फुटपाथ पर तीन छोटे बच्चों के साथ बैठे एक बुजुर्गवार, जॉली वकील (अरशद वारसी) से कहते हैं और बहुत से दर्शक अपने भारत देश की इस विभीषिका पर शर्म से जमीन में गड़ने लगेंगे|
मूत्रालय और शौचालय, यही तो बना दिया है हमने अपने देश को| प्राकृतिक संसाधनों और खूबसूरती से भरे देश में सर्वत्र सिर्फ और सिर्फ गन्दगी पसरी रहती है और बात सिर्फ सडकों पर, नालों में, मैदानों में, पहाड़ों पर, नदियों में, और घरों के बाहर और अंदर फ़ैली पडी गन्दगी की ही नहीं है, गन्दगी हमारे देश के हरेक क्षेत्र में घर बसा चुकी है| क्षेत्र चाहे शिक्षा का हो, स्वास्थ्य का हो, सरकारी हो, अर्द्ध सरकारी हो या निजी, कुटीर उधोग हो या बहुत बड़े स्तर का उधोग, भ्रष्टाचार रूपी गन्दगी ने सबको काले रंग में पोत डाला है| सोच-विचार और व्यवहार के स्तर पर देश का बहुमत मूत्रालय और शौचालय का ही प्रतिनिधि हो चुका है| फर्क सिर्फ इतना है कि ये सुविधाएँ मनुष्य के शरीर से निकली गन्दगी को एकत्रित करती हैं जबकि देशवासियों की अंदुरनी और बाहरी गन्दगी सब तरफ फैलती ही जा रही है|
“न्याय” पाना किसी भी मनुष्य का मूलभूत अधिकार है क्योंकि एक सभ्य समाज में यही वह प्रणाली है जो उसे संतुष्टि देकर उसके साथ हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए हैवान बनने से रोक सकती है पर कितना भी झूठ बोला जाए देश में सभी इस बात को मानते हैं कि इस देश में आम आदमी के लिए क़ानून से न्याय पाना लगभग असंभव हो चला है| क़ानून धन और रसूख वाले लोगों की बपौती बन चुका है| अपराध तो सभ्य से सभ्य समाज में भी होते रहे हैं और हमेशा होते रहेंगे| क़ानून का काम है पीड़ित को न्याय देकर दिलासा देना और शोषक अपराधी को उचित दंड देकर बाकी लोगों के लिए मिसाल कायम करना ताकि बहुत सारे लोग अपराध करने की ओर अग्रसर न हों|
वे लोग जो अपराध, कानून, और दंड की प्रक्रिया से परिचित हैं वे भली भांति जानते हैं कि अपराध के होने और अपराध होने के सिद्ध किये जाने के बीच में बहुत बड़ा फासला है और इसी फासले के मध्य किस्म-किस्म की दलालियाँ होती हैं और पीड़ितों को न्याय से दूर रखा जाता है, निर्दोषों को दंड दिलवाया जाता है और रसूख वाले अपराधी खुले सांड की तरह समाज में घूम कर अपराध की पुनरावृत्ति करने में मशगूल रहते हैं|
अपराध होने के बाद पीड़ित के लिए क़ानून के दरवाजे पर दरख्वास्त देने के लिए उसे सबसे पहले पुलिस विभाग में उस अपराध के बारे में रिपोर्ट दर्ज करानी होती है और आम आदमियों का बहुमत इस प्रथम कदम पर ही हांफने के लिए मजबूर कर दिया जाता है| वकील इस बात को जानते हैं और कई बार अपने मुवक्किल से कह भी उठते हैं कि मुक़दमे की तकदीर तो तफ्तीश करने वाला पुलिस अफसर थाने में ही तय कर देता है जब वह रिपोर्ट लिख रहा होता है और उससे आगे का काम तफ्तीश करने वाला पुलिस अधिकारी कर देता है और केस अगर यहीं पक्षपातपूर्ण प्रवृत्ति अख्तियार कर लेता है तो आँखों पर पट्टी बांधे खड़ी क़ानून की मूर्ति के पास बैठा जज कुछ खास कर नहीं पाता|
फिल्म में एक न्यायाधीश त्रिपाठी जी (सौरभ शुक्ला) कहते भी हैं,
“मुकदमें की पहली तारीख को मुझे पता होता है कि कटघरे में खड़ा आदमी अपराधी है या नहीं और मैं उन खास सुबूतों का इंतज़ार करता रहता हूँ जो उसे अपराधी साबित भी करेंगे, पर वे सूबूत अदालत के सामने लाये ही नहीं जाते और मेरे हाथ बंध जाते हैं क्योंकि मुझे तो प्रस्तुत साक्ष्यों की बिना पर ही मुक़दमे का फैसला सुनाना पड़ता है|”
देश की राजधानी में पुलिस विभाग के एक सबसे बड़े अधिकारी का लफंगा और अपराधी प्रवृत्ति का कुपुत्र अपने कालेज में दूसरे राज्य से आयी लडकी से अक्सर छेड़खानी करता है और कालेज प्रशासन शिकायत करने के बावजूद इस गुंडे के कृत्यों पर लगाम नहीं लगा पाता क्योंकि उसका बाप पुलिस का अधिकारी है| बुलंद हौंसले के साथ पुलिस वाले का कुपुत्र लड़की को सबक सिखाने के लिए उसका बलात्कार कर उसे मार डालता है और बाप अपने ऐसे अपराधी बेटे को कानूनी प्रक्रिया को तोडमरोड कर बरी भी करवा लाता है| सारा देश हतप्रभ हुआ देखता रहता है कि किस जंगल राज में लोग रह रहे हैं| और ऐसा एक किस्सा नहीं है| पुलिस अधिकारियों के, मंत्रियों के, नेताओं के, गुंडों के, सफेदपोश माफियाओं के, और अन्य तरह के शक्तिशाली बाहुबलियों के कुपुत्र ऐसे कारनामे लगभग रोजाना की दर से देश में कहीं न कहीं करते ही रहते हैं और क़ानून का मजाक बनता रहता है और देश असहाय खड़ा देखता रहता है|
कहते हैं कि ईमानदार है अगर आदमी, तो वकालत के पेशे में फाके करेगा क्योंकि ईमानदार वकील को उसके साथी, पुलिस और न्याय प्रणाली ही बर्दाश्त नहीं करते| क़ानून के महल में हर कदम पर भ्रष्टाचार व्याप्त है और ऐसी भी जनता है जो बेटिकट पकड़ी गई और ऐसे लोगों ने कई कई साल हिरासत में ही बिता दिए और उनकी पेशी तक नहीं हुई| ऐसे भी लोग हैं जिन्होने सरे बाजार लोगों के क़त्ल किये पर वे क़ानून को ठेंगा दिखाकर बाहर घूमते रहे|
वकीलों में भी विशेषज्ञ हैं और बहुत सारे वकील जमानत कराने के काम में माहिर हैं और वे अपने मुवक्किलों से साफ़-साफ़ कहते पाए जाते हैं कि इतना रुपया लग जाएगा पर आपकी बेल हो जायेगी| अब यह जमानत कैसे होती है इसके लिए पी.एच.डी करने की जरुरत तो है नहीं|
देश में क़ानून की बुरी दशा पर निर्देशक सुभाष कपूर ने व्यंग्यात्मक प्रारूप वाली फिल्म बनायी है वैसे तो फिल्म में प्रेम और भावनाओं का भी समावेश है पर कुल मिलाकर फिल्म को सोशल सेटायर की श्रेणी में ही गिना जायेगा| फिल्म में क़ानूनी प्रक्रिया की कमियों की तरफ उंगली उठाई गई है| फिल्म दिखाती है कि पुलिस विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों की सेवायें लेकर कैसे एक धनी वकील राजपाल (बोमन ईरानी) अपने मुवक्किल, जो कि एक बेहद सम्पन परिवार का इकलौता वारिस है, और जिस पर फुटपाथ पर सोये हुए 6 लोगों के ऊपर लैंड क्रूजर चढ़ा कर उन्हें मार डालने का आरोप है, अदालत में यह सिद्ध कर देता है कि एक्सीडैंट लैंड क्रूजर से नहीं ट्रक से हुआ है| वह निचली अदालत से अपने मुवक्किल को सकुशल बरी करा लाता है|
राजपाल के खिलाफ मुकदमा लड़ रहा जॉली जज से कहता भी है,
“जनाब आप इस मुकदमें को छः महीने चलने दीजिए, राजपाल साहब साबित कर देंगे कि एक्सीडेंट ट्रक से नहीं ट्रेन से हुआ था, एक साल और चलने दीजिए और ये सिद्ध कर देंगे कि यह आदमी सदाकांत मिश्रा नहीं शाहरुख खान है…और आपको मानना पडेगा|”
जजों के भ्रष्ट आचरण पर सीधे सीधे उंगली उठाते हुए जॉली सीधे सीधे जज से ही कहता है,
“जनाब आप बुरा मत मानना पर बाहर आपका मजाक उड़ाया जाता है, आपका रेट लगता है, आपकी इज्जत खतरे में है जनाब, कुछ कीजिये|”
कुछ फ़िल्में होती हैं जिनके कुछ दृश्य उस फिल्म की समूची गुणवत्ता को न केवल बढ़ा देते हैं बल्कि वे उस फिल्म की गुणवत्ता के प्रतिनिधि भी बन जाते हैं, जैसे आशुतोष गोवारिकर की शाहरुख खान अभिनीत “स्वदेस” में वह प्रकरण जहां मोहन (शाहरुख) गाँव में गरीब किसान से मिलने जाता है| वह अकेला दृश्य पूरी फिल्म पर भारी पड़ता है| उसी तरह से इस फिल्म – जॉली एल.एल.बी में भी पुलिया के नीचे जॉली द्वारा दीवार पर मूत्र विसर्जन करने से पहले उसे फुटपाथ पर बसेरा करने वाले बुजुर्गवार द्वारा टोके जाने वाला दृश्य, कुछ कमियों और कुछ जगह इधर उधर भटकने के बावजूद दर्शक को मजबूती से अपनी ओर खींच ही लेती है| फिल्म में समय समय पर ऐसे मजबूत दृश्य आते रहते हैं जो दर्शक को फिल्म से अलगाव बनाने से रोकते हैं और फिल्म में उसकी रूचि बनाए रखते हैं|
अभिनय की बात करें तो अरशद वारसी बहुत अच्छे अभिनेता हैं और वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के युवा वकील की भूमिका को अच्छे से निभा भी ले गये हैं पर उनका अभिनय प्रदर्शन उस स्तर का नहीं है जैसा डूब कर उन्होंने उत्तर प्रदेश के पुलिस अधिकारी का किरदार “सहर” में निभाया था या जैसा आकर्षक सैफ अली खान ने ओमकारा में “ईश्वर त्यागी उर्फ लंगड़ा त्यागी” को बना दिया था| अरशद का जगदीश त्यागी के रूप में अभिनय उनके अपने सहर में किये अभिनय और सैफ अली खान के उत्तर प्रदेश के इसी इलाके के चरित्र में किये अभिनय प्रदर्शन के सामने कमतर बैठता है| जितनी उनकी योग्यता है वे बहुत अच्छा कर सकते थे| इसमें इस बात की भी भूमिका हो सकती है कि निर्देशक ने हास्य का पुट उनके चरित्र में बनाए रखा और उससे उनका चरित्र न तो बहुत स्पष्ट विचार ग्रहण कर सका न ही व्यवहार| फिल्म का बेहद महत्वपूर्ण मोड़ है जहां मुकदमे का तथाकथित गवाह एल्बर्ट पिंटो (हर्ष छाया) जॉली के पास आकर उससे कहता है कि उसे राजपाल ने दो करोड़ रुपयों में बिक जाने का प्रस्ताव दिया है| इस पूरे प्रकरण में जॉली के चरित्र चित्रण की कमी नज़र आती है और एक अभिनेता के रूप में अरशद कुछ भ्रमित लगे इस प्रकरण में अभिनय करते हुए|
फिल्म की कथा का यह मोड़ भी उसकी कमी ही कहलायेगा कि जॉली के अपने कोई आदर्श नहीं हैं, वह बिकने को एकदम तैयार है पर उसके प्रयास के कारण जो उसकी आदर्शवादी छवि बनती है उसके भुलावे में उसकी प्रेमिका भी आ जाती है और व् किसी विचारधारा के कारण मुकदमें में वापिस नहीं आता बल्कि इसलिए वापिस आता है क्योंकि वह अपनी प्रेमिका को खोना नहीं चाहता| जॉली जब मुक़दमा फिर से खोलने के लिए जनहित याचिका दायर करता है तो फिल्म ढंग से स्पष्ट नहीं कर पाती कि वह ऐसा क्या सिर्फ अपनी दूकान चमकाने के लिए कर रहा है या उसे वाकई गुनहगार को सजा दिलवानी है? इस बात को मानने में गुरेज नहीं होता कि फिल्म में हास्य की कोटिंग ने जॉली के चरित्र और फिल्म को धारदार होने से रोका है और दोनों को कुछ हद तक कमजोर और अस्पष्ट बनाया है| यह गोविन्द निहलानी की आक्रोश जैसा प्रहार नहीं करती न्यायिक और पुलिस व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर|
फिल्म में ठूंसे गये गाने फिल्म को कमजोरी ही प्रदान करते हैं| गीतों को आराम से हटाया जा सकता था|
अभिनय के लिहाज से देखें तो यह फिल्म सबसे ज्यादा है सौरभ शुक्ला की और उनके बाद बोमन ईरानी की| सौरभ शुक्ला ने बतौर अभिनेता अपनी काबिलियत जज त्रिपाठी के रूप में इस तरह प्रदर्शित की है कि अब उनके अलावा किसी और अभिनेता को इस भूमिका के लिए सोचना भी कठिन है| यह उनके द्वारा “द बेंडिट क्वीन” में किये गये अभिनय प्रदर्शन जैसा ही चमकीला अभिनय प्रदर्शन है, एकदम प्रथम श्रेणी वाला जिसे देखकर सिनेमा में अभिनय के घोर प्रशंसक दर्शकों को रूहानी संतोष मिलता है|
बोमन ने भी अहंकारी अमीर वकील की भूमिका को जीवंत करके फिर से दर्शाया है कि वे कितने बड़े रत्न हैं वर्तमान के हिंदी सिनेमा के|
मनोज पाहवा, संजय मिश्रा और मोहन अगाशे तीनों ने अपनी अपनी छोटी भूमिकाओं में भरपूर रंग भरे हैं और प्रभावी अभिनय किया है|
रमेश देव को बरसों बाद किसी फिल्म में देखना अच्छा लगता है| वे ऐसे पिता की भूमिका में, जिसकी बेटी की बलात्कार के बाद ह्त्या कर दी गई और जो बरसों से न्याय की बात जोह रहा है, अच्छा असर छोड़ गये हैं|
चूँकि फिल्म क़ानून, और मुकदमें से ताल्लुक रखती है अतः कुछ बातें हैं जो प्रथम दृष्टया खटकती हैं| उनमें एक महत्वपूर्ण कमी है|
राजपाल अपने मुवक्किल के परिवार से खफा होकर साजिश रचता है परन्तु फिल्म इस बात को बिलकुल संयोग बना डालती है कि जॉली ने उसी समय इस केस पर पुनः विचार करने के लिए अर्जी डाली है| अगर जॉली जनहित याचिका दायर न करता तो राजपाल क्या करता? फिल्म को यह महत्वपूर्ण मोड़ संयोग के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए था| फिल्म को दिखाना चाहिए था कि राजपाल, जॉली से जनहित याचिका दायर करवाने में उत्प्रेरक का कार्य करता है भले ही अपरोक्ष रूप से और फिल्म बाद में यह दिखा सकती थी|
ऐसी कमियों के बावजूद फिल्म मनोरंजक है और आशावाद का संचार करती है|
…[राकेश]
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