दुनिया की निगाह में एक युवा स्त्री तभी माँ के रूप में दिखाई देती है जब वह एक नवजात शिशु के साथ एक फ्रेम में साथ दिखाई दे| मानसिक तौर पर जब स्त्री तैयार हो जाती है मातृत्व की ओर कदम रखने के लिए तभी सही मायने में वह माँ बनने की राह तय करना शुरू करती है, अब यह शिशु को गर्भ में धारण करने से पहले ही हो सकने वाली घटना हो सकती है और बहुत बार ऐसा भी होता है कि बहुत सी गर्भवती स्त्रियों में भी माँ होने की भावना तभी सही रूप में जाग्रत होती है जब पहली बार वे अपने द्वारा जन्माये गए शिशु का पहली बार स्पर्श करती हैं| बहुत सी स्त्त्रियाँ तब भी नहीं बन पातीं या उस नई स्थिति के एहसास को महसूस नहीं कर पातीं| बच्चों के जन्म होने के बाद भी दुनिया में बहुत से जोड़ों को वास्तविक रूप में माता-पिता बनने में समय लगता है| कोई क्षण होता है जब वास्तविक वात्सल्य उनके अन्दर अकुंरित हो जाता है और वे केवल जैविक रूप से ही नहीं बल्कि सच में ही माँ-पिता बन जाते हैं|
भारत में कृष्ण को लेकर देवकी और यशोदा में से असल माँ कौन है यह बात अक्सर ही भावनात्मक रूप से और बुद्धि एवं तर्क के तौर पर हरेक के मन में उठती ही रहती है| शारीरिक रूप से जन्म दिया देवकी ने लेकिन पहले दिन से पाला कान्हा को यशोदा ने| देवकी और यशोदा के मध्य तो कभी ऐसा दावा करने की नौबत भी नहीं आई कि कृष्ण की असली माँ किसे कहा जा सकता है, किसे कहा जाएगा? देवकी और यशोदा की तो बात ही क्या कृष्ण जैसा व्यक्तित्व जब गोकुल से पहली बार बाहर निकल कर कंस के दूत अक्रूर के साथ मथुरा जाने लगे तो सारे इलाके के लोग ही गहन उदासी में थे| कृष्ण वियोग के इन क्षणों का उपयोग भारतीय साहित्य, अन्य कलाओं और सिनेमा ने बार बार अपने हित हेतु किया है| नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित नई हिन्दी फ़िल्म – मिमी, भी कृष्ण से बिछोह की उस दुःख भरी घड़ी का उपयोग फ़िल्म में भावनात्मक पुट लाने के लिए करती है|
सरोगेसी वर्तमान में एक प्रचलित तरीका बन चुका है और फ़िल्म –मिमी, सरोगेसी के एक समस्याग्रस्त पहलू को सामने रखती है| कानूनन अनुबंधित रूप से एक शिशु को जन्म देने वाली इस प्रक्रिया में वह स्त्री मुसीबत में पड़ सकती है जिसने अपनी कोख का उपयोग सरोगेसी के लिए हो जाने दिया है| अगर वे लोग जो उससे इस करार को शिशु के जन्म से पूर्व या एकदम बाद तोड़कर चले जाएँ तो वह स्त्री क्या करे? उसकी अपनी योजना में तो सम्मिलित था नहीं अभी एक शिशु का लालन पालन करना| ज्यादातर मामलों में तो गरीब स्त्री ही धन की खातिर अपनी कोख दूसरे के बच्चे को जन्म देने के लिए प्रस्तुत करती है| अगर धनी जोड़ा बीच में ही करार को तोड़ डाले तो गरीब स्त्री के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी हो जाएँ| जिस तरह सरोगेसी की शरण में गए जोड़े के पास अधिकार है कि अगर कोख किराए पर देने वाली स्त्री अगर शिशु को देने से इनकार कर दे तो कानूनी रूप से वे शिशु को प्राप्त कर लें उसी तरह सरोगेसी अनुबंध को किसी भी कारण से तोड़ने पर कोख किराए पर देने वाली स्त्री के भी कानूनी अधिकार होने चाहियें| सरोगेसी के लिए आये जोड़े अगर विदेशी हैं तब तो और बड़ी समस्या है कि गरीब स्त्री उन्हें कहाँ पकड़ेगी अगर वे गर्भकाल में ही कुछ अरसे बाद अनुबंध को अपनी तरफ से समाप्त करने की घोषणा कर दें| वास्तव में अवश्य ही अस्पताल जो सरोगेसी प्रक्रिया के लिए दोनों पक्षों को मिलाते हैं, इन सब बातों का ध्यान रखते होंगे लेकिन फ़िल्म में इस एक समस्या को दिखाया गया है, जो अच्छा प्रयास है इस ओर लोगों का ध्यान जाग्रत करने का|
मिमी एक हास्य फ़िल्म के रूप में शुरु होकर सरोगेसी में उपरोक्त्त समस्या के आ जाने से भावनात्मक मोड़ की तरफ मुड जाती है| फ़िल्म में पंकज त्रिपाठी, मनोज पाहवा और कुछ अन्य कलाकार अच्छा हास्य प्रस्तुत करते हैं| कुछ परिस्थितियाँ बिना किसी संवाद के भी खुले हास्य को विकरित करने में सफल रहती हैं| जैसे जब कैमरा पहली बार सरोगेसी द्वारा जन्म पाए बच्चे के चेहरे पर भ्रमण करता है तो किसी संवाद के बिना भी भरपूर हास्य उत्पन्न हो जाता है क्योंकि दर्शक को पता है कि नवजात शिशु रूपी यह परिणाम आगे क्या क्या रंग दिखाने वाला है?
बच्चे को देखकर हरेक चरित्र द्वारा पंकज त्रिपाठी की ओर अचरज भरी दृष्टि से देखने मात्र से दर्शक तक हास्य स्वत: पहुँच जाता है|
पूर्णतया व्यावसायिक फिल्मों के ढाँचे से ठीक ठीक या बड़े सितारे बने अभिनेता या अभिनेत्री को जब अभिनय के बलबूते साख कमाए हुए अभिनेताओं के समक्ष परदे पर खडा कर दिया जाता है तो अक्सर ही अच्छे परिणाम निकलते हैं| जैसे लारा दत्ता और विनय पाठक की “ चलो दिल्ली”[ Chalo Dilli (2011) : इंडिया का भारत भ्रमण ] थी| इसी तरह मिमी में कृति सेनन और पंकज त्रिपाठी का साथ परदे पर रोचक स्थितियां प्रस्तुत करता है|
बच्चे के जन्म से पहले ही बच्चे के डाउन सिंड्रोम से पीड़ित होने के बारे में डॉक्टर की रिपोर्ट पाने से दुखी अमेरिकी जोड़े के अमेरिका वापिस जाने से समस्याओं से घिर चुकी मिमी के जीवन में जिस तरह उसके घर की बुजुर्ग महिला (शायद नानी), उसकी सखी शमा, और भानु (पंकज त्रिपाठी) उसका समर्थन करते हैं और उसका साथ हर हाल में देते हैं वह फ़िल्म को एक ठोस मानवीय भावों का आधार प्रदान करता है|
फ़िल्म हिन्दू मुस्लिम आबादी के बेहद सहज रूप से मिल जुल कर रहने का मॉडल प्रस्तुत करती है, दोनों पक्षों के मध्य बिना किसी तनाव के हास्य के क्षण रचे गए हैं| यह आदर्श स्थिति लगती है और शायद वास्तविक न भी हो लेकिन रोचक और आकर्षक अवश्य ही लगती है|
जिस तरह से फ़िल्म में तलाकशुदा शमा अपनी बाल सखी मिमी का साथ देती है, उसमें धन का लालच गायब है, जो एक बेहतर बात लगती है| शमा, मिमी के संगीतकार पिता की शिष्या है और शायद अपने अकेलेपन के कारण ही वह मिमी के संभावित रूप से अस्वस्थ बच्चे को, अपने पास रखने की बात करती है ताकि मिमी फ़िल्म स्टार बनने के अपने सपने को मुंबई जाकर पूरा कर सके|
फ़िल्म में हास्य पक्ष जितना मजबूत है, उस तुलना में भावनाओं का पक्ष उतना मजबूत नहीं दिखाई पड़ता| घर्षण की कमी लगती है| सरोगेसी की व्यवस्था करने वाली डॉक्टर ने कहा था कि शिशु डाउन सिंड्रोम से पीड़ित हो सकता है तो बच्चे के एकदम स्वस्थ होने से मिमी और उसके परिवार के जीवन से वैसा तत्व निकल गया कि अगर बच्चा वाकई डाउन सिंड्रोम से पीड़ित होता तो तब क्या होता? उस मामले में सिर्फ शमा ही ऐसी थी जिसने बच्चे को अपने पास रखने की बात कही थी| मिमी और उसके माता पिता के सामने तो संघर्ष का अवसर ही नहीं आया| सरकारी अस्पताल की डॉक्टर जो मिमी की डिलीवरी कराती है शमा से कहती है कि प्रसव पूर्व मेडिकल रिपोर्ट फाल्स पोजीटिव हो सकती है क्योंकि ऐसा बहुत बार हो जाता है| क्या ऐसा तकनीकी संशय सरोगेसी वाली डॉक्टर को नहीं प्रकट करना था कि डाउन सिंड्रोम वाली बात एक संदेह भर है और ऐसा भी संभव है कि बच्चा बिलकुल स्वस्थ हो, या कि कुछ समय बाद वे दुबारा टेस्ट करेंगे|
चार साल बाद सोशल मीडिया पर एक फिरंगी दिखने वाले स्वस्थ बच्चे को मिमी के परिवार के साथ देखकर अमेरिकी जोड़ा भारत आकर बच्चे पर अपना दावा कर देते हैं| उनके वापिस आने के बाद फ़िल्म थोड़े गोते खाती है और एक बेहद आसान सा हल खोजकर फ़िल्म समाप्त हो जाती है| भावनात्मक उतार चढ़ाव में यथोचित गहराई की कमी फ़िल्म में लगती है|
जैसा इस तरह की फ़िल्म को मर्मस्पर्शी होना चाहिए वैसा नहीं हो पाता| शायद भावनात्मक भाग के हिस्से में थोड़ा और समय, कुछ और दृश्य जोड़े जाने थे| पर हल्की फुल्की फ़िल्म के रूप में फ़िल्म अच्छी लगती है|
अभिनेताओं के अभिनय से ज्यादा इस फ़िल्म में चरित्र जीतते हैं, वे बड़े अच्छे और मानवीय बनाए गए हैं, जो फ़िल्म की एक बड़ी पूंजी है| आधुनिक दौर में यह बहाव के उलट तैरना है और ऐसे चरित्रों को लोग कोसते हैं कि वे जरुरत से ज्यादा अच्छे हैं|
पंकज त्रिपाठी, मनोज पाहवा, और कीर्ति सेनोन. हास्य और भावुकता दोनों भागों में बेहतर करते हैं| मिमी के माँ बनकर शिशु को गोद में लिए बैठने के दृश्य से ही कीर्ति सेनोन के अभिनय में ज्यादा गहराई दिखाई देने लगती है| सुप्रिया पाठक एवं अन्य सभी अभिनेताओं से अच्छा काम लिया गया है|
फ़िल्म का संवाद पक्ष अच्छा है और संवाद लेखक – रोहन शंकर, ने हास्य और जीवन दर्शन दोनों किस्म के संवादों में अच्छा लेखन किया है|
पुत्री के कारनामों से दुखी और संशय में फंसे पिता के रूप में मनोज पाहवा का पंकज त्रिपाठी से पूछना – भाया कोई घर बार है या यहीं घर जमाई बन कर रहोगे?
भानु – ड्राईवर हूँ ना| हमारा एक उसूल है, पेसेंजर को बिठा लिया तो मंजिल तक छोड़े बगैर वापिस नहीं लौटते| कभी कभी रास्ते खराब होते हैं, गड्ढे, एक्सीडेंट इसका मतलब ये थोड़े कि अपने लोगों को बीच में छोड़ दें|
शमा – हम जो सोचते हैं वो ज़िंदगी नहीं होती, हमारे साथ जो होता है वही ज़िंदगी होती है|
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