Sherni Trailer: Vidya Balan's Hide-And-Seek With Jungle Terror - A Tigress

तकरीबन तीन दशकों से “शेरनी” शब्द का सम्बन्ध श्रीदेवी और शत्रुध्न सिन्हा अभिनीत एक बेहद सामान्य और फ़ॉर्मूला छाप हिन्दी फ़िल्म से जुड़ा रहा है| अब जाकर विद्या बालन अभिनीत शेरनी फ़िल्म ने इस शब्द को सही मायने दिए हैं, इस शब्द के साथ एक सार्थक सिनेमा का सम्बन्ध स्थापित किया है|

शेरनी एक जबरदस्त फ़िल्म है| धीमी गति से चलती फ़िल्म में जंगल के रोमांचकारी जीवन और मानवीय भावनाओं की सही मात्रा घुली हुयी है| सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार, आलस, निकम्मेपन के साथ ही ईमानदारी, कठोर परिश्रम और आदर्शवाद की उपस्थिति को भी बेहद यथार्थ रूप में दर्शाया गया है| लोकेशंस इतनी असली हैं कि यही लगने लगता है कि वन विभाग की ढांचागत व्यवस्था में ही छुपा हुआ कैमरा लगाकर वहां की असलियत लोगों को दिखाई जा रही है| स्थानीय राजनीतिक हित किस प्रकार किसी भी मसले को प्रभावित करते हैं यह फ़िल्म प्रभावशाली ढंग से दिखाती है| यह अपरोक्ष रूप से दर्शा भी देती है कि मौजूदा तंत्र में विधायिका कैसी भी भयंकर किस्म की गलती करके भी साफ़ बाख निकलती है क्योंकि उसे सजा देने का कोई अधिकार असल में जनता के पास है नहीं| वही गिने चुने नेताओं को चुनाव में खडा होना है और उन्हीं में से किसी एक को जीत जाना होता है| इसलिए नेता बदलने से यथास्थिति में परिवर्तन नहीं होता|

किसी भी विषय के बारे में मीडिया आम लोगों को जानकारी देती है और इसी जानकारी के बलबूते आम लोगों की उस विषय के बारे में जानकारी बढ़ती है और एक समझ बनती है| अगर मीडिया तथ्यों को फ़िल्टर करके दिखाए, अपने अनुसार तोड़ मरोड़ कर दिखाए तो उस विषय के विशेषज्ञों को छोड़कर अन्य आम लोगों के पास सामान्यतः कोई जरिया नहीं होता सच को जान पाने का| दैनिक पात्र और मीडिया ही बताते हैं कि माइनिंग कम्पनी और स्थानीय लोगों के मध्य टकराव है| या कि माइनिंग के कारण स्थानीय लोगों का विस्थापन किया गया| विस्थापन के बाद उनका क्या हुआ, उनके जीवन कैसे चले, उनकी जीवनयापन की कौन कौन सी विधियां समाप्त हो गईं या नई कौन सी विधियां विकसित हुईं, मीडिया ये सब बातें विस्तार से कभी आम लोगों को नहीं बतायेगी| क्या विस्थापन करते वक्त माइनिंग कम्पनी द्वारा स्थानीय लोगों से किये वादे पूरे किये गए? बहधा ऐसा देखा गया है कि वन स्थलों के पास कोई भी उद्यम शुरू करने वाली कम्पनियों ने स्थानीय लोगों को विस्थापन करते हुए उन्हें उद्योग में नौकरी देने के वादे किये, फिर उन्हें चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी बनाया गया, क्योंकि वनवासियों की शिक्षा उस आधुनिक स्तर की नहीं होती सो अपने चार्टर अनुसार उन्हें ज्यादातर चौकीदारी आदि काम दे दिए जाते हैं| लेकिन यह देखा गया है कि कालांतर में कम्प्युटर आदि की बेसिक जानकारी न रख पाने के कारण धीरे धीरे उनसे इन चतुर्थ श्रेणी के पदों को भी ले लिया जाता है|

ऐसे विस्थापित पीड़ित क्या करें? सरकारें आम तौर पर लघु अवधि के लाभ और दृष्टिकोण के कारण यह नहीं देख पातीं कि दीर्घ अवधि में कम्पनियों के छल से देश का बहुत बड़ा नुकसान होता है| वनवासियों की हजारों साल की परम्पराएं ही नष्ट नहीं होतीं, बल्कि जंगल, मनुष्य और जानवर के बीच का तारतम्य भी टूट जाता है| अंधा विकास लाभ से ज्यादा हानि लेकर आता है| विकास शतरंज के खेल की तरह है जहां विकासवादियों को आगे होने वाली हर हानि को निरंतर दूर करने के प्रयास करते रहने चाहियें|

वन समाप्त होते हैं तो जंगली जानवर कहाँ जाएँ? उनके सामने खाने पीने और अंततः अपने अस्तित्व को ही बचाने की समस्या उठ खड़ी होती है| “शेरनी” में दर्शाए तथ्यों से दर्शक शिक्षित  होता है कि  शेर, टाइगर आदि हिंसक जानवरों के लिए जंगल में अकेले दुकेले घूम रहे मनुष्य भी भोजन ही हैं जैसे हिरण आदि जानवर हैं| आदमी को ग्रास बनाने से वह पूर्णतः नरभक्षी नहीं बन जाता| यह उसकी भूख का तात्कालिक समाधान हो सकता है| शिकारी की परिभाषा और समझ से मनुष्य, जंगल और जानवर के बीच के सामंजस्य को स्थापित नहीं किया जा सकता|

शेरनी, वनवासियों और टाइगर जैसे दुर्लभ होते जा रही जानवरों के जीवन के सच को प्रभावशाली ढंग से दिखाती है और बहुत से मामलों में जनता को शिक्षित भी करती है| जिम कोर्बेट के वृतांतों और ऐसे ही अन्य शिकारियों के वर्णन पढ़ कर और वन्य जीवों के संरक्षण की बात करने वाले विशेषज्ञों के लेखों को पढ़ कर भी रिहायश के पास वाले जंगलों में मानव और जंगली जानवरों के मध्य चलते निरंतर संघर्ष के बारे में वैसी समझ उत्पन्न नहीं होती जितनी समझ यह फ़िल्म – शेरनी, दे देती है| वन्य जीवन की क्या आवश्यकताएं हैं, और वहां की सदैव रहने वाली आवश्यकताओं में आधुनिक तकनीकी समय कैसे सहायता कर सकता है, इसके बारे में फ़िल्म शिक्षित करती है| वन्य जीवन के बिना ग्रामीण और शहरी जीवन भी धीरे धीरे समाप्त हो जायेंगे| विकास और वन्य जीवन संतुलन के सम्बन्ध में एक समझ यह फ़िल्म उत्पन्न करती है| कम से कम इन विषयों पर हरेक दर्शक के मन में सोचने विचारने का बीज तो बो ही देती है|

विद्या बालन साहसी हैं जो उन्होंने इस फ़िल्म को किया| पूर्वाग्रहों से घिरे पुरुष प्रधान तंत्र में कार्यरत महिला अधिकारी की भूमिका में विद्या बालन ने बेहतरीन अभिनय किया है| जानवर शेरनी को तो शिकारी गोली से मार देता है लेकिन शेरनी की तरह फंसी हुयी महिला धिकारी विद्या विन्सेंट उठ खडी होती है, भ्रष्ट तंत्र से जूझने के लिए| एक तरफ जहां राजनीतिज्ञ, सरकारी तंत्र, शिकारी और कुछ लालची और नासमझ लोग जंगल की शेरनी को फंसा कर मारने की फ़िराक में हैं वहीं यही सारा तंत्र महिला फ़ॉरेस्ट ऑफिसर विद्या के ऊपर भी शिकंजा कसते जा रहे हैं| उधर जंगल में शेरनी का शिकार होता है और इस प्रपंच के विरुद्ध खडी विद्या के विद्रोह, ईमानदारी भरे तेवरों का शिकार भी भ्रष्ट तंत्र के पोषक या उसके सामने सर झुकाने वाले आधिकारीगण कर देते हैं| उसे सजा के तौर पर फील्ड से हटाकर संग्राहलय में स्थान्तरित करके| लेकिन वहां भी विद्या का मनोबल टूटा नहीं है| जंगल की शेरनी को तो वह बचा नहीं पाई, लें अपने अन्दर की शेरनी को वह जीवित रखती है| शेरनी बॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों से अलग किस्म की है| इसमें वन्य जीवन पर वृत्त चित्र जैसी सच्चाई भी है तो एक थ्रिलर जैसा रोमांच भी और मानवीय भावों की कोमलता भी| फ़िल्म में कुछ ही क्षण व्यतीत करने के बाद दर्शक का ऐसा भूल जाना स्वाभाविक है कि विद्या बालन एक अभिनेत्री हैं और अभिनय कर रही हैं| डिवीजनल फ़ोरेस्ट ऑफिसर की भूमिका में विद्या बालन ऐसे रच बस गई हैं जैसे वह वास्तव में अपने कार्यस्थल से ही किसी वृत्तचित्र में काम कर रही हों|हिन्दी सिनेमा भाग्यशाली है कि उसे विद्या बालन, कोंकणा सेन शर्मा और कंगना रनौत जैसी तीन बेहद सशक्त्त अभिनेत्रियों की सक्रिय उपस्थिति का लाभ मिल रहा है|

विजय राज़, बृजेन्द्र काला, नीरज कबी, इला अरुण, और शरत सक्सेना जैसे जाने माने अभिनेताओं ने और अन्य अभिनेताओं एवं वनवासी कलाकारों ने सच्चाई से भरे अपने अभिनय प्रदर्शनों से बहुत ही प्रभावशाली वातावरण फ़िल्म में रच दिया है|  

दर्शक को एक तनावपूर्ण वातावरण में ढकेल कर सिनेमाई रिलीफ पाने के क्या मायने होते हैं इसे “शेरनी” के एक दृश्य से महसूस किया जा सकता है| एक “शेरनी” की ह्त्या के बाद चट्टानों के बीच से झांकते उसके दो छोटे छोटे बच्चों को देख पाने का दृश्य उपरोक्त भाव का ज्वलंत उदाहरण है|

जब एक वनवासिनी कहती है, “ ये दोनों दो मुर्गियां खा गए हैं| क्या करें बिना मां के भूखे थे”, तो दर्शक को अपने अन्दर उमड़ते भावों से इस बात का एहसास करना है कि सिनेमा कितना प्रभावी माध्यम है मानव को प्रभावित करने का|

न्यूटन” के बाद अमित मसूरकर ने एक बार फिर बेहद अच्छी फ़िल्म बनाई है|

…[राकेश]

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