कुछ बातें होती हैं जो जीवन की दिशा बदल देती हैं| अभिनेता मनोज कुमार के सिनेमाई जीवन में भगत सिंह के जीवन पर फिल्म बनाने का अवसर आया और उस एक घटना ने उनके सिनेमाई जीवन की दिशा ही बदल कर रख दी| शहीद से पहले एक अभिनेता के रूप में मनोज कुमार को दिलीप कुमार के अभिनय के साये को ओढकर अभिनय करने वाला अभिनेता माना जाता था और आज तक भी मनोज कुमार को इस बात से कभी परेशानी नहीं हुयी| लेकिन शहीद में मनोज कुमार के अभिनेता का मौलिक रूप उभर कर सामने आया| न केवल उनकी शहीद, भगत सिंह के जीवन पर बनी तमाम फिल्मों में श्रेष्ठ है बल्कि मनोज का भगत सिंह के रूप में किया गया अभिनय भी उनके अभिनय जीवन का श्रेष्ठतम प्रदर्शन है| भगत सिंह तो उस अल्पायु में ही देश की स्वतंत्रता के लिए शहीद हो गये जिस उम्र में लगातार पढ़ने वाले विधार्थी अपनी शिक्षा भी समाप्त नहीं कर पाते| साठ के दशक में करोड़ो ऐसे भारतीय होंगे जिन्होने भगत सिंह की सिर्फ तस्वीरें इधर उधर छपी देखी होंगी| मनोज कुमार ने मानो भगत सिंह को शहीद के माध्यम से पूरे देश के सामने सजीव खड़ा कर दिया|
शहीद की सफलता और उनके अभिनय को मिली प्रशंसा ने उनके सामने रचनात्मकता के नये द्वार खोल दिए और उन्होंने ‘उपकार’ का लुभावना संसार सिनेमा के परदे पर रच डाला|
पर ‘उपकार’ से पूर्व उस वक्त के हिन्दुस्तान के हालात का जिक्र जरूरी है|
1960 के दशक का जिक्र करें तो शुरआती दौर में ही सन बासठ में चीन ने भारत के साथ धोखा करके इस अहिंसक देश पर आक्रमण किया और चीन से लड़ने के लिए सैन्य रूप से और मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार न होने के कारण भारत को एक न भूल सकने वाला घाव मिला जो उस वक्त से आज तक टीसता रहता है| सन पैंसठ में पकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया और सन इकहत्तर में फिर से भारत और पकिस्तान के मध्य बंगलादेश के मुददे पर युद्ध छिड़ा| बासठ के चीन आक्रमण से देश अभी उबार भी न पाया था कि देश के पहले प्रधानमंत्री और उस वक्त के सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय नेता प. जवाहर लाल नेहरु का निधन हो गया| ये सब बातें भारत के लिए बहुत बड़े झटकों का सबब थीं| लोग पूछने लगे थे कि नेहरु के बाद कैसे भारत चलेगा?
भाषाई सवाल पर राज्यों के बंटवारे हो रहे थे| लोग तरह के तरह के झगडों में व्यस्त थे और खासकर शातिर क्षेत्रीय नेता अपने हितों की खातिर अलगाववाद को बढ़ावा देकर अपनी अपनी राजनीतिक दुकानें चलाने में व्यस्त थे| वे भारत को एक अखंड ईकाई न मानकर इसे विभिन्न टुकड़ों में बाँट कर उसे इन टुकड़ों का संघ बनाने पर आमादा थे|
ब्रेन-ड्रेन की शुरुआत ने भारत को एक बड़ा झटका दिया था, पचास के दशक के शुरू से ही भारत शिक्षा और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सा धन निवेश कर रहा थ और विज्ञान, इंजीनियरिंग, मेडिकल, और अर्थ शास्त्र आदि के बहुत सारे विधार्थी उच्च शिक्षा की खातिर अमेरिका और अन्य पश्चिम देशों में जा रहे थे| पर इनमें से बहुत ही कम वापिस भारत आते थे और अधिकतर पश्चिम देशों में ही बस जाने में व्यस्त थे| (पूरब और पश्चिम का भारत कुमार लन्दन से उच्च शिक्षा प्राप्त करके वापिस भारत आकर देश की सेवा करना चाहता है)
खाद्यान्न की कमी के संकट से लड़ते भारत को अमेरिका ने दोयम दर्जे का भीगा हुआ गेहूं भेज कर एक तरह से भारत का विपत्ति में मजाक बनाया था|
सैन्य और खाद्यान्न संकट के दौर में उस वक्त के भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने वक्त्त की जरुरत को समझते हुए ‘जय जवान जय किसान’ का जोशीला नारा गढा था|
शहीद देखने के बाद फिल्म से प्रभावित होकर शास्त्री जी ने मनोज कुमार से कहा था कि क्या वे ऐसी कोई फिल्म नहीं बना सकते जो उनके नारे ‘ जय जवान जय किसान’ की मूल आत्मा से प्रेरित हो?
फिल्म शहीद (जिसका निर्देशन उन्होंने स्वंय किया था लेकिन निर्देशक के रूप में नाम एस.आर. शर्मा का दिया गया) बनाने के बाद मनोज कुमार रचनात्मक ऊर्जा से लबरेज थे| वे अच्छा लिखते थे और अपनी कई फिल्मों जहां वे बतौर एक अभिनेता काम करते रहे थे, उनकी ओर से उनकी कई ऐसी फिल्मों में रचनात्मक योगदान रहा करता था खासकर लेखन के क्षेत्र में, अक्सर अपने संवाद वे खुद ही लिखते थे या जरुरत के अनुसार शोधित करते थे|
शहीद के बाद मनोज कुमार स्वयं भी घोषित रूप से निर्देशन के क्षेत्र में उतरने के लिए लालायित थे और शास्त्री जी की इच्छा ने उन्हें और ज्यादा प्रेरित किया और वे एक ऐसी कथा की कल्पना करने में जी जान से जुट गये जो देश के किसानों और सैनिकों के जीवन को कायदे से परदे पर दिखा सके और देश के युवाओं को प्रेरित कर सके|
समकालीन विषयों पर एक विश्वसनीय फीचर फिल्म बनाना एक कठिन कार्य है क्योंकि बहुधा तो ऐसी फ़िल्में या तो डॉक्यूमेंट्री की प्रवृत्ति की बन जाती हैं या बेहद डल किस्म की फ़िल्में बन कर उभर पाती हैं| और यहीं मनोज कुमार की बहुविध प्रतिभा ने उनका साथ दिया और वे ‘उपकार’ जैसी सशक्त फिल्म बना पाए जो आज तक लोगों को प्रेरित ही नहीं करती बल्कि उनका मनोरंजन भी करती है और किसानों और सैनिकों के बारे में गंभीरता से सोचने और सम्मान की दृष्टि से देखने के लिए दर्शक को प्रेरित ही नहीं बल्कि विवश भी करती है|
हरेक रचनात्मक व्यक्ति में एक विशेष महत्व की बात होती है और इस विशेषता से प्रभावित हो सकने वाले क्षेत्रों में वह कुछ खास चमकदार कर दिखाता है| देशभक्ति से ओतप्रोत कथानक वाले क्षेत्र ऐसे थे जहां मनोज कुमार को ज्यादा चमकना था और जहां वे अन्य क्षेत्रों से ज्यादा अच्छा काम करके दिखा सकते थे और यही उन्होंने कर दिखाया, पहले ‘उपकार’ और उसके बाद ‘पूरब और पश्चिम’ जैसी दो उत्कृष्ट फ़िल्में बना कर, जो हमेशा भारतीय सिनेमा के इतिहास में सजीव रहने वाली फ़िल्में हैं|
‘उपकार’ के माध्यम से मनोज कुमार ने ‘भारत कुमार’ नामक एक विशुद्ध भारतीय चरित्र की रचना की, जो कि देशभक्त्त है जिसे अपने देश और उसकी सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक और नैतिक विरासत पर गर्व है|
भगत सिंह ने कहा था –
“मैँ मानव हूँ और वह सब जो मानवता को प्रभावित करे उससे मेरा सरोकार है।”
और
“मैँ महत्वाकांक्षा, आशा तथा जीवन के आर्कषण से ओत – प्रोत हूँ। परन्तू आवश्यकता पड़ने पर मैँ इन सबको त्याग सकता हूँ।”
महात्मा गांधी ने जून, 1921 में ‘यंग इंडिया’ में लिखा था-
‘‘मैं नहीं चाहता कि मेरा मकान चारों ओर दीवारों से घिरा हो और मेरी खिड़कियाँ बंद हों। मैं तो चाहता हूँ कि सभी देशों की संस्कृतियों की हवाएँ मेरे घर में जितनी भी आजादी से बह सकें, बहें। लेकिन मैं यह नहीं चाहता कि उनमें से कोई हवा मुझे मेरी जड़ों से ही उखाड़ दे।’’
भगत सिंह के विशाल मानवीय सरोकार और गांधी की यह सचेत मुक्तता, और दोनों की ही मानवता के हित के लिए स्वंय के जीवन को भी बलिदान देने का विकट साहस यही सब श्रेष्ठ प्रवृत्तियां ही ‘भारत कुमार’ के चरित्र को रीढ़ प्रदान करती हैं|
भारत कुमार को अपने देश से प्रेम है पर वह अंधी देशभक्ति का कायल नहीं वरन वह उदार है और तरह की कट्टरपंथी का विरोधी है| भारत कुमार अपने देश – भारत वर्ष, जैसा ही है; – अपने में प्रसन्न, संतोषी, जो कि दुनिया में जहां कुछ भी अच्छा है उसके प्रति उत्सुक है और न केवल उसका स्वागत करता है बल्कि वह दुनिया में कहीं भी रह रहे लोगों के प्रति भी उदारतापूर्ण और खुला व्यवहार रखता है|
मानवता और भारत वर्ष का इतिहास कहीं भी यह संकेत नहीं करता कि एक देश के रूप में कभी भी भारत ने अपने सीमाओं से बाहर बसे किसी अन्य देश पर आक्रमण किया हो और उसकी स्वतंत्रता को बंदी बनाना चाहा हो| विचार और व्यवहार रखता है|
भारत कुमार भी इसी रुख को अपनाता है| उसे अपने देश, इसकी सांस्कृतिक और अध्यात्मिक विरासत से प्रेम है लेकिन वह विश्व में अन्यत्र जहां कहीं भी अच्छा है या घटित हो रहा है, उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करता है और अगर वह भारतीय जीवन शैली से मेल खाता है तो उसे अपनाने में उसे कोई हर्ज नहीं दिखाई देता|
भारत कुमार का दृष्टिकोण न तो तालिबानी है और न ही बंद दिमाग वाले कट्टर हिंदुत्व के कीटाणुओं से ग्रसित लोगों जैसा न ही किसी भी सम्प्रदाय के कट्टर लोगों जैसा| वह एक उदार और आत्मविश्वास से लबरेज भारतीय है जो सम्प्रदाय से हिंदू है, क्योंकि उसका जन्म भारत में हिंदू सम्प्रदाय में हुआ है, और वह किसी भी अन्य सम्प्रदाय और देश के खिलाफ नहीं है| वह किसी भी व्यक्ति के सम्प्रदाय को या उसकी धार्मिक/सम्प्रदायिक पहचान को बदलने में उत्सुकता नहीं रखता| उसे अपने देश से प्रेम है परन्तु इस कारण से वह अन्य किसी भी देश को नापसंद नहीं करता| उसका देश प्रेम एक स्वतंत्र बात है, जिसका अन्य देशों से कोई संबंध नहीं है| उसका देशप्रेम प्रतिक्रियात्मक नहीं है| न तो वह आक्रमणकारी है और न ही मिशनरी दृष्टिकोण में ही उसका विश्वास है| वह अपने देश की रक्षा और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए हथियार उठा सकता है पर अपने आप किसी पर उसे हानि पहुंचाने के लिए वार नहीं कर सकता|
भारत कुमार उस दौर की जरुरत था| सन साठ के दशक को हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग भी कहा जाता है| जब देश चौतरफा मुसीबतों से घिरा था तब हिंदी सिने उधोग ने एक से बढ़कर एक मधुर संगीत से भरी बेहद मनोरंजक फ़िल्में बनाईं| बल्कि पचास के दशक में देश की वास्तविक समस्यायें फिल्मों के कथानकों का हिस्सा हुआ करती थीं पर साठ के दशक में ज्यादातर फ़िल्में मनोरंजन तत्व को महत्व देने लगीं| रोमांटिक कामेडी फ़िल्में इसी दौर में सबसे ज्यादा बनीं| राजेन्द्र कुमार और शम्मी कपूर इस दशक के सफल सितारे रहे और उनकी फ़िल्में हालांकि बेहद सफल रहीं पर वे ज्यादातर हल्की फुल्की फ़िल्में हैं|
ऐसे दौर में एक ऐसे किरदार को गढना, जिसके सरोकार देश हित के, देश को एकता के सूत्र में पिरोने वाले और गरीबों की बात करने वाले, और उच्च मानवीय एवं नैतिक मूल्यों का पालन करने वाले हों, एक जोखिम भरा काम था पर मनोज कुमार की कल्पना ने ऐसा एक चरित्र रच दिया जिसने लोगों के ध्यान को भरकस अपनी ओर खींचा और आज तक भारत कुमार के चरित्र से सजी शुरुआती फ़िल्में लोगों को लुभाती हैं|
उस दौर के देश और सिनेमा की जरुरत के मुताबिक़, कलम और कल्पना के धनी मनोज कुमार ने सफलतापूर्वक भारत कुमार का चरित्र गढा| शायद यह काम मनोज कुमार के हाथों ही होना था| भगत सिंह में उनकी गहरे रूचि थी और साथ ही अन्य स्वतंत्रता सेनानियों में भी| मनोज कुमार अच्छा लिखते थे और बड़े अच्छे दृश्य गढ़ने में माहिर थे| बाद में उनकी इस विशेषता का उपयोग राज कपूर ने भी अपनी फिल्म – मेरा नाम जोकर, में किया और सत्यम शिवम सुन्दरम में उनकी सलाह ली| मेरा नाम जोकर में अपने चरित्र के संवाद मनोज कुमार ने स्वंय लिखे|
मनोज कुमार के पास गीतों के फिल्मांकन की एक विशेष दृष्टि थी| वे स्क्रीन प्ले में नाटकीय तत्वों का समावेश करने में भी माहिर थे| और सबसे बढ़कर उनके पास यह कला थी कि एक निर्देशक के रूप में वे देश के करोड़ों लोगों की जरुरत को समझ कर ऐसी बातें अपनी फिल्मों में डालें जो सम्पूर्ण देश में दर्शकों के मन को लुभा सके और सबको एक सूत्र में बांध सके|
पूरब और पश्चिम में दुल्हन चली पहन चली गीत को याद करें| भाषा के सवाल पर झगड़ रहे दर्शकों की भीड़ में पहले गीत एक माहौल तैयार करता है और जब गीत सबको अंदर तक छू गया है तब स्टेज से डफली दर्शकों की ओर उछलती है और जो पहले भाषा के सवाल पर दंगा फसाद कर रहे थे, उसे लपक कर गीत की धुन में राम कर नाचने लगते हैं| छोटी सी बात है पर इसे गीत का हिस्सा बनाना आज तक दर्शक को अंदर तक रोमांचित कर जाता है|
कहते हैं कि एक भारतीय को भारत से बाहर ले जाया सकता है पर उसकी भारतीयता को उसके अंदर से निकालना मुश्किल है| भारत कुमार ऐसे ही भारतीयों के लिए गढा गया चरित्र है जो विश्व में कहीं भी दूसरे देश में रह रहे हों पर जिनके अंदर भारत बसता है, भारत से एक अंदुरनी संबंध जीवित रहता है| भारत कुमार के चरित्र पर टिकी दो फ़िल्में ‘उपकार’ और ‘पूरब और पश्चिम’ हमेशा ऐसे भारतीयों के लिए सार्थक रहेंगीं|
वर्तमान में भारत धनी राष्ट्र नहीं है और इसे गरीब या हद से हद विकासशील देश कहा जा सकता है, ये और बात है कि यहाँ भी दुनिया के धनकुबेरों से टक्कर लेने वाले बड़े बड़े धन्ना सेठ बसते हैं पर आबादी के औसत के हिसाब से भारत एक गरीब देश ही है लेकिन इस गरीबी को सिर्फ आर्थिक क्षेत्र और संसाधनों के मामले तक ही सीमित रखना अहोगा क्योंकि बहुत मामलों में भारत सदियों से धनी रहा है| भारत दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक का मेजबान देश रहा है और इसकी अपनी एक सांस्कृतिक विरासत रही है| जहां पश्चिम कानूनी रूप से सोच विचार करता है और उनका पूरा समाज उसी ढर्रे से बंधा हुआ है, भारत की दृष्टि नैतिकता को धुरी बना कर इधर उधर विचरण करती है और नैतिकता एक व्यक्तिगत बात है क्योंकि यह कहना कतई ठीक होगा कि यह समाज बड़ा नैतिक है क्योंकि अपवाद हर जगह उपस्थित होते हैं|
जब भारत धन-धान्य से भरपूर और एक उन्नत सभ्यता को विकसित कर सकने वाला देश था तो यहाँ के ऋषि मुनि ऐसे सिद्धांत गढ़ने में अपनी वैचारिक शक्ति खर्च करते थे जो कि सम्पूर्ण मानवता के हित में थे और उनका सोच विचार ऐसा नहीं था जैसा कि वर्तमान के पश्चिम का है कि हर शोध पर पेटेंट ले लो और बाकी सबसे इसके इस्तेमाल का मूल्य वसूलो|
आज जब अमेरिका आदि देश विकास के सिरमौर देश हैं तो विकास केवल कुछ चुने हुए लोगों तक सीमित रह गया है और यह शोध का विषय हो सकता है कि भारत के बहुत से लोग और नेतागण अमेरिकी तौर-तरीकों का अंधा अनुसरण करने में फख्र महसूस करते हैं|
एक अमेरिकी व्यक्ति उतना ही अच्छा हो सकता है जितना कि एक भारतीय पर मौटे तौर पर देखा यही जायेगा कि उसका देश दुनिया में क्या फैला रहा है|
इसी तरह व्यक्तिगत स्तर पर एक चीनी आदमी बेहतरीन हो सकता है पर भारत चीन को एकल व्यक्ति के आधार पर नहीं तौलेगा बल्कि यह देखना होगा कि चीन भारत के साथ कैसा व्यवहार कर रहा है और यह कसौटी सभी अन्य उन देशों के लिए भी सच है जो किसी अन्य देश को परेशान कर रहे हैं|
कोई व्यक्ति एक कम्यूनिस्ट व्यक्ति का मित्र हो सकता है लेकिन वह व्यक्ति कम्युनिज्म के साम्राज्यवाद से प्रेरित विस्तारवादी रवैये को तो नजरअंदाज कर नहीं सकता|
जब व्यक्ति ऐसे देशों से भक्ति रख सकते है जिन्होने साम्राज्यवादी विचारधारा का पालन करते हुए दूसरे देशों पर आक्रमण करके वहाँ के अब तक स्वतंत्र रह रहे निवासियों को दास बनाया और अपने देश की भलाई के बारे में मुखर होकर सोच सकते हैं, बात कर सकते हैं, काम कर सकते हैं, और जब व्यक्ति ऐसे वादों के अंध भक्त हो सकते हाँ जिन्होने अंततः मानवता को हानि ही पहुंचाई तब भारत जैसे अहिंसक देश का निवासी देशभक्त बने तो इससे किसी को क्या हानि पहुँच सकती है?
भारत ने तो हमेशा ही आत्मालोचन की परम्परा का अनुसरण किया है लेकिन भारत में ब्रितानी हुकूमत के दौर में इस स्व:आलोचना का स्वरूप बदल गया और इसमें से अध्यात्मिक तत्व निकल गये और यह अपने स्वरूप में निपट भौतिक हो गया और यह आत्मघाती होकर यहाँ के निवासियों का नुकसान करने लगा क्योंकि लोगों की सापेक्ष देख पाने की क्षमता नष्ट हो गई या कर दी गई और स्वयं की अति-आलोचना से वे आत्मविश्वास खो बैठे|
प्राचीन भारत की श्रेष्ठ बातों पर गौरव महसूस करने से आज के भारत का कोई भला नहीं होने वाला लेकिन जो इस देश में श्रेष्ठ घटा है उसकी विरासत को सिरे से भूल जाना भी मूर्खता है|
‘उपकार’ और ‘पूरब और पश्चिम’ ने आत्म-विश्वास के पुनरुत्थान की लौ जलाने के काम में फिल्म उधोग की ओर से योगदान दिया| अमेरिका दवारा भेजे गये दोयम दर्जे के गेहूं के अपमान से पीड़ित देश ने जल्द ही हरित क्रान्ति को संभव कर दिखाया और ऐसे बड़े सपनों को पूरा करने में लगे उधमी लोगों के लिए ‘उपकार’ और ‘पूरब और पश्चिम’ जैसी फिल्मों ने प्रेरक तत्व होने की भूमिका तो निभाई ही होगी| इन फिल्मों को देखकर किसी का विश्वास भारत और भारतीयता से विमुख हुआ हो ऐसा तो संभव है ही नहीं|
दोनों ही फिल्मों की मूल आत्मा स्व: में विश्वास रखने की है| दोनों ही पश्चिम के खिलाफ नहीं हैं परन्तु भारतीयों दवारा पश्चिम की गलत परम्पराओं के दोनों फ़िल्में विशुद्ध रूप से भारतीयों के लिए हैं| भारतीयों के सरोकारों के लिये निर्मित करना और पश्चिम के विरोध के लिए रचना, दोनों बहुत अलग बातें हैं|
अंधे अनुसरण करने की प्रवृत्ति की ओर इशारा जरुर करती हैं| दोनों ही फिल्मों में भारतीयों को आत्म – विश्लेषण की यात्रा पर भेजने की सामग्री की बहुतायत थी| और आज भी दोनों फ़िल्में इस एक लक्ष्य में पूर्णतया सफल रहती हैं|
और दोनों फिल्मों के लक्ष्यों की मशाल लेकर चलता है भारत कुमार का चरित्र| भारत का भारत वर्ष के गुणों और नैतिक मूल्यों में अटूट विश्वास है और इसी अटूट विश्वास के बलबूते ‘पूरब और पश्चिम’ में अपनी प्रेयसी प्रीति (सायरा बानू), जो कि बचपन से लन्दन में पली बढ़ी है और अपने आचार व्यवहार और सोच विचार में पूरी तरह से ब्रितानी है, की माँ के यह कहने पर कि अगर भारत को प्रीति से विवाह करना है तो उसे लन्दन में बसाना होगा, वही कहता है कि वह इंग्लैंड में उच्च शिक्षा के लिए आया था, और शिक्षा प्राप्त करके उसे वापिस हिन्दुस्तान जाना होगा| बात बढते बढते इस मुकाम पर पहुँच जाती है जहां भारत के प्रेम को कसौटी पर रखा जाता है और वह कहता है कि वह विवाह के पश्चात लन्दन आकर रहने को तैयार है लेकिन उसकी शर्त है कि विवाह भारत में हो और प्रीति एवं अन्य सब उसके साथ भारत चलें एवं कुछ महीने वहाँ रहें और भारत घूमें|
उसे अखंड विश्वास है कि उसका प्रेम और अल्पावधि वाला भारत भ्रमण प्रीति और उसकी माँ के विचार बदल कर देगा| और ऐसा ही होता भी है| बड़े लक्ष्यों के लिए वह अपने लिए उस वक्त सबसे कीमती चीज को दांव पर लगाने से नहीं डरता|
उपकार में सौतेले छोटे भाई पूरण के खेती का हिसाब मांगने और खेती का बंटवारा करने की बात करने पर भारत एक ही पल में सारी जमीन से अपने को अलग कर देता है पर उसे पूरण के नाम न करके पूरण की संतान के नाम करता है ताकि पूरण जमीन बेच न पाए| वह पूरण से आग्रह करता है कि खेती की जमीन वह कभी न बेचे और न ही कभी खाली छोड़े और उसमें हमेशा खेती होती रहनी चाहिए| मूल्यों के लिए त्याग करना भारत का स्वभाव है| ऐसा मजबूत और नैतिक चरित्र हिंदी सिनेमा के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत बन गया|
पूरब और पश्चिम का प्रेरणा दायक के रूप में आलम यह है कि नब्बे के दशक और नई सदी के पहले दशक में भारत और पश्चिमी विचारधारा के टकराव को बनने वाली तमाम फिल्मों – दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे, परदेस, आ अब लौट चलें, और नमस्ते लन्दन, आदि सभी ने कुछ न कुछ पूरब और पश्चिम से उधार लिया है और भारत कुमार के चरित्र के कुछ रंग अपने अपने नायक के चरित्र के रंगों में मिलाए हैं|
काश कि मनोज कुमार आगे भी भारत कुमार के रोचक और नैतिक चरित्र को लेकर उपकार और पूरब और पश्चिम के उच्च स्तर की फ़िल्में बना पाते|
बहरहाल किसी भी रचनाकार को उसकी श्रेष्ठ रचनाओं के लिए जाना जाता है न कि उसके औसत या उससे कमतर काम के लिए और मनोज कुमार को भी भारत कुमार के चरित्र के निर्माण और शहीद, उपकार और पूरब और पश्चिम जैसी कालजयी फिल्मों के निर्माण के लिए जाना जाना चाहिए और जाना जायेगा|
…[राकेश]
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