फिल्म में ऊर्जा आ पाती।

कह सकते हैं कि अमिताभ समेत कोई भी अभिनेता ऐसा प्रदर्शन नहीं कर पाया जिसे बहुत प्रभावशाली कहा जा सके।

कुछ बातों में और कुछ जगहों पर फिल्म स्टाइलिश, अच्छी और मनोरंजक लगती है पर करीब तीन घंटे लम्बी फिल्म इस गुणवत्ता को पूरी अवधि में सुरक्षित नहीं रख पाती अतः इतनी लम्बी फिल्म बिखरी हुयी और अनियमित गुणवत्ता वाली फिल्म लगती है।

फिल्म के कथानक पर शोले का भी बहुत ज्यादा असर दिखायी देता है और दृष्य संयोजन में शोले की योजना उधार लेने की रणनीति अपनायी गयी है पर यहाँ दृष्य वैसा असरकारी प्रभाव पैदा नहीं कर पाते जैसे उन्होने शोले में किया था।

रमेश सिप्पी ने इतना पैसा खर्च किया, इतनी मेहनत की और वे कुछ नयी चीजें, नये स्टंट, नयी तकनीक हिन्दी फिल्मों में ला रहे थे तो उन्हे स्क्रिप्ट के स्तर पर भी और ज्यादा अच्छी सामग्री की जरुरत थी। एक कमजोर स्क्रिप्ट, जिसने खिचड़ी किस्म की सामग्री प्रस्तुत की दर्शकों के सामने, ने एक महत्वाकांक्षी फिल्म के भविष्य को पहले ही कमजोर बना दिया था।

एक बेहतर कहानी, कथानक, चरित्र-चित्रण और संवादों के अलावा फिल्म को और ज्यादा कसा हुआ सम्पादन, और बेहतर दृष्य संयोजन की व्यवस्था चाहिये थी।

अंत में फिल्म में जो सबसे प्रभावशाली तत्व लगता है वह है आर.डी.बर्मन का संगीत। उनका संगीत ही इस बड़े परंतु असफल या कम सफल प्रोजेक्ट की आन, बान और शान है।

…[राकेश]

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