व्यक्ति से बड़ी उसकी छवि होती है यह तो एक सिद्ध सी बात है और छवि अगर व्यक्ति के ऐसे विचारों से बने जो कि लाखों लोगों को प्रभावित करें या करने लगें तो व्यक्ति की छवि भी उसी अनुपात में दीर्घाकार होने लग जाती है। वास्तविकता यह भी है कि व्यक्ति विचार नहीं है। चिंतक के मानस से विचार निकल कर आते हैं और संसार में फैलते हैं पर जरुरी नहीं कि इन विचारों को जन्माने वाला व्यक्ति ताउम्र इनसे बंध कर रहे। एक चेतन और विचारशील मस्तिष्क वाला व्यक्ति तो बहुत बार बल्कि हमेशा ही अपने ही विचारों से चार कदम आगे चलता है। उसका दिमाग जड़ नहीं है कि वह पिछले साल व्यक्त किये गये विचारों से बंध कर ही शेष जीवन गुजार दे। जैसे जीवन नूतन है प्रति पल, सो यह नयी परिस्थितियाँ लेकर आता है मानव के समक्ष और ऐसी नूतनता में एक ही या कुछ ही विचारों से बंधे रह जाना ऐसे मानव को तड़पा जाता है जिसके अंदर जरा सी भी चेतना है।
दिक्कत आती है किसी व्यक्ति के किन्ही विचारों से प्रभावित होने वाले व्यक्तियों से जो अपने को उस चिंतक का अनुयायी मानने लग जाते हैं। अनुयायियों के सामने अपने प्रेरक पुरुष की एक खास छवि होती है और वे इस छवि से इतर उस प्रेरक पुरुष की कल्पना नहीं कर पाते। ऐसा ही नहीं होता कि वे दूसरे लोगों द्वारा उनके प्रेरक पुरुष की खास छवि से इतर छवि प्रस्तुत करने का विरोध करते हैं बल्कि अगर वह प्रेरक पुरुष स्वयं भी कुछ अलग करना चाहे तो ये लकीर के फकीर अनुयायी उसके नये कदमों का भी विरोध करेंगे और करते ही हैं। कभी रहा होगा वह दौर जब वे इस प्रेरक पुरुष से प्रभावित हुये होंगे पर अब वे अपने अनुयायीपने में इतने आगे निकल चुके होते हैं कि प्रेरक पुरुष नहीं बल्कि उनके जेहन में उपस्थित उस व्यक्ति की छवि ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है।
गांधी जैसे सामाजिक-राजनीतिक साधक हों या जे. कृष्णामूर्ति और ओशो जैसे आध्यात्मिक प्रकाश-पुंज, इनके जड़ किस्म के अनुयायियों को हमेशा स्वयं इनसे भी उस समय भी समस्या रही जब तक ये भौतिक शरीर में उपस्थित रहे। ये तो निरंतर नया करते रहे पर इनके अनुयायी इनकी किन्ही खास छवियों से जुड़े रहने में ही मोक्ष पाने की युक्त्ति समझते रहे।
लियो टॉल्स्टोय के साथ भी कुछ ऐसा ही हुया। अगर उनकी दो पुस्तकों, Anna Karenina और War and Peace की ही बात करें तो पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों में उनसे बड़ा गद्य और उपन्यास लेखक ढूँढ़ पाना मुश्किल है और वे एक ऐसे चिंतक रहे हैं जिन्होने दुनिया की नामचीन हस्तियों को प्रभावित किया। गाँधी भी उनमें से एक थे। अहिंसा, अहिंसक विरोध, ट्रस्टीशिप और व्यक्तिगत सम्पत्ति के विरोध के समर्थन में दोनों के मध्य पत्राचार चले। गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में टॉल्स्टोय फॉर्म की भी स्थापना की।
निर्देशक Michael Hoffman की फिल्म, The Last Station, लियो टॉल्स्टोय (Christopher Plummer) के जीवन के अंतिम वर्ष पर आधारित है।
रुस में टॉल्स्टोय के विचारों के समर्थन में लोग जुटे और उनके Vladimir Chertkov जैसे अनुयायियों ने टॉलोस्टियंस नामक एक संस्था ही गढ़ डाली। वे इस संस्था के द्वारा टॉल्स्टोय की ऐसी छवि बनाने में जुट गये जो कि टॉल्स्टोय के निजी सम्पत्ति आदि के विरुद्ध व्यक्त किये गये विचारों से उपजी थी। Vladimir Chertkov ने इसे अपना ध्येय बना लिया कि टॉल्स्टोय की छवि के द्वारा ऐसा आंदोलन खड़ा किया जाये जिसे वह पसंद करता है। उसके दिमाग में उपस्थित टॉल्स्टोय की छवि खुद टॉल्स्टोय से बड़ी थी। वह चाहता था कि टॉल्स्टोय ऐसी वसीयत कर दें जिससे कि उनके रचनात्मक कार्यों का कॉपीराइट उनसे और उनके परिवार के लोगों के हाथों से निकलकर आम जनता के हाथ में आ जाये। अपने इस ध्येय को पाने के लिये वह बहुत हद तक निर्मम हो जाता है।
उसे लगता है कि उसके लक्ष्य की राह में रोड़ा है टॉल्स्टोय की पत्नी सोफिया।
टॉल्स्टोय के प्रसिद्ध हो चुके विचारों ने उनकी एक छवि लोगों में बना दी है। बहुत सारे विचारों से टॉल्स्टोय आज भी इत्तेफाक रखते हैं और उनके समर्थन में खड़े हैं पर वे और उनकी पत्नी सोफिया (Helen Mirren) यह भी जानते हैं कि जीवन के बीते वर्षों में उन्होने इन विचारों से बंधा जीवन नहीं जिआ है बल्कि कई बार तो इन विचारों से उलट जीवन जिआ है। सोफिया को यह सब अटपटा लगता है कि लोग टॉल्स्टोय बिना ढ़ंग से जाने ही उनकी पूजा करे जा रहे हैं।
टॉल्स्टोय का संघर्ष अंदुरनी भी है और बाहरी भी। सोफिया को लगता है कि टॉल्स्टोय अब उनकी और परिवार की उपेक्षा कर रहे हैं और वह भरकस कोशिश करती है कि टॉल्स्टोय, Vladimir Chertkov (Paul Giamatti) के चंगुल से निकल जायें। सोफिया की स्थिति बेहद जटिल है। वह नहीं चाहती कि Vladimir Chertkov के बहकावे में आकर टॉल्स्टोय अपनी सारी सम्पत्ति गरीबों को दान कर दें। वह चाहती है कि परिवार की जमींदारी और सम्पत्ति बनी रहे।
शुरु में ऐसा लगता भी है कि एक वही हैं जो टॉल्स्टोय और Vladimir Chertkov के आदर्श आंदोलन की प्रगति की राह का रोड़ा है और इन सब बातों को लेकर सोफिया और टॉल्स्टोय में अक्सर कहासुनी होती रहती है। टॉल्स्टोय को मानसिक शांति चाहिये और इसलिये वह सोफिया से और दूर होते जाते हैं और सोफिया की एक दिक्कत यह भी है। पिछले कई दशकों से वह टॉल्स्टोय के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण साथी रही है और उनके हर कदम को सोफिया ने नजदीक से देखा है। टॉल्स्टोय की हर रचना के निर्माण में भागीदारी निभाई है और अब टॉल्स्टोय के दूरी बनाने की वजह से वह उपेक्षित महसूस करती है।
डेढ़-दो घंटे की फिल्म में संभव नहीं है कि टॉल्स्टोय जैसे विराट व्यक्तित्व और उनके सभी विचारों को समाहित कर लिया जाये। वे किसानों के प्रति ऐसा रुख क्यों रखते हैं, उनकी सामाजिक चेतना की जड़े कहाँ हैं आदि प्रश्न इस फिल्म की सीमाओं में नहीं आते। यह फिल्म टॉल्स्टोय के अंतिम वर्ष की कुछ बातों पर अपना ध्यान केंद्रित करती है और उन बातों के जरिये एक खास वातावरण रचने में फिल्म सफल रहती है। जिसे रुसी भाषा नहीं आती और उस दौर के रुस की बहुत ज्यादा सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक जानकारी नहीं है उसके लिये फिल्म बहुत हद तक विश्वसनीय है। ठेठ रुसी हो सकता है ऐसी कुछ बातें खोज लें जो टॉल्स्टोय के काल से कुछ समय बाद रुस में अस्तित्व में आयीं।
फिल्म का पूर्वार्द्ध मौटे तौर पर ऐसा स्थापित करता है कि सोफिया ही टॉल्स्टोय और Vladimir Chertkov के आंदोलन की राह में बाधा डाल रही है। पर फिल्म की यही खासियत भी है कि फिल्म पैंतरे बदलती है और दर्शक को सभी चरित्रों के पक्ष पता चलते हैं।
खुद टॉल्स्टोय भी समझते हैं कि वे उनके नाम पर खड़े एक आंदोलन की कठपुतली मात्र बनते जा रहे हैं। उनके युवा सहायक Valentin Bulgakov (James McAvoy) की निगाह में ये सब बातें धीरे-धीरे स्पष्ट भी होने लगती हैं। सब कुछ नजदीक से देखकर वह Vladimir Chertkov को उसके मुँह पर ही कह देता है कि वह (Vladimir Chertkov) टॉल्स्टोय की उस छवि को प्रसिद्ध करना चाहता है जो उसे पसंद है उस छवि को नहीं जो वास्तविक है और इंसानी है। Vladimir Chertkov इस हद तक अपने आंदोलन में खो चुका है कि उसे बीमार टॉल्स्टोय के ठीक होने से ज्यादा चिंता इस बात की है कि जनता के सामने टॉल्स्टोय ऐसे रुप में प्रस्तुत किये जाने चाहियें जो कि आंदोलन के लिये माफिक बैठते हों। आंदोलन के नशे में वह इस हद तक असंवेदनशील हो जाता है कि मरणासन्न टॉल्स्टोय से सोफिया को मिलने न देने के लिये तरह तरह की युक्त्ति अपनाता है।
आंदोलन, वैचारिक धरातल पर चल रही फिल्म टॉल्स्टोय और सोफिया के मध्य रिश्ते के भावुक पहलुओं को देखने का मौका भी देती है। और सोफिया का दृष्टिकोण भी समझ में आने लगता है। एक ऐसी महिला जो कभी टॉल्स्टोय के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थी उसे इस बात से समस्या होगी ही होगी कि अब वह टॉल्स्टोय के जीवन में उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही, उससे कुछ पूछा नहीं जाता, उसे कुछ बताया नहीं जाता और परिवार से बाहर के Vladimir Chertkov जैसे लोग उससे ज्यादा महत्व टॉल्स्टोय के जीवन में रखने लगे हैं। वह तो व्यक्तिगत रिश्तों में बंधी रही, घर-परिवार से बंधी रही पर टॉल्स्टोय अपने जीवन के वैचारिक पहलुओं में बहुत आगे निकल गये और वह पीछे छूटती चली गयी।
Michael Hoffman आर्ट-डिजायन, सेट्स, सिनेमेटोग्राफी, वेशभूषा, पार्श्व-संगीत और अभिनय के बेहतरीन प्रदर्शन के बलबूते टॉल्स्टोय के अंतिम साल पर आधारित एक विश्वसनीय पीरियड फिल्म रच पाने में सफल रहते हैं।
फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जो बहुत बारीकी से मानव-व्यवहार को प्रस्तुत करते हैं। ऐसा ही एक बहुत उल्लेखनीय दृष्य है – Vladimir Chertkov एक तरह से टॉल्स्टोय पर दबाव डाल रहा है कि वे अपने रचनात्मक कार्यों से कॉपी-राइट छोड़ दें। टॉल्स्टोय भी समझते हैं कि अब वे अपने नाम पर चलाये रहे आंदोलन की कठपुतली बन गये हैं। उनके घर से दूर जंगल में इंतजाम किया गया है वसीयत पर हस्ताक्षर करने के लिये जिससे कि सोफिया दखल न दे सके। Valentin टॉल्स्टोय के साथ है और वह भी नहीं चाहता कि टॉल्स्टोय साइन करें ऐसे कागजों पर क्योंकि वह समझ चुका है Vladimir Chertkov की सनक भरी मानसिकता को। एक अदद पैन की जरुरत है जिससे कि टॉल्स्टोय साइन कर सकें पर किसी के पास पैन नहीं है और निगाहें Valentin पर अटक जाती हैं। वह पैन नहीं देना चाहता पर टॉल्स्टोय उसे आँखों से इशारा करते हैं कि उसे पैन दे देना चाहिये। विवश होकर वह पैन दे देता है। सभी चरित्रों की मनसिकता को दृष्य बेहद खूबसूरती से प्रस्तुत करता है। ऐसे दृष्य फिल्म को रोचक और गहरी बनाते हैं।
Christopher Plummer टॉल्स्टोय के रुप में विश्वसनीय और प्रभावी लगते हैं। फिल्म के अंत में टॉल्स्टोय की असली फुटेज भी दिखायी गयी है और Christopher Plummer बिल्कुल टॉल्स्टोय जैसे लगते हैं, उन्होने अपनी शारीरिक गतिविधियाँ असली टॉल्स्टोय जैसी कर ली हैं।
अन्य अभिनेताओं ने भी बेह्तरीन अभिनय प्रदर्शन किया है परंतु सबसे बढ़कर फिल्म Helen Mirren के शानदार अभिनय के कारण रोचक बनी रहती है। सोफिया के चरित्र को उन्होने बेहद जीवंत बना दिया है।
जिसने एक बार भी टॉल्स्टोय को पढ़ लिया है वह उनसे हमेशा के लिये जुड़ जाता है और ऐसे लोगों के लिये उनके जीवन के अंतिम साल पर आधारित फिल्म देखना निस्संदेह रोचक सिद्ध होगा।
…[राकेश]
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