अपनी किशोरावस्था से ही कुंदनलाल सहगल के गायन का दीवाना प्रशंसक बनने से मुकेश को दो बहुत बड़े लाभ हुए| एक तो दुःख के भाव को गायन में प्रदर्शित करने में उन्हें सहजता प्राप्त हो गई और दूसरे गीत में शब्दों के उनके उच्चारण इतने स्पष्ट हो गए कि उनके द्वारा उच्चारित शब्द सभी गीतों में माला के अलग अलग मनकों की भांति सुनाई देते हैं और अगर आँखें बंद करके ध्यान से सुनें तो जैसे लोग माला जपते रहते हैं वैसे ही एक एक शब्द को एक एक मनके की भांति व्यक्ति महसूस कर सकता है| लम्बी लम्बी पंक्तियों में भी वे इस भिन्न स्पष्टता को कायम रख पाते थे, और उनके बहुत से गीत पहली बार सुनने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इस गीत में उनके सांस लेने का विराम गीत में अलग से सुनाई देगा लेकिन वे बेहद खूबसूरती से अपने गायन की नाव को लगातार खेते चले जाते सुनाई देते हैं|

सत्तर के दशक में बहुत सी ऐसी फ़िल्में बनीं जिनके विषय उस दौर के आम चलन से विभिन्नता लिए हुए थे और ज्यादतर ऐसी फिल्मों को नए निर्देशक ही निर्देशन के लिए मिले थे और इन फिल्मों के गीतकार एवं संगीतकार दोनों ही हिन्दी सिनेमा में उस वक्त तक स्थापित और प्रसिद्ध नाम नहीं होते थे| ऐसी बहुत सी फिल्मों में मुकेश के गाये नायाब गीत मिल जायेंगे और यह भी एक गौरतलब बात है कि इन गीतों में भी ऐसे गीतों की संख्या अच्छी खासी है जो जीवन के दर्शन से भरे हुए हैं| रफ़ी तब भी सक्रिय थे और मन्ना डे पचास और साठ के दशक में ही दार्शनिकता से भरे कई गीत  गा चुके थे और वे बेहद प्रसिद्ध गीत बन चुके थे| तब भी सत्तर के दशक में ये अवसर मुकेश के पास आये और मुकेश ने हरेक ऐसे गीत को दुर्लभ श्रेणी का बना दिया|

इन दार्शनिक गीतों में दर्द और पीड़ा के भाव की उपस्थितियाँ उल्लेखनीय हैं| इन सभी गीतों में मुकेश के गायन की आवाज का टिम्बर और गायन का संजीदा सोज़ ऐसा है मानों वे खाली पेट इन गीतों को गाकर गए हैं| गायन ऐसा महसूस होता है मानों उनके पेट से ह्रदय को स्पर्श करते हुए गले से उनकी गायिकी निकल रही हो| कुछ भी खाकर गायक गायेगा तो ऐसा संन्यासी वाला भाव गीत में नहीं आ पायेगा| आश्चर्य नहीं कि सत्तर के दशक में ही मुरली मनोहर स्वरूप ने उनसे रामचरित मानस गवाई| यह गीत तो विशेषकर इस तरह से नाभि केंद्र से उठता आता प्रतीत होता है कि किसी प्राणायाम विधि का हिस्सा लगता है|

हिन्दी सिनेमा में ऐसी किवदंतियां रही हैं कि फलां गीत, फलां फ़िल्म पर प्रतिबन्ध लग गया क्योंकि उन्होंने उस दौर के युवा मस्तिष्कों और दिलों पर बेहद गहरा असर छोड़ा और उनके जीवन को विषाद से भर दिया या उनके अन्दर दुःख के भाव को गहरा दिया|

इस गीत में अवश्य ही ऐसा है कि दिल की टूटन के दौर में कोई इसे रात्री के एकांत में सुने तो उसे यही लगेगा कि मुकेश उसी के लिए गा रहे हैं और गीतकार ने उसी के भावों को तो व्यक्त किया है|

हरेक मनुष्य के जीवन में दुःख का समावेश होता ही है| बहुलता में लोग इस दुःख को कहीं भीतर ही दबाकर जीवन में अन्य संघर्षों में व्यस्त हो जाते हैं और दुःख कहीं किसी अँधेरे कोने में दबा पडा रहता है| वह बाहर भी आना चाहे तो व्यक्ति उससे बचकर निकल जाता है और उसे उभरने नहीं देता| यह गीत सप्रयास उसके उस दबे दुःख को ऐसे ही बाहर निकाल पाने में सफल हो जाता है जैसा होमियोपैथी चिकित्सा पद्यति के बारे में कहा जाता है कि क्रोनिक बीमारियों को उसकी दवाइयां पहले उभार कर बाहर निकाल देती हैं और फिर इलाज से बीमारी को ठीक करती हैं|

यह गीत दुःख का वही काँटा है जिससे भीतर दबे पड़े दुःख को बाहर निकाला जा सकता है|

इस गीत को ध्यान पूर्वक सुनने के बाद श्रोता चूंकि मुकेश को तो जानता और पहचानता ही है अतः वहां उसकी उतनी उत्सुकता नहीं रहती क्योंकि मुकेश ऐसी पिचों पर बहुत बार सेंचुरी बना चुके हैं और यह सहज स्वीकार्यता रहती ही है कि मुकेश तो ऐसा बेहतरीन गायेंगे ही, लेकिन इस गीत के गीतकार और संगीतकार के बारे में जानने के लिए संगीत के जागरूक श्रोता बैचेन हो जाते हैं जैसे कभी कमाल अमरोही की महल के गीत प्रदर्शित होने पर लोगों ने नायिका कामिनी के पीछे छिपे गायिका के असली चेहरे और नाम को खोजा होगा|

इस गीत को लिखने वाला गीतकार बहुत बड़ा कवि होना चाहिए| यह गीत या ऐसा गीत लिखना  साधारण तुकबंदी करने वाले फ़िल्मी गीतकार के बस की बात नहीं है| यूँ तो क्लिष्ट शब्दों के उपयोग के कारण इसे समझना आसान नहीं है लेकिन मुकेश का गायन श्रोता अपने गायन के प्रभाव से ही श्रोता का बहा ले जाता है और जिसे गीत के बोल भी समझ में आ जाएँ उसके लिए फिर इस गीत से मुक्ति नहीं| दुःख की नदी में डूबते तैरते इस गीत में बीच बीच में भावनाओं के ऐसे सैलाब आते हैं कि उन सैलाबों में एकांत में इसे सुनता श्रोता ऐसे बहकर बिखर सकता है जैसे लकड़ी का कोई  पुल इस पर चलते सैनिकों की पलटन के क़दमों के रेजोनेंस के कारण भरभरा कर गिर जाए| इस गीत को लिखा था कवि हरीश भादानी ने| वे फ़िल्मी कवि नहीं थे बल्कि साहित्य रचने वाले कवि थे| अगर उन्होंने इसे न लिखा होता तो फ़िल्मी गीतकारों में कैफ़ी आज़मी के पास यह जिम्मेदारी आती क्योंकि साठ और सत्तर के दशक में उन्होंने दार्शनिक भावों वाले कई गीत लिखे|

प्रेम, विरक्ति और संन्यास की धूनी की और उन्मुख होने के भावों से गहन परिचय हरीश भादानी का रहा होगा वरना ऐसा गीत वे न लिख पाते| प्रेम में ऐसी दीवानगी को ठौर शायर जॉन एलिया की शायरी या उनके द्वारा अपनी शायरी को जनता के हुजूम के समक्ष प्रदर्शित करते हुए भी देखने को मिलता है| शायद अपने जीवन काल में जॉन एलिया साहब इस गीत से परिचित हुए हों, उन्हें यह अपना ही चिर परचित गीत लगा होगा और अगर उन तक गीत नहीं पहुंचा तो गीत और उसके असली पारखी के मध्य का एक एक बहुत बड़ा रिश्ता बनने से रुक गया|

इस विलक्षण गीत को संगीतबद्ध करने वाला संगीतकार भी अद्भुत होना चाहिए| जयदेव के संगीत खजाने से तो ऐसे रत्न सहज ही मिल जाते हैं| लेकिन किसी पहले न सुने गए संगीतकार के नाम से जब ऐसा गीत सुनते हैं तो एक गजब की उत्सुकता श्रोता के मन में उठती ही है| “आनंद शंकर” नाम पढ़कर सुनकर सहज ही ध्यान रवि शंकर परिवार की तरफ जाता है और यह स्वाभाविक लगता है कि आनंद शंकर उसी परिवार के अंग होंगे और जब यह अनुमान सही निकले तो श्रोता को विश्राम वाली स्थिति प्राप्त होती है कि उदय शंकर जैसे बेहद उच्च कोटि के कलाकार का पुत्र इतना बड़ा संगीतकार न बनेगा तो बात अस्वाभाविक हो जायेगी| ऐसा रचना तो उसका स्वभाव ही होगा!

इसी फ़िल्म – आरंभ, में मुकेश और आरती मुखर्जी की गायिकी में उन्होंने बेहद खुशनुमा और रोमांटिक दोगाना बनाया और मानों उसी को संतुलित करते हुए सभी सुख दूर से गुज़रे जैसा दुःख भरा गीत रच दिया|

स्वर पक्ष और संगीत पक्ष दोनों में आनंद शंकर ने इस फ़िल्म के संगीत रचने में गजब ढाया है| वाद्य यंत्रों की सुरीली ध्वनियों का उन्होंने ऐसा सामान बांधा है जो सम्मोहित करने वाला है| संगीत की उनकी अन्य रचनाओं को सुनने पर उनके रचे संगीत को लगातार सुनने की इच्छा बढ़ती ही जाती है| वर्तमान में यह एक सुखद सहारा है कि नेट और यूट्यूब पर उनका रचा बहुत सा संगीत उपलब्ध है और संगीत प्रेमी उनके संगीत संसार में आसानी से विचरण कर सकता है|

सभी सुख दूर से गुज़रें, गुज़रते ही चले जाएँ

मगर पीड़ा उम्र भर साथ चलने को उतारू है

जीवन में सुख और दुःख के संतुलित समावेश की बात हो तो यह गीत एक प्रार्थना, भजन बन जाए लेकिन यह सुख की अल्पता और दुःख के इतने अधिक अस्तित्व की बात करता है जहां दुःख जीवन का सबसे अभिन्न अंग बन जाता है जहां व्यक्ति हर सांस के साथ दुःख का भारीपन महसूस करता है| दुःख का बोझ उसके अस्तित्व पर इतना छाया रहता है जिसमें रुदन भरे बोल ही उसके ह्रदय और कंठ से फूट सकते हैं| इन स्थितियों में इश्वर से उसका एकतरफा वार्तालाप होगा भी तो वह रुदन के माध्यम से ही होगा| गीत उस स्थिति का वर्णन करता है जहां व्यक्ति अपने जीवन की इस गति को स्वीकार कर लेता है कि उसके जीवन में सुख की जो झलकियाँ भी दिखाई देती रही हैं वे भी उससे दूर ही स्थित थीं वह उन्हें छू नहीं पाया जबकि पीड़ा और दुःख उसके नियमित साथी बन चुके हैं| या तो दुःख इतने ज्यादा आते हैं कि हरेक बात से हरेक कदम से जीवन की हरेक स्थिति से दुख की ही प्राप्ति होने लगती है या फिर किसी इतने बड़े दुःख की गहन उपस्थिति जीवन पर छा जाती है कि उसके भार और उसकी छाया तले सारा जीवन दुःख में डूब जाता है| यह ऐसा दुःख है जिसके बारे में व्यक्ति जानता है कि जीवन रहते यह दुःख दूर होने वाला नहीं है|

हमारा धूप में घर छाँव की क्या बात जानें हम

अभी तक तो अकेले ही चले क्या साथ जानें हम

कष्टों में बिताया गया जीवन सुरक्षा, स्वास्थ्य और प्रसन्नता आदि के सुख नहीं जानता| जब सभी साथ और सबसे महत्वपूर्ण साथ छूट जाएँ तो व्यक्ति को यह एहसास होना अचरज में नहीं डालता कि उसका जीवन तो एकाकी ही बीता आया है, कौन कब साथ दे पाया है, जो जीवन में साथ के लिए आशा की किरणें फूटें|

इस स्थिति में आकर गीत स्पष्ट करता है कि प्रेम के असफल होने की स्थिति से घिरे व्यक्ति के ह्रदय के भाव प्रकट हो रहे हैं|

बता दें क्या घुटन की घाटियाँ कैसी लगीं हमको

सदा नंगा रहा आकाश क्या बरसात जानें हम

दुखियारा, विषाद की स्थितियां देख चुकने के बाद यही तो सोचेगा और कहेगा कि दुःख की घाटियों में सबसे नीचे स्तर पर बिठाये गए समय के एहसास किससे किसा तरह साझा किये जा सकते हैं? उन्हें या तो उनमें डूबा रहकर बस महसूस किया जा सकता है या किसी प्रेरणा से संघर्ष करके उनसे उबरा जा सकता है|  

जो खुले आकाश के नीचे जीवन बिताते रहे हों उनके लिए मौसम के बदलाव सुखद अनुभूतियाँ नहीं लाते| जिस व्यक्ति और आकाश के मध्य घर का आवरण न हो उसे बरसात वैसे हे प्रभावित नहें करेगी जैसी उस व्यक्ति को जिसके सर पर किसी भी किस्म की छत हो| प्रेम में जिसने घर बसाने के सपने देखे, उनके प्रति आशा से भर गया उसे ही बरसात के रूमानी ख्याल गुदगुदाएँगे, जिसे पेम में दुख और असफलता मिल गई हो, या मिल रही हो उसके लिए प्रेम की बरसात भी एक अकल्पनीय बात है|

बहारें दूर से गुज़रें गुज़रती ही चली जाएँ

मगर पतझड़ उम्र भर साथ चलने को उतारू हैं

सभी सुख दूर से गुज़रें गुज़रते ही चले जाएँ

व्यक्ति के सम्मुख जीवन में दुःख आने के इतने उदाहरण आ जाते हैं कि उसे विश्वास आ जाता है कि बहारें उसके जीवन में फूल नहीं खिला पाएंगी, जो थोड़ी बहुत खूबसूरती उसके जीवन में खिलने की कोशिश करती है उसे भी पतझड़ छीन ले जाएगा| और दुःख के आक्रमण का यह सिलसिला जीवन रहते कायम ही रहना है|

अटारी को धरा से किस तरह आवाज दे दें हम

प्रेम में असफलता के कारण जो वैसे ही बेहद नीचे स्थान पर खडा हो वह महल की अटारी पर खडी प्रेमिका को आवाज कैसे दे पायेगा| आवाज दे पाने की उसकी स्थिति होती तो वह अटारी पर और वह नीचे घाटी में न खड़ा होता बल्कि दोनों साथ में किसी एक साझे धरातल पर खड़े मिलते| संघर्ष भी प्रेमी वहीं कर सकता है जहां प्रेमिका का साथ मिलना निश्चित हो| या जहां व्यक्ति ने प्रेमिका को अपने संग प्रेम से निकल अजाने की स्थिति को स्वीकृति दे दी है यह जानते हुए भी कि उसकी अपनी ज़िंदगी तो अब अंधकार में ही डूबी रहनी है, वहीं वह पुकार नहीं सकता प्रेमिका को|

मेंहदियां पाँव को क्यों दूर का अंदाज दे दें हम

जीवन में छाये अँधेरे को जानते बूझते स्वीकार करने वाले व्यक्ति के सामने त्याग की वह घड़ी भी आ जाती है जहां उसे अपने अगले कदम का तो निश्चित पता है लेकिन वह विवाह करने जा रही प्रेमिका को परेशान नहीं करना चाहता| वह उसकी मेहंदी में अपने रक्त्त की लालिमा घोलना नहीं चाहता|

इस गीत में अंतरों में जिस तरह तुलनाओं और उपमाओं का उपयोग किया गया है वह इसे बेहद उच्च कोटि का गीत बनाता है|

मेंहदियां पाँव को क्यों दूर का अंदाज दे दें हम

किसने इससे पहले कभी ऐसी पंक्ति किसी फ़िल्मी गीत में लिखी होगी?

मेंहदी रचे पांवों वाली को क्यों व्यक्ति ऐसे संकेत दे दे कि वह बहुत दूर जाने वाला है और प्रेमिका की विदाई उसके लिए अंतिम विदाई ही साबित हो सकती है, हो ही जायेगी|

चलें शमशान की देहरी वही है साथ की संज्ञा

सुख और जीवन दोनों हमेशा ही आँख मिचौली खेलते रहते हैं ये तो दुःख और मृत्यु ही होते हैं जो सधे क़दमों से आकर अचूक निशाना लगाकर आक्रमण करते हैं और निश्चत सफलता पाते हैं| “शमशान की देहरी” और “साथ की संज्ञा” ऐसी उपमाएं किसी हिन्दी फ़िल्मी गीत में देखने सुनने को नहीं मिलेंगीं| वैरागी परम्परा का जिसे ज्ञान न हो वह ऐसी बातें नहीं लिख पायेगा| मृत्यु की मनुष्य के संग नियमित बैठक को गहराई से देखने वाले किसी कवि के कवित्त में ही ऐसा भाव आ सकता है| “शमशान की देहरी” की ऐसा खूबसूरत सत्य समाहित है जिसके दर्शन मात्र से शरीर में झुरझुरी उत्पन्न हो जाए|   

बर्फ के एक बुत को आस्तां की आंच क्यों दें हम

“मोहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का

उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले”

ग़ालिब ने जो मार्के की बात लिखी उसी के दुखद अध्याय की इन्तेहा को यह गीत दर्शाता है

बर्फ के एक बुत को आस्तां की आंच क्यों दें हम

शमशान की देहरी” की तरफ कदम बढ़ा रहे अपने मृतप्राय: प्रेम के वजूद को वह प्रेमिका की दहलीज से झूठी आशा की किसी रोशनी से जिलाना नहीं चाहता| जो स्थिति बन गई है उसके बाद प्रेमिका के  दरवाजे की चौखट से वह कोई ऐसा सहारा नहीं लेना चाहता जिससे उसे क्षणिक आशा बांध जाए और वह उसे सुखद भविष्य की क्षीण सी ज्योति समझ बैठने की भूल करे|  

आस्तां की आंच” से एक लाजवाब उपमा है|

हमें अपने सभी बिसरे बिसरते ही चले जाएँ

मगर सुधियाँ उम्र भर साथ चलने को उतारू हैं

प्रेम में असफल व्यक्ति, जिसने ऐसे हालात बार बार देखें हो कि जिससे उसने प्रेम किया वह या तो उससे छोड़ कर चला गया या उसे भूल गया, लेकिन न तो वह उन्हें भूल पाया और न उनकी यादें उसका साथ छोड़ पाती हैं, नितांत अकेला पड़ जाने की विवशता से भी गुज़र सकता है| बार बार अकेला ही पड़ जाने की स्थिति एक नियमित तरीका बन जाए जीवन का तो इस जीवन को कितना ढो पायेगा?

बिसरे, बिसरते सुधियाँ, अगर तीनों शब्द किसी अन्य हिन्दी फ़िल्मी गीत में पढने सुनने को मिलें हों तो अचरज की बात होगी| हरीश भादानी ने हिन्दी फ़िल्मी गीतों के संसार से अपने इस गीत से समृद्ध किया है|

सुखों की आँख से तो बांचना आता नहीं हमको

सुखों की साख से तो आंकना आता नहीं हमको

शब्दों के उपयोग अंतरों में बार बार लाजवाब कर देते हैं| सुख व्यक्ति के जीवन में कभी भी उस मात्रा में आये ही नहीं कि उसकी ऐसी कोई द्रष्टि विकसित हो पाती जहां वह जीवन को सुख की आँख से देख पाता, समझ सकता, आशा भरे स्वप्न देख पाता| सुख आये होते जीवन में तो घनाओं का आंकलन वह उस आधार पर कर सकता था कि इस घटना से क्या मिला क्या खोया| उसने मिलना तो देखा ही नहीं, खोना ही उसके जीवन का नियमित तत्व है और दुःख के एकमात्र कोण से उसे बातों को देखना समझना आता है|

चले चलते रहे हैं उम्र भर हम पीड की राहें

सुखों की लाज से तो ढांपना आता नहीं हमको

पीड़ा की अधिकता अगर व्यक्ति ने अब तक के जीवन में झेली हो तो वह लोगों को यह भ्रम नहीं दे सकता कि उसके जीवन में सुख नाम का भी कोई खोल है| वह यह झूठी बात नहीं बोल सकता कि असल में उसके घर की ड्योढी पर भी सुख नाम का पर्दा लटका हुआ है|  

सुखों की आँख” “सुखों की साख” और “सुखों की लाज” तीनों उपमाएं किसी भी गीत में भाषा के बेहतरीन शब्द विन्यास के उदाहरण हैं|

निहोरे दूर से गुज़रें गुजरते ही चले जाएँ

मगर अनबन उम्र भर साथ चलने को उतारू है

किसी गीतकार की कितनी प्रशंसा की जा सकती है? लेकिन इस गीत में लगभग हर पंक्ति में शब्दों के अभूतपूर्व प्रयोग से हरीश भादानी सम्मोहित कर लेते हैं| निहोरे शब्द क्या किसी और गीत में पढ़ा या सूना गया इससे पहले या बाद में? बाद में तो इन शब्दों के उपयोग की किसी गीतकार की हिम्मत भी नहीं हुयी होगी नहीं तो उन पर हरीश जी की नक़ल करने का स्पष्ट सा आरोप लगता ही|

जिनसे घनिष्ठता थी, जिनके लिए व्यक्ति ऐसे जिया जैसे उनके सभी मसले उसके अपने थे, जिनकी समस्याओं को उसने अपनी समझ उन्हें दूर करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी और बार बार लगाता रहा और लोग भी जब उससे कृतज्ञता न दिखा कर उससे अनबन कर बैठें और उसी अनबन और अलगाव को सारे समय अपने और उस व्यक्ति के मध्य में रखें तो ऐसा व्यक्ति कहाँ शरण ले?

या तो विरक्त हो संन्यास की दिशा में बढ़ जाए या दुःख से बोझिल जीवन को विवशता में ढोता रहे, या फिर से किसी झूथे सम्बन्ध का सहारा ले आशावाद पाल ले, या कि इस सारे नाटक का ही पटाक्षेप कर दे|

दुनिया तो उसके चारों विकल्पों को अपनी निगाहों, अपने चश्मों और अपनी समझ से ही देखेगी| उसके सच को वैसा ही भुगतने वाले ही जान पाएंगे|

कोविड संक्रमण के काल में जब लोग अपने प्रियजनों को खोते या बेहद कष्ट झेलते देखते जा रहे हैं तब इस गीत के दुःख के भाव का मुकाबला कम ही गीत कर सकते हैं|


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