किताब पर बनी फ़िल्म में यह अक्सर ही होता है कि किताब भारी पड़ जाती है और उसमें उपस्थित बातें परदे पर रूपांतरित नहीं हो पातीं| लेकिन ग्रहण कई बार किताब से ऊपर चली जाती है और किताब में संक्षिप्त में लिखे दृश्यों को गहराई भी दे जाती है और विस्तार भी|
किताब में दूसरे शहर परीक्षा देने गई मनु के नाराज होकर गलत ट्रेन में बैठ चले जाने के बाद रात में हटिया स्टेशन पर उसे ऋषि द्वारा खोजने के बाद उनके मिलन का दृश्य इतना प्रभावी नहीं जितना श्रंखला ने उसे बना दिया है, विशेषकर अंशुमन पुष्कर की संवाद और अभिनय अदायगी और वामिका गाब्बी की प्रतिक्रियाओं के बलबूते| भावनाओं को किताब में वर्णित करना आसान होता है लेकिन निर्देशक रंजन चंदेल ने अपने अभिनेताओं की सहायता से इस मुद्दे पर बार बार विजय प्राप्त की और वे किताब से कहीं ऊपर निकल गए|
हालांकि बहुत से संवाद भी सीधे किताब से ही ले लिए गए हैं लेकिन जो बदलाव किये गए हैं उनकी कोई ठोस वजह समझ नहीं आती| जैसे किताब में मनु और प्रज्ञा बेताब फ़िल्म देखने जाते हैं लेकिन यहाँ श्रंखला में दोनों सहेलियां हीरो फ़िल्म देखने जाती हैं| किताब में ऋषि का कमरा नीचे है और छाबडा परिवार ऊपर की मंजिल पर रहता है लेकिन श्रंखला इसका उलटा दिखाती है और ऋषि को छत पर कमरा दिया गया है और छाबडा परिवार नीचे भूतल पर रहता है|
अभिनय की दृष्टि से “ग्रहण” प्रभावित करने वाली श्रंखला है| पवन मल्होत्रा तो मंझे हुए खिलाड़ी हैं ही ऐसे मैच के, और उन्हें जब जब कायदे की भूमिका मिलती है और निर्देशक लोग उन्हें अवसर देते हैं फलने फूलने का, वे जादू बिखेरते ही हैं परदे पर|
उनके चरित्र के युवा काल को अभिनीत करने वाले अंशुमन पुष्कर ठोस अभिनय कर गए हैं| शक्ल में युवा मज़हर खान से दिखाई देने वाले लेकिन मज़हर खान से बहुत ज्यादा संजीदा अभिनय करने वाले अंशुमन ने “ग्रहण” में आकर्षक अभिनय किया है| २२-२३ साल के ऋषि का चरित्र जैसा सत्य व्यास की किताब “चौरासी” में वर्णित है उसका सिनेमाई रूपांतरण उन्होंने बहुत अच्छा कर दिखाया है और किताब से बहुत बड़े स्तर का चरित्र उन्होंने गढ़ दिया है|
यही काम मनु के चरित्र में वामिका गाब्बी ने किया है| पुस्तक में वर्णित मनु के चरित्र को उन्होंने कई गुना ज्यादा उभार दिया है| मनु की शरारतों, मासूमियत, और नासमझी आदि को उन्होंने सजीव कर दिया| किताब में मनु का “बड़े आये” तकिया कलाम बोलना एक रूटीन सा लगता है लेकिन श्रंखला में वामिका ने उसे सजीव, आकर्षक और लुभावना बना दिया| फ़िल्म- बुलबुल की तृप्ति डिमरी के बाद हिंदी सिनेमा में वामिका अपने नाम के अनुरूप हवा का ऐसा झोंका लेकर आई हैं जिसमें बहुत सी भूमिकाओं को संजीदा रूप से जीने की संभावना दिखाई देती है| मनु का चरित्र बचकाना प्रतीत हो सकता था लेकिन वामिका और निर्देशक के प्रयासों के कारण यह एक आकर्षक चरित्र बन कर उभरा है|
आई पी एस अमृता सिंह के चरित्र में जोया हुसैन ने भी जम कर अभिनय किया है| अमृता के चरित्र में भावनाओं का जबरदस्त संघर्ष था और उस मानसिक पीड़ा को उन्होंने बखूबी प्रदर्शित किया है| पुलिस अधिकारी के उनके चरित्र के फिल्मांकन में एक बात खटकती है| सिनेमेटोग्राफ़र कमलजीत नेगी का कैमरा पुलिस अधिकारी अमृता के शरीरशरीर पर घूमता रहता है| किसी अन्य चरित्र के शरीर पर तो कैमरा इतनी नजदीकी से भ्रमण नहीं करता| श्रंखला में कैमरे का यह प्रयास आपात्तिजनक है| कैमरे को अमृता को एक पुलिस अधिकारी की तरह से पकड़ना था न कि एक अभिनेत्री या मॉडल की तरह से जिसका बहुत जोर अपने शरीर पर हो सकता है|
आदर्शवादी पुलिस अधिकारी विकास मंडल के रूप में मो. सहीदुर रहमान भी प्रभावित करते हैं|
ग्रहण में छोटी सी भूमिका में सहर्ष कुमार शुक्ला भारी काम कर गए हैं| हिंसा से ओत प्रोत पाशविक इंसान बन चुके गुरु के रूप में वे गांधी और तमस के ओम पुरी सरीखे दिखाई देते हैं तो पश्चाताप में गुरूद्वारे में सेवा देते और ज्ञान की बातें करते हुए वे कबीर के रूप में अन्नू कपूर के अभिनय के स्तर का अभिनय प्रदर्शन करते दिखाई देते हैं| इस श्रंखला ने चरित्र की लम्बाई के अनुसार उन्हें अभिनय के क्षेत्र में भले ही छोटी उड़ान भरने का अवसर दिया हो लेकिन उंचाई के मामले में वे अच्छी उड़ान भरने में कामयाब रहे|
तेरी परछाई गीत प्रभावशाली है और उसका उपयोग भी असरदार तरीके से किया गया है|
पिछली सदी में पहले पंजाब में आतंकवाद का क़हर, फिर सन चौरासी में ऑपरेशन ब्लू स्टार, तब की भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ह्त्या और उसके बाद घटित सिख विरोधी हिंसा और लूट आदि स्वतंत्र भारत के चेहरे पर बने दाग हैं, और सामाजिक और राजनीतिक रूप से ऐसे ही दीखते होंगे जैसे धरती से चाँद के मुख पर बने दिखाई देते हैं|
“ग्रहण” में एक जगह श्रंखला की एक नायिका आई पी एस अमृता सिंह एक ऐसे कक्ष में पहुँच जाती है, जहां चारों ओर दीवारों पर चौरासी में सिख विरोधी हिंसा के शिकार सिखों की तसवीरें लगी हुयी हैं| यह बेहद सशक्त दृश्य है जिसमें हर तसवीर अमृता से ही नहीं बल्कि हरेक दर्शक और हर भारतीय से सवाल पूछती लगती है कि जो हुआ वह क्यों हुआ और निर्दोष लोग क्यों मारे गए, और कि न्याय कब मिलेगा? दोषी कब क़ानून से सजा पायेंगे?
पंजाब आतंकवाद और बाद की सिख विरोधी हिंसा पर बहुत कम फ़िल्में बनी हैं| जहां गुलज़ार साब की “माचिस” पंजाब में आतंकवाद के दौरान पुलिस की ज्यादतियों के कारण साधारण सिखों के हिंसा का सहारा लेने के अध्याय को दर्शाती है, शोनाली बोस की “अमू” चौरासी की सिख विरोधी हिंसा के पीड़ित परिवारों में से एक की बयानी करती है और हिंसा के लिए जिम्मेदार नेताओं के विरुद्ध कोई कार्यवाही न होने की बात को दर्शाती है| फ़िल्म ३१ अक्तूबर सिख विरोधी हिंसा का वर्णन दिखाती है| लेकिन उपरोक्त कोई भी फ़िल्म पंजाब में आतंकवाद क्यों फैला इस पर कोई चर्चा नहीं करती|
ग्रहण वेब सीरीज में एक चरित्र – छाबडा कहता है कि खालसा का सवाल तारीखी है| इसे समझे जाने की जरुरत है| यह चाय और पान की दुकानों पर हल नहीं होगा|
“ग्रहण” और उससे भी पहले सत्य व्यास की किताब “चौरासी” कम से कम इस बात को तो कहती है कि खालसा का सवाल तारीखी है|
गुरु गोविन्द सिंह जी ने गुरु नानक द्वारा चलाये इस नए पंथ को अन्याय के विरुद्ध उठ खड़े होने वाला सिख धर्म बना दिया और इसे भारत के साहस का गौरव बना दिया| तभी से पंजाब में हिंदू परिवारों में सबसे बड़े बेटे को सिख बनाने की परम्परा बनी रही है| ऐसे अटूट बंधन में किसने विष बेल बो दिया कि पंजाब में आतंकवाद ने पैर पसार दिए और गैर सिखों, विशेषकर हिन्दुओं को आतंकवाद का निशाना बनाया गया?
“ग्रहण” भी इस आवश्यक बात पर नहीं जाती| लेकिन सिख विरोधी हिंसा पर पिछली फिल्मों से ज्यादा बड़ा क्षेत्रफल “ग्रहण” अवश्य ही नापती है| भारत निकट के इतिहास की आवश्यक सामग्री पर पुस्तकें लिखने और फ़िल्में और नाटक बनाने में बहुत पीछे है| जैसा यूरोप और हॉलीवुड ने हॉलोकॉस्ट को फिल्मों में खंगाला है वैसा भारत अभी तक भारत पाकिस्तान के बंटवारे तक के साथ नहीं कर पाया| अंगरेजी राज के विश्लेषण हेतु भी नाम मात्र की फ़िल्में यहाँ बनी हैं| आज़ादी के बाद के इतिहास पर फ़िल्में बनाना थोड़ी टेढ़ी खीर समझा जाता है| स्वतंत्र लोकतान्त्रिक भारत में आपातकाल एक बहुत बड़ी घटना है लेकिन उसका विश्लेषण करने वाली फ़िल्में तो छोडिये उस पर लिखी किताबें भी गिनी चुनी ही मिलेंगी|
सत्य व्यास की किताब “चौरासी” कोई बहुत बड़े फलक की कथा नहीं कहती और उस पर हद से हद ९० मिनट की एक फ़ीचर बन सकती थी| वेब सीरीज के लिए ज्यादा सामग्री की आवश्यकता थी इसलिए “ग्रहण” के लेखकों, निर्माता और निर्देशक ने मूल कथा में बहुत कुछ जोड़ दिया और मूलतः सिख विरोधी हिंसा से प्रभावित एक प्रेम कथा को एक थ्रिलर का रूप दे दिया| लेकिन इस विस्तार में कुछ पेंच भी रह गए| मसलन कथा के इस पहलू को तार्किक नहीं कहा जा सकता कि झारखंड का मुख्यमंत्री बना राजनेता अपने ही संरक्षण में नेता बने संजय सिंह के विरुद्ध सिख विरोधी हिंसा की अगुआई करने की जांच करने के लिए एस आई टी का गठन करेगा जबकि उसके सामने स्पष्ट है कि संजय सिंह उसका धुर राजनीतिक विरोधी बन चुका है और उसे सत्ता से बेदखल करने के षड्यंत्र रच रहा है| एस आई टी जांच में कुछ निश्चित हो भी जाए तो संजय सिंह द्वारा अदालत में या मीडिया के समक्ष इस खुलासे को वह कैसे रोकेगा कि संजय सिंह को सिख विरोधी हिंसा करने का आदेश उसी ने संजय सिंह को दिया था? इस नयी जांच में भले ही फिर से बरसों लग जाएँ लेकिन इस मामले में संजय सिंह के फंसने से उस पर भी ख़तरा मंडराता है| श्रंखला का यह कोण अतार्किक ज्यादा लगता है| श्रंखला यह स्पष्ट करने में भी असफल है कि जब मुख्यमंन्त्री संजय सिंह को सिख विरोधी हिंसा में संलिप्ता के लिए फंसाना चाहता है तो वह संजय सिंह के दाहिने हाथ सूरज को गिरफ्तार होने के बाद क्यों जान से मरवाएगा? श्रंखला यह स्थापित नहीं करती कि मुख्यमंत्री और संजय सिंह के मध्य दुश्मनी क्यों पनपी?
तर्क की दूसरी कमी ऋषि / गुरसेवक (पवन मल्होत्रा) की गिरफ्तारी और चुप्पी साधने में है| उसकी आई पी एस बेटी का करियर तो इसी बात से प्रभावित हो जाना है कि उसका पिता बोकारो में सिख विरोधी हिंसा में लिप्त था और बाद में सिख बन कर रहता रहा| संजय सिंह का उसे धमकाना कि उसे चुपचाप सिख विरोधी हिंसा की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेनी चाहिए, गैर जरुरी कोण है|
इतने दंगाइयों में यह भी आश्चर्य की बात है कि फोटो केवल ऋषि का है जो हाथ में डंडा या लोहे की रॉड लिए खडा है| झंडू या गुरनाम. जिसने स्पष्ट रूप से कई लोगों की जानें लीं, उनके कोई फोटो नहीं हैं| सफ़ेद एम्बेसडर से शहर भर में हथियार बांटते सूरज की कोई तसवीर वह शहर में छुपा फोटोग्राफर नहीं ले पाया जिसने ऋषि की तसवीर लेकर अखबारों में छपवा दी? उसने पुलिस की निष्क्रियता की कोई तसवीर नहीं ली?
ऋषि की तसवीर का संयोग, बड़ा है| अमृता (ज़ोया हुसैन) के पास पहले ऋषि की बिना दाढी मूंछ और लम्बे केशों की केवल एक तसवीर है जो झंडू की बहन की शादी के समय ली गयी थी, फिर उसके पास ऋषि और अपने बचपन की अन्य तसवीरें कहाँ से आ गयीं, जिन्हें देखकर उसका साथी पुलिस अधिकारी विकास (मो. सहिदुर रहमान) उस पर शक करने लगता है? एक पुलिस अधिकारी होने के नाते उसे पता है किस तसवीर के आधार पर जांच आगे बढ़ रही है वह क्यों इन तसवीरों को लेकर घूमेगी?
चौरासी में बोकारो बिहार का ही एक भाग था, क्योंकि तब तक झारखंड का गठन नहीं हुआ था| चौरासी में कांग्रेस के चंद्रशेखर सिंह बिहार के मुख्यमंत्री थे| बोकारो विधानसभा से सन अस्सी से सन पिचासी तक चरण सिंह के नेतृत्व वाली जनता पार्टी (सेकुलर) के नेता अकलू राम महतो विधायक थे| संसदीय क्षेत्र के सांसद सी पी आई के ए. के रॉय थे| श्रंखला सिख विरोधी हिंसा में नेताओं की संलिप्ता दिखा रही है तो उसे स्पष्ट करना चाहिए या कम से कम संकेत देना चाहिए कि ये नेता उस समय के विधायक थे, सांसद थे, कौन थे? (गैर कांग्रेसी दल का नेता ऐसा क्यों करेगा? उसे तो इंदिरा गांधी की मौत का बदला लेना नहीं था), या कि हिंसा सीधे राज्य स्तर के नेतृत्व के अधीन हुई| झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के बुजुर्ग नेता जैसा गेटअप देकर एक श्रंखला एक काल्पनिक नेता नहीं गढ़ सकती जबकि वह सच्चे घटनाओं के ऊपर सामग्री बना रही है और घटना समाज का नासूर बन चुकी है| केवल यह डिस्क्लेमर देने से तो वास्तविक घटनाओं पर आधारित सामग्री रचने से काम नहीं चलता कि सभी पात्र काल्पनिक हैं, और संयोगवश ही समानता प्रतीत हो सकती है| किस कारण श्रंखला बनाई जा रही है? फिर तो हिंसा की पृष्ठभूमि में “सत्य व्यास” द्वारा गढ़ी गई प्रेम कथा ही पर्याप्त थी, उसे राजनीतिक रंग देकर थ्रिलर बनाने की आवश्यकता क्या थी? इस बिंदु पर सत्य व्यास की कथा का राजनीतिक विस्तार कमजोर है| लेखकों ने जांच रपटों से सफ़ेद एम्बेसडर का सन्दर्भ तो लिया लेकिन राजनीतिक व्यक्तियों की तरफ निश्चित इशारा करने में श्रंखला असफल है|
फ़िल्म में दिखाया गया कि ३१ अक्तूबर को झंडू द्वारा बलात्कार की शिकार मनु सन पिचासी में एक बच्ची को मोगा में जन्म देकर विवाह करके कनाडा चली गई| अमृता के कनाडियन निवासी प्रेमी को वह २०१६ में बताती है कि कनाडा में उसने पहले स्कूल में बच्चों को पढ़ाया अब सिर्फ घर संभालती है| कनाडा में बाहर से गए व्यक्ति को प्राथमिक शिक्षा में अध्यापन का कार्य मिल जाए यह अपवाद स्वरूप ही हो सकता है वह भी तब जब उसे बेहद अच्छी ब्रिटिश लोगों जैसी अंगरेजी आती हो, या फ्रेंच लोगों जैसी फ्रेंच आती हो और वे ईसाई धर्म को मानने वाले हों| उच्च शिक्षा में बाहर से गए अध्यापक खूब मिल जायेंगे लेकिन प्राथमिक और स्कूली शिक्षा में कनाडा का यह अघोषित नियम है कि बाहर वालों को अध्यापन कार्य में नहीं लगाया जाता| स्कूली शिक्षा के बाद जब यह तय हो जाता है कि अब बच्चों पर कोई अन्य रंग नहीं चढ़ेगा और अब विषयों के विशेषज्ञता के लिए विशेषज्ञ अध्यापकों की आवश्यकता होगी केवल तभी उन्हें अन्य देशों से कनाडा में रहने आये अध्यापकों के सुपुर्द किया जाता है| फ़िल्म का यह कोण भी कमजोर है| जिस स्तर की पढ़ाई लिखाई मनु की थी, उस स्तर से उसे कनाडा में बिना वहां के तंत्र से पढ़े कोई कायदे का काम नहीं मिल सकता था| उसे घर संभालने वाली गृहणी ही दिखा देते तो कोई हर्ज नहीं था|
इन छोटी मोटी कमियों के बावजूद “ग्रहण” एक अच्छी वैब श्रंखला है जो ऐसी हिंसा, जैसी १९८४ में हुयी, को मानवता के विरुद्ध अपराध स्थापित करने में कामयाब रहती है और दर्शक को इस भावना से भर देती है कि हिंसा पीड़ितों को न्याय मिलना चाहिए|
…[राकेश]
©
July 11, 2021 at 4:12 AM
Apka lekh padh kar series dekh dali pahle aapkee batein padh lee theen to un baton par dhyan gaya apan to ranchi mein rahe 4 saal, bokaro bhi kai bar jana hua rajnetik neta wali bat apki sahee hai dikhar rahe ho to theek nishana lagao ,ujhe bhi laga hero ke role wale ladke mein dum hai hinsa bahut dikhai hai series mein man ghinaghina jata hai ajkal ke programs mein galiyan nangapan aur hinsa dekh kar
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