लगभग सभी समाज सेवी संगठनों (एनजीओ) का कुछ साल पहले तक एक आम शगल हुआ करता था (बहुतों का अभी भी है और आगे भी होता रहेगा), कि जब वे मैदान में समाज सेवा करने उतरती थीं तो वे जमीन पर उपलब्ध समस्याओं के निवारण के प्रयत्न नहीं करती थीं, वे जिस क्षेत्र में काम कर सकती थीं लोगों से अपेक्षा करती थीं कि उन्हें उनके चुने गए विषय में समाज की सेवा करने दें, वे बड़ा काम कर रही हैं तो उनकी सराहना भी करते रहें| उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता था कि जहां वे काम करने जा रहे हैं वहां स्थानीय लोगों की वास्तविक समस्याएं कुछ और ही हैं वे बस प्रौढ़ शिक्षा, वृक्षारोपण, साल छः महीने में एक दो मेडिकल कैम्प, आदि इत्यादि जैसे कार्य करके स्वयं को महत्वपूर्ण संस्था मानने लगती थीं| ग्रामीण विकास जैसे मामलों को देखें तो नीति निर्धारकों का सोचना विचारना आज भी उन्हीं तौर तरीकों का मोहताज है और वहां काम करने वाले समाज सेवी संगठन भी इसी विचारधारा के कारण वित्तीय सहायता पाते रहते हैं|

फ़िल्म बनाने वाले विशेषकर सामाजिक विषयों पर फ़िल्म बनाने वाले बहुत से लोग भी उसी समाजसेवी संगठन वाले सोच विचार से पीड़ित रहते हैं और सामाजिक समस्याओं के निवारण की उनके पास अपनी ही तरह की रामबाण सरीखी दवाई होती है जिसे वे अपनी फिल्मों के माध्यम से जनता को पिलाते रहते हैं|

परेश रावल ने कभी कहा था कि परदे पर एक दुर्दांत ठाकुर बनने के लिए आवश्यक नहीं कि 44 इंच का सीना हो, कपड़ों को फाड़कर बाहर निकलने को आतुर मसल्स हों, आवश्यक तत्व चेहरे पर और आँखों में दिखाई देने चाहियें| उन्होंने इसे सिद्ध भी किया है| नाम और कब्जा के वहशियाना खलनायक से तमन्ना के ममता से भरे किन्नर, लौह पुरुष सरदार पटेल के व्यक्तित्व के रंगों की छटा बिखरने के बाद रोड टू संगम में गांधी और मानवता से प्रेरित एक मुस्लिम मोटर मेकेनिक के चरित्र में अपने अभिनय के जौहर दिखाने वाले परेश रावल ने अपनी बात को बार बार सिद्ध भी किया है|

अभिनय के क्षेत्र में उपलब्धि के मामले में तूफ़ान में परेश रावल अव्वल स्थान पर रहते हैं| उन्होंने अपनी उम्र का चरित्र निभाया तो उनके सामने फरहान अख्तर वाला संघर्ष नहीं था कि लाख फौलादी शरीर बनाने के और मेकअप के बावजूद कैमरे की नजदीकी उम्र का पता बता ही देती है और अभिनेता उस बात से अन्दर ही अन्दर लड़ता रहता है कि परदे पर चरित्र के युवाकाल में विश्वसनीय युवा दिखाई दे| फरहान अख्तर मुक्केबाजी पर बैन लगने के पांच साल बाद दिखाए जाने के बाद सहज लगते हैं| लेकिन उसके बाद केवल 90 दिनों में पांच साल से मुक्केबाजी का बिलकुल भी अभ्यास न करने वाला व्यक्ति इतनी फिटनेस प्राप्त कर लेगा कि राष्ट्रीय चैम्पियन बन जाए हास्यास्पद ही कहा जा सकता है|

या तो मनमोहन देसाई के व्याकरण वाली फ़िल्म बना लीजिये और फिर नसीब में अमिताभ के साथ सब कुछ मुमकिन है और वह दर्शकों को सताता भी नहीं| अमर अकबर एंथोनी में इन्स्पेक्टर अमर (विनोद खन्ना) से पिटाई खाने के बाद हवालात में बंद एंथोनी (अमिताभ बच्चन) का अमर से पूछना साहब आप अपुन को चार पांच मारा, अपुन एक ही पंच मारा, पन सॉलिड मारा न, परदे पर मनोरंजन का लम्हा है, पर ऐसा ही संवाद फरहान पर तूफ़ान में नहीं जमता जब वह रिंग में एक ट्रेंड मुक्केबाज से पिट कर अस्पताल आता है| नसीब और अमर अकबर एंथोनी समाज सेवा के खुद चुने हुए भार से दबी हुयी फ़िल्में नहीं हैं| वहां हिन्दू मुस्लिम समस्या पर सामाजिक प्रवचन नहीं हैं और न ही विद्वानों को मोहने के प्रयास हैं अपने सामजिक सराकारों को दिखाकर|

क्या होता अगर नाना प्रभू (परेश रावल) का चरित्र एक मुस्लिम मुक्केबाजी कोच का होता और फरहान अख्तर का अज़ीज़ अली एक हिन्दू मवाली होता?

मुक्केबाजी और स्ट्रीट फाइटर वाली तमाम हिन्दी फ़िल्में नसीब, मैं इंतकाम लूँगा, बॉक्सर, गुलाम, अपने, ब्रदर्स, बॉम्बे वेलवेट, मुक्काबाज आदि याद करें और खेल कूद वाली हाल की फ्रीकी अली, और पंगा याद करें तो लगभग सभी से तूफ़ान ने कुछ न कुछ उधार लिया है और इस सूची में फ़िल्म मलाल और सुलतान को भी जोड़ दिया जाए तो तूफ़ान का सारा ढांचा दिखाई दे जाता है कि कहाँ से कौन से तत्व लिए गए हैं| फ्रीकी अली में नवाजुद्दीन सिद्दीकी में जो सहजता दिखाई दी वह फरहान अख्तर दिखा नहीं पाए| खेल के प्रति जो जूनून और सालों बाद वापसी में परेशानियों का जैसा विश्वसनीय चारित्रिक और अभिनय का ग्राफ कंगना रनौत ने पंगा में दिखाया फरहान उसमें भी कमजोर दिखाई दिए| शरीर को चरित्र के अनुरूप बनाना पूरे अभिनय का एक पहलू भर ही है, वह तत्व पूरे अभिनय ग्राफ को नहीं संभाल सकता| उनके चरित्र की भावनाओं को सही उभारा जाता तो फरहान की मेहनत रंग लाती|

सोचने का मुद्प्रदा यह है कि एक प्रसिद्ध स्क्रिप्ट लेखक के बेटे और खुद प्रसिद्ध स्क्रिप्ट लेखक और निर्देशक होने के नाते फरहान अख्तर को अपने को दिए चरित्र में झोल नहीं दिखाई दिए? जिन्हें वे दुरुस्त करवा सकते थे| उन्होंने स्क्रिप्ट पिता जावेद अख्तर को भी दिखाई ही होगी आखिर उनसे गीत लिखवाये हैं| जिस अज्जू भाई से सब डरते हैं, कोई उसे ना नहीं बोलता उसे उसके मोहल्ले के उसी के सम्प्रदाय के साधारण लोग आकर धमकी दे जाते हैं कि सबके नियमों के अनुसार ही उसे वहां रहना पडेगा| ये व्यर्थ का दृश्य था जो अंजुम राजबली और राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने संतुलन साधने के लिए जबरदस्ती गढ़ा ताकि फ़िल्म परेश रावल के चरित्र के सोच विचार और अन्य हिन्दुओं द्वारा एक मुस्लिम को किराए पर घर न देने के दृश्य दिखाने के कारण एकतरफा न लगे|

डॉ अनन्या (मृणाल ठाकुर) की माँ की मृत्यु सांप्रदायिक कारणों से किये गए आतंकवादी बम विस्फोट में हुयी जिसके कारण उसके पिता नारायण प्रभू उर्फ़ नाना साहब (परेश रावल) मुस्लिमों से नाराज़ रहते हैं| उनके पड़ोसी और घनिष्ठ मित्र (मोहन अगाशे) एक आदर्श सेकुलर चरित्र हैं| अगर नाना प्रभू अपनी पत्नी की आतंकवादी हमले से हुयी ह्त्या से विचलित रहे हैं तो अनन्या ने तो बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया, नाना साहब के विचारों का उस पर रत्ती भर भी फर्क नहीं पडा? अनन्या तो इस समस्या भरे संसार में एक एंजेल की भांति है जिसे खुशियाँ बिखरने के लिए ही धरती पर भेजा गया है| मृणाल ठाकुर ने भरपूर कोशिश की है अपने को दिए गए एकरंगी चरित्र को सजीव करने की और कुछ ज्यादा ही ओवर कर दिए गए दृश्यों को छोड़ कर वह एक खुशनुमा चरित्र के साथ भरपूर न्याय भी करती हैं और कहीं ज्यादा अच्छे ढंग से लिखे गए चरित्रों को निभाने की अपनी दावेदारी को मजबूत करती हैं|

फ़िल्म की कथा पटकथा में जान नहीं दिखाई देती| अनाथ अज्जू को पाला स्थानीय डॉन ज़फर भाई (विजय राज, ऐसे सशक्त अभिनेता के हिस्से कुल जमा डेढ़ दोदृश्य ही आये) ने और इस नाते वह उसका कर्जदार है और उसके लिए रंगदारी किया करता है| ज़फर ने उसे स्कूल या मदरसे भेजा होगा इसके कोई संकेत नहीं मिलते| लेकिन अनपढ़ होना या कम शिक्षित होना उसके चरित्र के भाग नहीं बनाए गए हैं|

उधर अनन्या है, बिना माँ की लडकी को उसके पिता ने अकेले ही पाला है और पढ़ लिख कर वह डॉक्टर बनी है| चेरिटी अस्पताल में काम करने के अलावा भी तो उसके कुछ सपने होंगे जीवन के बारे में| वह अपने पिता के सुझाए गए एक रिश्ते से इसलिए इंकार कर देती है कि उसे शादी के बाद अमेरिका जाना पडेगा और अपने पिता को छोड़कर वह महाराष्ट्र तो क्या मुंबई से भी बाहर नहीं जाना चाहती| और पिता के लिए इतना लगाव रखने वाली लडकी मिनट भर में सीधे अपने प्रेमी के घर पहुँच जाती है| विधर्मी प्रेमी के कारण उसका पिता उसे घर से बाहर कर देता है तो वह पहले पड़ोस में रहने वाले अपने पिता तुल्य (बल्कि उन तीनों के साथ के पहले दृश्य में तो यही पता नहीं चलता फ़िल्म में कि अनन्या के पिता कौन हैं नाना साहब या उनके मित्र?) पड़ोसी, पिता के मित्र के घर नहीं जाती| बचपन से वह हजारों बार उनके घर रुकी होगी जब उसके पिता अपने कार्य के कारण घर पर उपलब्ध नहीं होंगे| लेकिन वह सीधे प्रेमी के सघन मुस्लिम बस्ती स्थित एक कमरे के घर में पहुँच जाती है|

धार्मिक अंतरों को दरकिनार कर भी दें तो स्वधर्मी और स्वजातीय मसलों में भी सड़कछाप गुंडे से केवल इसलिए एक डॉक्टर लडकी प्रेम करने लगेगी कि वह अनाथ बच्चों के प्रति संवेदनाएं रखता है? दिल का बहुत अच्छा है और उसके कहने से गुंडागर्दी से हटकर मुक्केबाजी के खेल में दिलचस्पी लेने लगा है? एक अनपढ़ गुंडे से प्रेम करने की जो यात्रा है विशेषकर अनन्या की मानसिक यात्रा वह पूरी तरह से गायब है| बस जनता से यह अपेक्षित है कि ऐसा मान ले|

चलिए मान भी ले जनता, आखिर सुभाष घई ने भी तो हीरो में स्टॉकहोम सिंड्रोम को गीतों और बांसुरी से प्रेम में बदल दिया था और पुलिस अधिकारी की शिक्षित पोती/नातिन, अपना अपहरण करने वाले एक अनपढ़ गुंडे से प्रेम करने लगी थी, इम्तियाज़ अली ने तो हाल के वर्षों में ही हाइवे में इसे दिखाया|   

प्रेम तो अंधा होता है फ़िल्म बनाने वालों के लिए तो ख़ास तौर पर क्योंकि यह एक सुविधाजनक बात है जिसकी बुनियाद पर कैसी भी इमारत बनाई जा सकती है| प्रेम के अंधे होने की बात को मान लेते हैं, अनन्या का अज्जू संग प्रेम हो गया|

अब अगली समस्या है, साथ कहाँ रहें? अज्जू के मोहल्ले वाले उसके गुंडे वाले अवतार को भूल उसे धमकी देते हैं कि अनन्या को धर्म बदलकर कलमा पढ़कर मुस्लिम बनना होगा| हिन्दू सोसायटियों में  प्रोपर्टी डीलर की सलाह होती है कि अज्जू के बारे में यह न बताया जाए कि वह एक मुस्लिम है| जबकि उससे पहले वह मुक्केबाजी में महारष्ट्र का चैम्पियन बन चुका है| टीवी पर उसकी मुक्केबाजी दिखाई गयी है| तमाम अखबारों में उसके फोटो समेत खबरे छपती रही हैं| जनता राज्य के चैम्पियन को नहीं पहचानेगी?

और जो पहचानेगी वह राज्य के चैम्पियन को किराए पर घर नहीं लेने देगी? और मुस्लिम बस्तियों के अलावा भी तो ऐसे मोहल्ले होंगे जहां मुस्लिम लोग अपने घर को किराए पर देते हैं|

आधुनिक टॉवर्स में फ़्लैट लेने के लिए पैसे चाहियें और इसीलिए राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में अज्जू का दोस्त उसे एक बुकी से मिलवा देता है जो उसके बैग में छः लाख रूपये एडवांस दे देता है मुकाबले में हारने के लिए| न अज्जू की और न उसके दोस्त की समझ में आता है कि राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में कोई व्यावसायिक मुकाबला तो है नहीं कि लाखो करोड़ों दाव पर लगे हों और यहाँ जो पैसे दे रहा है वह अज्जू को बॉक्सिंग के क्षेत्र में आगे बढ़ने से रोकने की साजिश कर रहा है| अज्जू और उसका दोस्त अपराध की दुनिया के बाशिंदे होने के बावजूद बाकी सभी मामलों की तरह इस मामले में भी अनपढ़ ही निकलते हैं और घूस लेने के आरोप में अज्जू पर बॉक्सिंग फेडरेशन 5 साल का प्रतिबन्ध लगा देती है| जिसे कोच नाना साहब ने तूफ़ान बताया था वह हल्की सी आंधी बनने से पहले ही शांत होकर नीचे बैठ गई|

डॉ अनन्या का प्रेम इतना सबल और प्रबल है कि साक्षात घूस लेते और प्रतिबंधित बॉक्सर, जिसका मुक्केबाजी के खेल में अब कोई भविष्य दिखाई नहीं देता, को बेहतर इंसान बनाने की जिद पर अड़ा हुआ है और अंततः वह उससे विवाह और निकाह कर लेती है और उसके अस्पताल की एक सीनियर नर्स (सुप्रिया पाठक कपूर) अपने घर पर किराए पर रहने के लिए कहती है|

फ़िल्म की सबसे बड़ी दिक्कत है जिस तरह से एक पिता की भावनाओं को जगह मिल पाई है अब चाहे उसमें परेश रावल के अपने शानदार अभिनय का योगदान बहुत बड़ा रहा हो, उस तरफ नायक, नायिका के चरित्रों की भावनाओं और मनोवैज्ञानिक यात्रा को उभार नहीं मिला| अनन्या की अचानक मौत भी मुक्केबाज पर कोई ख़ास असर डालती दिखाई नहीं देती| चार साल की बच्ची की क्या हालत होगी अपनी माँ के इस तरह से मर जाने से वह बेटी और पिता के मध्य चुटकलेबाजी के पीछे छिपा दी गयी| उस उम्र की बच्ची को इस बात से कोई मतलब नहीं होगा कि 90दिनों में उसके बाप को फिर से राष्ट्रीय चैम्पियन बनना है|

रंग दे बसन्ती और दिल्ली छः में राकेश ओमप्रकाश मेहरा की सामाजिक टिप्पणियाँ थोड़ा काम कर जाती हैं क्योंकि वहां चरित्र वहुत सारे हैं और उनकी उपकथाओं में मामला जम जाता है लेकिन यहाँ कुल जमा तीन मुख्य चरित्र हैं सो सारी कमियाँ मुखरता से उधड़ कर सामने आ जाती हैं| भाग मिल्खा भाग में जैसे राकेश मेहरा दिव्या दत्ता के वैवाहिक जीवन की त्रासदी को बारीकी से दिखा पाए उसकी एक छोटी सी झलक भी तूफ़ान में नहीं है|

एक खेल आधारित फ़िल्म रहती तूफ़ान तो फरहान अख्तर की शारीरिक मेहनत कायदे का ध्यान पा पाती लेकिन सामाजिक टिप्पणियों के लोभ और नायक-नायिका की भावनाओं की अनुपस्थिति ने फ़िल्म का स्तर औसत पर खींच लिया है| अगर खाली खेल आधारित रहती फ़िल्म तो अब जो अत्राकिक बातें लग रही हैं वे उपस्थित न रहतीं और फ़िल्म के स्तर को नीचे न खींचती|  फ़िल्म का गीत-संगीत पक्ष तो एक खेल फ़िल्म में खलल ही डालता है| जब कोई खिलाड़ी चरित्र मेहनत करता है अपने लक्ष्य को पाने के लिए तब पार्श्व में कोई गीत बजाकर उस भाग को भगाना अब हिन्दी फिल्मों की एक बीमारी सी बनता जा रहा है| वैसा गीत भी तो हो|

Audience Impact Assessment : औसत फ़िल्म, यू एस पी – परेश रावल और मृणाल ठाकुर, औसत से नीचे के तत्व – कमजोर और अनावश्यक तत्वों से भरी कहानी और फरहान अख्तर की मोहल्ले का विश्वसनीय दादा और कम उम्र बॉक्सर दिखने में नाकामी, बेहद साधारण संगीत जो गैर जरुरी लगता है|


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